संतान पाने की चिर आकाँक्षा पूर्ण हुई तो अत्रि की प्रसन्नता का पारावार न रहा। महर्षि पुत्र और पुत्री में कोई भेद न करते थे। उनके लिए दोनों एक ही शाश्वत तत्व की अभिव्यक्ति थे। इसलिए पुत्री होने पर उन्हें उतनी ही प्रसन्नता थी, जितनी किसी को पुत्र पाकर होती है। नामकरण संस्कार से लेकर विद्यारम्भ तक सारे संस्कार विधिवत आपने संपन्न कराये। उन्होंने उसका नाम रखा-’अपाला’।
किंतु अपाला ज्यों-ज्यों बढ़ती गई, महर्षि की प्रसन्नता त्यों-त्यों घटती गई। अपाला की त्वचा में पहली बार श्वेत धब्बे देखकर वे चौंके भर थे। विश्वास यह था कि औषधि उपचार ये यह ठीक हो जायगा। पर आयुर्वेद के पन्ने पलट-पलट कर महर्षि थक गये।जो भी संभव प्रयोग थे, उन्होंने एक-एक कर सब कर डाले, किंतु त्वचा दोष दूर न हुआ। समाज की कैसी विडम्बना है कि पुरुष के अनेक दोष क्षमा हो जाते हैं पर कन्या का रंगरूप साधारण होना भी अस्वीकार्य होता है। फिर अपाला तो एक ऐसे रोग को शरीर में पाल रही थी, जिसे अपने समाज में न केवल रोग वरन् पाप भी माना जाता है। परिस्थितियों से निराश महर्षि अत्रि ने अब अपना सारा ध्यान अपाला को ज्ञानवान बनाने में केन्द्रित किया। वेद, उपनिषद् ब्रह्मांड आरण्यक आदि सम्पूर्ण आर्ष ग्रंथों के अध्यापन के साथ उन्होंने अपाला को व्याकरण मीमाँसा और दर्शन ग्रंथों का भी अनुशीलन कराया। अपाला ने संगीत विद्या भी सीखी और इस तरह वह अपने अपूर्व तेज और यश के साथ तत्कालीन शीर्षस्थ विद्वानों की श्रेणी में जा पहुँची।
अब वह यौवन के द्वार पर खड़ी थी। स्वाभाविक था
कि महर्षि उसके हाथ पीले करने की बात सोचते पर ऐसा आदर्शनिष्ठ युवक उन्हें मिलता कहाँ? जो जीवन के भौतिक और लौकिक आकर्षणों से ऊपर उठकर विवाह को दो आत्माओं का पुनीत संबंध मानकर अपाला को स्वीकार करता। धर्म और आत्म तत्व की बातें करना सरल है पर अनेक कठिनाइयों और संघर्षों में अपनी हानि सहकर भी उसे व्यवहार में लाने वाले तो कोई बिरले साहसी सपूत होते हैं। महर्षि ने दृष्टि दौड़ाई तो उन्हें ऐसा लगा कि पृथ्वी अभी आदर्शविहीन नहीं हुई। कृशाश्व जो कभी उनके स्नातक रह चुके थे, उन्होंने अपाला को सहर्ष स्वीकार कर लिया। वैदिक रीति से कृशाश्व और अपाला एक दाम्पत्य सूत्र में आबद्ध हो गये।
दाम्पत्य संबंधों का प्रारम्भिक आकर्षण कुछ कम हुआ तो कृशाश्व के मन में पत्नी के प्रति विरक्ति आने लगी। वासना का जाल ऐसा कुटिल है कि वह जहाँ भी उद्दीप्त होता हैं, प्रेम की पावनता को उपेक्षा और तिरस्कार में परिवर्तित कर देता है। जो कृशाश्व अब तक प्रेम के कारण त्वचा दोष वाली अपाला में गुण ही गुण देखते थे। अब उन्हें अपाला जैसी विदुषी नारी भी माँस पिण्ड मात्र लग रही थी। उनकी अन्यमनस्कता-विचारशील अपाला से छुपी न रह सकी। वह इस अपमान से छटपटा उठी और अन्ततः एक दिन पूछ ही बैठी-”आर्य श्रेष्ठ! मैं इतने दिनों से आपके स्नेह पूर्ण संबोधन मधुर व्यवहार से वंचित हो रही हूँ कोई अपराध तो नहीं हो गया? “ कृशाश्व क्या उत्तर देते? उन्होंने स्वीकार किया कि वह मन की वासना से आगे पराभूत हैं। प्रेम के स्थान पर सौंदर्य की अभिलाषा ने उनके आदर्श को तोड़ डाला है। जो निराशा एक दिन अपने स्वर्णिम शरीर में श्वेत छींटे देखकर हुई थी, उससे अधिक पीड़ा हुई पति की उपेक्षा से। आज प्रथम बार उनके मन में स्वाभिमान जाग्रत हुआ और उसे इस बात का बोध हुआ कि संसार में पराश्रय सदैव दुख देता है। आत्मस्थिति अपनी शक्ति, अपने पैरों पर खड़ा होने का भरोसा ही सच्ची शक्ति है। उसी से मनुष्य साँसारिक अपमान से अपनी सुरक्षा कर सकता है।
उसने पतिग्रह का परित्याग कर दिया। रही वह अपने पिता महर्षि अत्रि के आश्रम में ही। किंतु उसने अपना कष्ट वहाँ किसी से भी नहीं किया। शनैः शनैः उसने गंभीरता धारण कर ली। उसने देखा किसी भी वस्तु का सच्चा रहस्य उसके मूल में ही पाया जा सकता है। आत्मा ही वह केन्द्र बिंदु है, जिस पर एकाग्र होने से अपनी परिस्थितियों का सम्यक् ज्ञान प्राप्त हो सकता है। यह विचार आते ही वह आत्म शोध की साधना में तल्लीन हो गई।
मनुष्य के मन में बड़ी शक्ति है। जिधर लगा दे उधर ही अज्ञात भूत के समस्त ज्ञान के कोष के कोष एकत्रित कर देता है। आत्मा की शोध करते हुए उसने अनुभव किया-मनुष्य जीवन के विकार, कष्ट और यंत्रणाएँ ईश्वर प्रदत्त नहीं उसकी निजी भूलें और पाप होते हैं। परमात्मा तो उनके प्रच्छालन में सहायता करता है। आत्मा को शुद्ध और सुघड़ बनाने की शक्ति प्रदान करता है। उसने इंद्र की उपासना इसी रूप में की। जप-तप, हवन-व्रत उपवास आदि तप-तितिक्षाओं के द्वारा उन्होंने अपना अन्तःकरण निताँत शुद्ध कर लिया। शास्त्र अनुशीलन और वेदों की शोध में अपने जीवन का एक-एक क्षण घुला दिया। शेष संसार से संबंध टूट गया। आत्मसाक्षात्कार की इस साधना में उसने रात-दिन एक कर दिए। भगवान को और क्या चाहिए, उन्हें तो निष्ठा की परख होती है, अन्यथा अपने भक्त की सहायता के लिए वे अहिर्निशि तत्पर रहते हैं।
आश्विन की शरद पूर्णिमा का दिन। जब सारा संसार निद्रा की गोद में पड़ा आनंद ले रहा था, अपाला आश्रम में एक नीरव नीड़ में बैठी ज्ञान-चक्षुओं से विश्व के अनंत विस्तार को हृदयंगम कर रही थी। पूर्णिमा की चंद्रमा अपनी सम्पूर्ण उज्ज्वलता पृथ्वी पर बिखेर कर आत्म सुख अनुभव कर रहा था। अपाला अपनी आत्म चेतन को भगवान इंद्र के विश्वात्म शरीर में हवन करती जा रही थी। देखते-देखते लघुता-महानता में अणु विभु में एकाकार हो चले। आत्मा ने अपने को परमात्मा के साथ एकाकार कर लिया।
“पूर्णकाम हो।” इस अन्तर्गूंज के साथ समाधि भंग हुई। सामने देखा देवराज इंद्र स्नेहपूर्ण मुसकान बिखेर रहे थे। देवेश! भावावेश में अपाला इतना ही कह सकी। पुत्री अपने पिता को पाकर जिस तरह विह्वल हो उठती है वैसे ही विह्वल अपाला की विह्वल आँखों से झर-झर आँसू बह चले। भाव नेत्र निर्निमेष अपने आराध्य को देख रहे थे। चिर प्यास-परम तृप्ति का आनंद ले रही थी। “मैं तुम्हारा त्वक्दोष दूर करता हूँ भद्रे।” भगवान इंद्र ने वात्सल्य भरे हृदय से कहा। वाणी सुनकर भाव विह्वलता से आकंठ डूबी अपाला उत्तर नहीं दे पा रही थी। धीरे-धीरे भाव संवरण करते हुए उसने कहा देव! यह शरीर आज नहीं तो कल छूटेगा ही। वह रुग्ण रहे या रोग मुक्त उससे क्या बनता-बिगड़ता है, आप तो मुझे वह शक्ति दें, ऐसी सामर्थ्य दें, विद्या और प्रकाश दें जिससे मैं इस प्रसुप्त भौतिक आकर्षणों से भ्रमित संसार को कुछ ज्ञान दें सकूँ। संसार का कुछ कल्याण कर सकूँ। एवमस्तु। कहकर महावन अदृश्य हो गये पर वे अपनी क्राँति शक्ति प्रज्ञा का एक विशिष्ट अंश अपाला पर छोड़ गए। अपाला ऋषित्व को पा गयी। यह संवाद हवाओं की तेजी में घुलकर सारे आश्रम और राष्ट्रवासियों के अन्तःकरण को स्पर्श कर गया। कृशाश्व ने सब कुछ सुना तो दूसरे दिन ही अपाला को लेने महर्षि अत्रि के आश्रम में पहुँचे। बड़ी अनुनय विनय की। पर अपाला ने साथ जाने से इनकार कर दिया। शेष जीवन पिता के साथ रहकर उन्होंने धर्म और समाज की सेवा में बिताया। कृशाश्व ने स्वयं भी अपाला से वेद मंत्रों के दिव्य रहस्य व समाधि तत्व का अनुभव प्राप्त किया।