वृक्ष-वनस्पति भी परस्पर बातें करते हैं, मूक नहीं हैं

May 1993

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सत्य चाहे कुछ भी हो, जब तक इस स्थूल बुद्धि को कोई ठोस प्रमाण नहीं मिल जाता, उसे संतोष नहीं होता। यों अध्यात्म अवधारणा तो इसे भलीभाँति स्वीकारती है कि इस दृश्य जगत में जड़-चेतन कहे जाने वाले समस्त प्राणी व पदार्थ चेतना के एक अविच्छिन्न प्रवाह से जुड़ें हुए हैं, पर पदार्थ विज्ञान को इतने से संतुष्टि कहाँ! वह तो प्रत्यक्षवाद के धरातल पर आधारित है और किसी भी तथ्य को स्वीकारने एवं नकारने के लिए तर्क सम्मत सत्य की आवश्यकता अनुभव करता है। यह उचित भी है। आँख जब तक स्वयं सब कुछ देख न ले, किसी अघटित पर विश्वास क्यों करें! पर असत्य यह भी नहीं है कि अपनी सामर्थ्य और सीमा के अन्दर ही इस प्रकार का दावा वह प्रस्तुत कर सकती है, इससे बाहर नहीं।

विज्ञान के साथ नहीं हुआ। वृक्ष-वनस्पतियों के संदर्भ में उसने पिछले दिनों अपने अन्वेषण-अनुसंधान द्वारा अध्यात्म विज्ञान की इस मान्यता की तो पुष्टि कर दी कि जीव-जन्तुओं की तरह उनमें भी भाव-संवेदनाएँ होती हैं। प्रतिकूल परिस्थितियों में वे भी चिन्ता, भय, शोक, पीड़ा की अनुभूति करते हैं और परिस्थितियाँ अनुकूल होते ही अन्य जीवधारियों की तरह हर्ष व विषाद की संवेदनाओं को अपने पड़ोसी वनस्पतियों तक पहुँचाते कैसे हैं? प्राणियों में इस निमित्त बोलियाँ होती हैं, विशिष्ट स्तर की विशेष मुद्राएँ-भाव-भंगिमाएँ होती हैं, जिनसे उनमें आगत-अनागत सूचनाओं का आदान-प्रदान होता रहता है, पर पौधे? उनमें तो ऐसी मुद्राएँ भी नहीं होती, फिर जानकारियों के प्रसारण का आधार क्या है? क्या इसे सूक्ष्म स्तर की कोई विशेष बोली मान ली जाय? हाँ, वर्तमान शोध इसी निष्कर्ष पर पहुँचा है कि पादप इस प्रकार का विनिमय अपनी विशिष्ट बोली के आधार पर करते और पड़ोसियों को वर्तमान एवं भविष्य संबंधी महत्वपूर्ण जानकारियों से अवगत कराते रहते हैं।

शेक्सपियर ने “मैकबेथ” नामक नाटक में जब पहली बार यह कहा था कि-पौधे बोलते हैं, तो पश्चिमी जगत ने इसे कवि की कल्पना मात्र माना था, पर सूक्ष्म की ओर निरन्तर बढ़ते विज्ञान ने अब इसे सत्य सिद्ध कर दिखाया है कि उक्त कथन में उतनी ही सच्चाई है, जितनी उदयाचल और अस्ताचल से दिनमान के उगने और डूबने में। यूनिवर्सिटी ऑफ वाशिंगटन, सिटल के प्रो. डेविड एफ.रोएडस ने इसी बात की पुष्टि अपने प्रयोग परीक्षणों द्वारा कुछ वर्ष की और कहा कि पौधों में सूक्ष्म स्तर की वार्तालाप द्वारा निरन्तर जानकारियाँ का आदान-प्रदान चलता रहता है, पर वे इतने सूक्ष्म होते हैं, जिन्हें मानवी कान सुन समझ नहीं सकते। इसे एक सुखद संयोग ही कहना चाहिए, जिस मध्य इस अनुपलब्ध की उपलब्धि हुई।

हुआ यों कि प्रो. रोएड्स के मार्गदर्शन में एक वैज्ञानिक दल पौधों पर तनाव संबंधी अध्ययन करने में जुटा हुआ था। अनेक वर्षों तक इस प्रकार के शोध के दौरान उन्होंने कई महत्वपूर्ण तथ्यों का पता लगाया। शोधकर्मियों न पाया कि सुखा, कोहरा, खाद की कमी प्रदूषण आदि तत्व समान रूप से वनस्पतियों को तनाव-जन्य स्थिति में पहुँचा देते हैं। उन्होंने देखा कि इन परिस्थितियों में पौधे रोगों एवं उन कीटकों के प्रति अधिक संवेदनशील हो जाते हैं, जो पादप भक्षी होते हैं। ऐसी दशा में उनका आक्रमण जल्दी और ज्यादा होता है। इसका कारण बताते हुए वे कहते हैं कि इस अवस्था में उनकी नैसर्गिक प्रतिरक्षा प्रणाली ठीक उसी प्रकार लड़खड़ाने लगती एवं कमजोर हो जाती है, जिस प्रकार मनुष्य एवं अन्य जंतुओं के बरसाती पानी में भीग जाने से उनकी प्रतिरोधी क्षमता प्रभावित होती है। वे कहते हैं कि पानी में भीग जाना उनके रोग का कारण नहीं, वरन् सच्चाई यह है कि इससे प्रतिरोधी क्षमता में ह्रास आने से रोगाणुओं का आक्रमण जल्दी उन्हें अपनी चपेट में लेता और शिकार बनाता है।

यह तो वनस्पतियों और प्राणियों में तनाव व रोग के सामान्य एवं सरल धारण हुए, पर अनुसंधानकर्ताओं ने पादपों पर परीक्षण के दौरान एक अन्य ऐसा कारण भी पाया, जो उनमें तनाव पैदा करता था। यह था उनके अन्दर चलने वाला रासायनिक परिवर्तन। विशेषज्ञों ने पाया कि तनाव की स्थिति में वनस्पतियाँ अपने अन्दर अधिकाधिक पोषक तत्व उत्पन्न करती हैं। इसके अतिरिक्त वैसे रसायनों का निर्माण भी करती है, जो शत्रुओं के आक्रमण से उनकी सुरक्षा कर सके।

इतनी जानकारी उपलब्ध करने के उपरान्त उनने एक विशेष प्रकार के पौधे पर परीक्षण आरंभ किया। उस विशेष जाति के पौधे में से कुछ में वैज्ञानिकों ने भूखे पादपभक्षी कीड़ों को रख दिया, जबकि अन्यों को इनसे दूर रखा। देखा गया कि कीड़े आरंभ में बड़ी तेजी से बढ़े, किन्तु तुरन्त ही थोड़े दिनों बाद यह तथ्य भी उजागर हो गया कि अब उनकी वृद्धि उस गति से नहीं हो रही है, जो आरंभ में थी, साथ ही यह भी ज्ञात हुआ कि पादपीक्षी, पौधों को अब उतना नुकसान नहीं पहुँचा रहे हैं, जितना प्रारंभ के कुछ दिनों में। विश्लेषण से विदित हुआ कि आक्रमण के कुछ ही दिन पश्चात् पादपों ने प्रोएन्थोसाइनिडिन जैसे ऐसे विषैले और घातक रसायन बनाने आरंभ किये, जो कीट विनाशक थे।

अनुसंधानकर्ताओं को आश्चर्य तब हुआ जब कुछ सप्ताह बाद उन्होंने पड़ोस के स्वास्थ पौधों का अध्ययन-विश्लेषण आरंभ किया। उनने देखा कि सामान्य स्थिति में ऐसे रसायन जिस परिमाण में पौधों में पाये जाने चाहिए, उससे अनेक गुना अधिक पड़ोसी स्वस्थ पौधों में ये विद्यमान थे। इसका एक ही अर्थ निकलता था कि पास के पौधों में आक्रमण का पता उन्हें चल चुका था और उस स्थिति से निपटने की तैयारी में वे जुट चुके थे। उनके लिए आश्चर्य की बात यह थी कि आखिर स्वस्थ पौधों को इसका पता कैसे चला कि बगल में बैरी पहुँच चुके हैं? निश्चय ही आक्रान्ताओं के शिकार हुए वृक्षों ने उन्हें यह सूचना दी, जिसकी अग्रिम तैयारी के रूप में उनमें घातक रसायन बनते देखे गये।

इतना सुनिश्चित हो जाने के उपरान्त अब प्रो. रोएड्स एवं सहयोगियों ने यह जानने का निश्चय किया कि आखिर यह जानकारी पड़ोसियों तक किस माध्यम से पहुँची? मिट्टी अथवा जड़ से? प्रयोगशाला के भीतर गमलों एवं बाहर जमीन में लगे पौधों पर अनेकानेक परीक्षण के पश्चात् शोध दल ने पाया कि माध्यम क्या हो सकता है? इस संबंध में विशेषज्ञों को निश्चित मत है कि उनने वाणी द्वारा ही सूचना का सम्प्रेषण पड़ोसियों तक किया। प्रयोग से यह भी सिद्ध हो गया कि उनके वार्तालाप की परिधि की एक निश्चित सीमा है, उसी के अंतर्गत यह विचार-विनिमय संभव हो पाता है। उनके अनुसार यह दायरा सौ गज से भी ज्यादा होता है।

इसी तथ्य की पुष्टि दो ब्रिटिश वनस्पति शास्त्रियों ने भी की है। योर्क यूनिवर्सिटी के अन्वेषणकर्ताओं डॉ. साइमन वी. फाउलर एवं प्रो. जॉन एच. लाटन का कहना है कि यदि यह साबित हो जाय कि वृक्ष-वनस्पतियाँ परस्पर विचार-विनिमय अथवा वार्तालाप करते हैं, तो इसमें कोई आश्चर्य नहीं माना जाना चाहिए, क्योंकि जिनमें भाव-संवेदनाएँ हैं, निश्चय ही उनमें इसके संप्रेषण की भी विद्या व क्षमता निसर्ग ने सँजोयी होगी। यह बात और है कि उस गहराई और सूक्ष्मता को जानने-पहचानने की ओर हम धीरे-धीरे बढ़ रहे हैं। उनके अनुसार आरंभ में पौधों में इस प्रकार के किसी संवेगात्मक तत्व से सर्वथा इनकार किया जाता था, किन्तु कुछ समय पश्चात् विज्ञान ने इसे सिद्ध कर दिखाया। अब यदि उसके अग्रिम चरण में विज्ञानवेत्ता यह प्रमाणित कर दें कि जीवधारियों की तरह उनमें बातचीत की भी सामर्थ्य है, तो आश्चर्य क्या!

सचमुच हम एक ही चेतना की पृथक-पृथक अभिव्यंजना हैं। फिर उनमें यदि कोई संपर्क सूत्र हो, तो विस्मय कैसा! अध्यात्म विज्ञान तो इसे आरंभ से ही स्वीकारता आया है। अब यदि भौतिक विज्ञान उसी को अपने परिष्कृत यंत्रों और सूक्ष्म स्तर के अनुसंधानों द्वारा सिद्ध कर दे, तो इसे अचंभा नहीं, वरन् उसी सत्य की पुनरुक्ति भर माना जाना चाहिए, जिसे बहुत पूर्व से चेतना विज्ञान कहता चला आ रहा है।


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