पूरब की लाली लायी नवयुग का संदेश

May 1993

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भारत का भविष्य विषयक भविष्यवाणी में विश्व के प्रायः सभी भविष्यवक्ताओं ने जो एक महत्वपूर्ण बात कही है,वह यह कि इन दिनों यहाँ जो अराजकता और अराजकता और अशाँति का घनघोर घटाटोप चहुँ ओर संव्याप्त है। वह अगले ही दिन जलवे तवे में जल-बूँद की तरह देखते-देखते अपना अस्तित्व गँवा देगा और उसकी जगह एक ऐसी नवीन क्राँति व शाँति ले लेगी, जो हजारों वर्षों तक समस्त संसार को अभिनव ऊर्जा और आभा प्रदान करती रहेगी। इस क्रम में पंद्रहवीं सदी के मूर्धन्य भविष्य द्रष्टा निक्सन की चर्चा अप्रासंगिक न होगी। उल्लेखनीय है कि रॉबर्ट निक्सन इंग्लैंड के एक छोटे से गाँव में पैदा हुए। जब वे पंद्रह वर्ष के किशोर थे, तभी से उनने भविष्यवाणियाँ करनी शुरू कर दीं। आरंभ में लोग उन्हें सनकी प्रकृति का मानते थे, किंतु धीरे-धीरे लोगों को जब यह पता चला कि जो वह कहता है, वह सच होकर रहता है, तो उनकी गणना भविष्यवक्ता के रूप में प्रख्यात हो चुके थे। इससे प्रभावित होकर वहाँ के तत्कालीन अंग्रेज सम्राट हेनरी ने उन्हें अपना राजकीय भविष्य द्रष्टा नियुक्त कर लिया था और समय-समय पर उनसे अपने भविष्य संबंधी सलाह सम्मति लेते रहते थे, किंतु निक्सन ने सिर्फ हेनरी व इंग्लैंड के बारे में ही भविष्यवाणियाँ की हों ऐसी बात नहीं है। संपूर्ण विश्व के संबंध में और विशेष कर भारत के संदर्भ में उनका कथन वर्तमान परिप्रेक्ष्य में अत्यंत महत्वपूर्ण है।

अपने दिव्य-दर्शन के आधार पर भारत के बारे में उनने कहा है कि बीसवीं शताब्दी के अंत तक उक्त देश में आस्था संकट, अपराध और उग्रवाद अपनी चरम सीमा पर होंगे, पर 21 वीं सदी आते-आते उनका मूलोच्छेद इस तरह होगा एवं परिस्थितियाँ ऐसे करवट बदलेंगी जैसे वहाँ कभी वातावरण विषम रहा ही न हो। धीरे-धीरे उसकी सारी बाधाएँ समाप्त हो जायेंगी, इनमें से जो ऐन केन प्रकारेण अपने आपे को सुरक्षित रखना चाहेगी, वह भविष्य के गर्भ में पक रहे प्रबल आध्यात्मिक प्रवाह के एक झोंके में ही धराशायी हो जायेंगी। वह अपना अस्तित्व श्रेष्ठ और सुँदर बना कर ही कायम रख सकेगी। निकृष्टता तब आज की श्रेष्ठता की भाँति दुर्लभ बन जायेगी। यत्र-तत्र यदि वह टिमटिमाती भी रहेगी, तो उपेक्षा और अनादर की दृष्टि से देखी जायेगी। 2050 के आस-पास वर्तमान का गरीब, अशिक्षित, अविकसित और प्रतिगामी भारत अपना जीर्ण-शीर्ण चोला उतार फेंकेगा और समृद्धि व श्रेष्ठता के ऐसे मानदण्ड स्थापित करेगा जिसे अद्वितीय कहा जा सके। तब भारत एक अध्यात्मिक महाशक्ति के रूप में उभरेगा और वैसा ही उदाहरण उपस्थित करता दीख पड़ेगा, जैसा प्रबल चुँबक के प्रभाव-क्षेत्र में आने वाले लौह कण स्वतः उसकी ओर आकर्षित होते और अनायास उनका गुण धारण करने लग जाते हैं। इस समय तक सम्पूर्ण विश्व भारत का लोहा मानने लगेगा। उसकी अध्यात्मिक विरासत चरमोत्कर्ष पर होगी। उस समय का भारतीय भूगोल भी आज जैसा न रहेगा। सीमाएँ बदलेंगी और उनमें विस्तार होगा। जो भूमि पिछले युद्धों में आक्रांताओं द्वारा हड़प ली गई अथवा दरिद्रता के असह्य भार के कारण टूट कर पृथक हो गयी, वह सब एक बार फिर उस पवित्र देश में सम्मिलित हो जायेगी। भाषा, क्षेत्र, सम्प्रदाय, लिंग, जाति संबंधी विवाद न रहेगा। सब मिलकर एक जाति-धर्म बन जायेंगे। और समग्रता का एक सम्पूर्ण इकाई का परिचय देंगे तब मनुष्यता और सामाजिकता सर्वोपरि समझी जायेगी।

वे कहते हैं कि लोग तब स्वयं की हानि पर भी दूसरों को लाभ पहुँचाने में गर्व-गौरव अनुभव करेंगे। संवेदनाओं का उफान इतने जोर पर होगा कि स्व का विस्तार पर तक होने में देर न लगेगी। लोगों की मानसिकता में फिर आमूल-चूल परिवर्तन आयेगा। सोच बदलेगी, तो वर्तमान परिभाषाएँ भी अपना सद्यः स्वरूप यथावत बनाये न रह सकेंगी। उनमें नये सिरे से नये विचार होंगे, और परिस्थिति के अनुरूप उनकी नूतन व्याख्या होगी, जिन्हें मानने और अपनाने में लोग किसी प्रकार की कोई अनख न दिखायेंगे। पदार्थ विज्ञान के क्षेत्र में भी उसकी उन्नति विश्व में अग्रणी मानी जायेगी। इस क्षेत्र में वह ऐसे-ऐसे अनुसंधान करेगा, जिससे सर्वत्र उसकी तूती बोलने लगेगी। अंतरिक्ष अनुसंधान की दिशा में तब एकमात्र वही देश संसार भर में अकेला रह जायेगा,जो उस क्षेत्र के शोध कार्य को आगे बढ़ायेगा। संप्रति जो कतिपय देश इस दिशा में अन्वेषण-कार्य में जुटे हैं,अथवा जुटने वाले हैं,वे आने वाले समय में आर्थिक संकटों और घरेलू समस्याओं में इस कदर उलझेंगे कि उनमें निपटने में ही उनकी अधिकाँश सामर्थ्य चुक जायेगी,फलतः इस प्रकार के शोध-अनुसंधान को वे आगे जारी न रख सकेंगे। रॉबर्ट निक्सन आगे कहते हैं कि यदि भारत के अथक प्रयास से किसी अंतर्ग्रही सभ्यता का पता लगा लिया जाय, तो इसे आश्चर्य नहीं माना जाना चाहिए। आज उड़न तश्तरी की जो गुत्थी पहेली बनी हुई है, आगामी समय में वह सुलझा ली जायेगी। इसका श्रेय भारत को ही मिलेगा। खनिज तेलों के संदर्भ में आज का परावलंबी भारत तब स्वावलम्बी बन जायेगा। उसे समुद्र में तेल का इतना बड़ा भण्डार प्राप्त होगा, जिससे न सिर्फ वह अपनी ही कमी दूर कर सकेगा, वरन् अन्य अनेकों का भी पेट भर सकेगा। यह बात दूसरी है कि बढ़ते प्रदूषण के कारण धीरे-धीरे उसका प्रयोग मोटर-वाहनों में बंद हो जायेगा और सीमित क्षेत्र में ही उपयोग अप्रतिहत जारी रह सकेगा। ईंधन के कई ऐसे विकल्प ढूँढ़ लिये जायेंगे,जो लगभग प्रदूषणमुक्त होंगे। भारत वर्ष विश्व भर में इन ईंधनों की आपूर्ति करेगा। सौर ऊर्जा ईंधन का अच्छा विकल्प सिद्ध होगा। अधिकाँश यंत्र-उपकरण इसी के माध्यम से चलाये जायेंगे। विश्व भर में इस ऊर्जा का सबसे अधिक दोहन भारत-भूमि में ही होगा। इसके लिए ऐसी परिष्कृत मशीनें विकसित की जायेंगी, जो हर क्षेत्र की ऊर्जा आवश्यकता को पूरी कर सकें। वहाँ के सबसे ऊँचे पर्वत से इतनी विपुल संपदा प्राप्त होगी कि उसके खोये वैभव की भरपाई हो सके। यद्यपि तब भौतिक समृद्धि की महत्ता सार्वजनिक जीवन में बदले दृष्टिकोण के कारण नगण्य जैसी समझी जानी लगेगी, किंतु इससे भवितव्यता बदल नहीं जायेगी। निक्सन का कहना है कि यह भूमि एक बार फिर वैभवशाली बनेगी और वह समृद्धि प्राप्त करेगी, जो पूर्व में कभी उसकी अमूल्य थाती थी। ऐश्वर्य तो उसके कण-कण में इस प्रकार बोलेगा, मानों साक्षात् स्वर्ग ही उतर आया हो। फिर उसका प्रसार-विस्तार शैशव से किशोर, किशोर से वयस्क, वयस्क से प्रौढ़ावस्था की तरह पृथ्वी के कोने-कोने में अभिवृद्धि करता चलेगा, जिससे कभी का भौगोलिक सीमाओं में आबद्ध भूखण्ड अपनी बहुमूल्य आध्यात्मिक विरासत के कारण सम्पूर्ण धरा को ऐसा साँस्कृतिक चिंतन देगा,जो भले ही देश की भौगोलिक सीमा को बढ़ा न सके, पर संस्कृति का विराट विस्तार इस कदर होगा कि संपूर्ण विश्व विशाल भारत-महाभारत लगने लगे।

निक्सन कहते हैं कि यह सब उपलब्धियाँ उस देश की अभूतपूर्व आध्यात्मिक क्राँति के कारण होंगी। यदि निक्सन के उक्त कथन की तुलना वर्तमान भारत से करें, तो इसकी संगति देश की इन दिनों की परिस्थिति और प्रगति से काफी कुछ मेल खाती प्रतीत होगी। उनके कथनानुसार यदि आने वाले काल में यह राष्ट्र समस्त वसुंधरा का मुकुटमणि साबित हो, तो आश्चर्य नहीं करना चाहिए, क्योंकि महाकाल का चक्र अपनी चरमगति पर है-विश्वभर में घटते घटनाक्रमों से इसका स्पष्ट आभास मिलता है,किंतु इस भागवत वेला में अपना भी दायित्व कोई कम महत्वपूर्ण नहीं है। यदि चरित्र चिंतन की दृष्टि से हम अपने को परमसत्ता की इच्छा के अनुरूप ढाल सके, तो इस परिवर्तन प्रक्रिया में न हम केवल स्रष्टा के सहभागी बनेंगे, अपितु उन विभूतियों से भी सहज ही ओत-प्रोत हो सकेंगे, जिन्हें प्राप्त करने में साधना-क्षेत्र के साधकों को वर्षों नहीं, जन्मों तक इंतजार करना पड़ता है।


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