मध्य मार्ग ही वरेण्य

May 1993

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अतिवादी हर दृष्टि से हानिकारक माना गया है। जो इसे अपनाते हैं, वे हर प्रकार से विपत्ति में पड़ते देखे जाते और हानि उठाते हैं। विवेकशील इस सचाई को समझते हैं, अस्तु वे न सिर्फ स्वयं इससे दूर रहते अपितु अन्यों को भी इससे दूर रहने की प्रेरणा देते हैं।

विद्वान विचारक बर्ट्रेंड रसेल ने अपनी पुस्तक ‘सामाजिक पुनर्निर्माण के सिद्धान्त’ में लिखी है कि नीति और अनीति में विभेद कर लेना व्यक्ति की बहुत बड़ी उपलब्धि यह है कि वह उसे अपने व्यवहार में किस सीमा तक उतार पाता है। वह अपने व्यवहारिक जीवन में जो जिस हद तक उसे अपना लेता है, उसे उतना ही विवेकवान बुद्धिमान समझा जाता है, पर मनुष्य की सबसे बड़ी विडम्बना यह है कि वह नीति-अनीति, अच्छाई-बुराई सद्गुण-दुर्गुण में संतुलन-समीकरण नहीं बिठा पाता और एक ऐसे सिरे की ओर निरंतर बढ़ता चलता है, जो स्वयं उसके लिए पतन का कारण बनता है। वे कहते हैं कि यदि उत्कृष्टतावादी के लिए दूसरे सिरे की ओर चल पाना संभव नहीं तो मध्यम-मार्ग से भी काम चलाया जा सकता है जिससे साँप भी मर जाय और लाठी भी न टूटे।

रसेल जैसे आधुनिक मनीषी एवं प्राचीन ऋषियों ने भले ही उच्च आदर्शवादी की बात ही हो और उसे जीवन में धारण करने पर बल दिया हो पर मनुष्य के इन दिनों कि मानसिक-स्थिति की, उसकी दुर्बल-संरचना को देखते हुए यही कहा जा सकता है कि अच्छाई और बुराई के दो सिरों में से उत्कृष्टतावादी सिरे को छू पाना तो शायद उसके कमजोर मानस के कारण संभव न हो सके पर इतने से ही समाधान समाप्त नहीं हो जाता। आशा कि एक किरण फिर भी शेष रहती है। काम मध्यम-मार्ग से भी चल सकता है और सच्चाई तो यह है कि इन दिनों इसी सर्वोपरि आवश्यकता है, पर दृष्टि पसार कर चारों ओर देखने पर भी मनुष्य आज पतनोन्मुख सिरे पर ही दिखाई पड़ता है न उसके मध्य बिन्दु पर न ऊपरी सिरे के ऊर्ध्व बिन्दु पर-यही वर्तमान का सबसे बड़ा दुर्भाग्य है।

आय की अपेक्षा व्यय जब इस सीमा तक पहुँच जाय, कि उसकी कोई महत्ता ही न रहे, तब वह अपव्यय कहलाता है। इस प्रकार दूसरों के श्रम-बिन्दुओं को हड़प कर उससे अनीतिपूर्वक उपार्जन करना और संचय-संग्रह का हिमालय खड़ा कर लेना भी एक प्रकार का अतिवाद है। उल्लेखनीय है कि जिस अतिवाद का आश्रय लेते लोग इन दिन दिखाई पड़ रहे हैं, उसमें ऊपरी दृष्टि से लाभ जैसा दिखने पर भी अपने और दूसरों के लिए हानि-ही-हानि है उदाहरण के लिए संचय-वृत्ति को लिया जा सकता है। इसमें प्रचुर धन इकट्ठा कर लेने से ऐसा लगने लगा है कि अब सारे अभाव दूर हो जायेंगे, पर वास्तविकता यह है कि जिस अनुपात में संचय वृद्धि होती जाती है, उसी अनुपात में अभाव भी बढ़ने लगते हैं, कमियाँ और महत्वाकांक्षाएं अवाँछनीय उद्भिजों की तरह उपजने और पनपने लगती हैं। इसी के साथ संग्रह था एक अन्तहीन सिलसिला चल पड़ता है, जो अपने साथ अनेक दुर्व्यसनों-दुर्गुणों-कुचेष्टाओं एवं कुइच्छाओं को जन्म देता चलता है। अर्थशास्त्र का एक महत्वपूर्ण सिद्धान्त है-’इच्छाएँ अनन्त होती है’।इस सिद्धान्त के अनुसार एक इच्छा पूरी हुई ही नहीं दूसरी अपनी परिपूर्ति के लिए तत्काल आ धमकती है और व्यक्ति यदि महत्वाकांक्षाओं पर अंकुश न लगा सका, तो यहाँ से एक ऐसी श्रृंखला की शुरुआत होती है, जिसकी समाप्ति मृत्योपरांत ही संभव हो पाती है। इस तरह जिन्दगी पिलती-पिसती पशुवत् हो जाती है, न वह खुद चैन ले पाती है, न दूसरों को चैन होने देती है। इसके विपरीत यदि संतोष से काम लिया गया होता जितना उपलब्ध है उतने से ही काम लिया गया होता, जितना उपलब्ध है उतने से ही काम चलाने का प्रयत्न किया गया होता, तो जीवन नीरस, उबाऊ न रहकर इतना सरस और सुखद होता, जिसे स्वर्गीय कहा जा सके, पर आज जीवन की जो परिभाषा दीख पड़ती है, उससे नहीं प्रतीत होता है कि शायद नियति का यही निर्धारण ही जिन्दगी है, जिसमें ऊबड़-खाबड़ वीथियों और कंटकाकीर्ण मार्गों का ही बाहुल्य हो। मनोविज्ञानी इस दुरवस्था का इस परिभाषा का एक ही कारण बताते हैं-वर्तमान का मानसिक दिवालियापन।

यहाँ जो कुछ भी है, सब अतिवाद की पराकाष्ठा है। जिसके पास संपदा है तो अति सीमा में और निर्धनता है, तो वह भी हद से ज्यादा। नास्तिकों की भी यहाँ कमी नहीं है किन्तु आस्तिकों और धार्मिकों की भी भरमार है। भावुक भरे पड़े हैं, किन्तु संगदिलों का भी अभाव नहीं है। यथार्थता यह है कि अतिवाद संकटों, उत्पातों की जड़ है। इससे विषमता बढ़ती है और आय दिन संकट एवं विग्रह खड़े होते रहते हैं। छीना-झपटी, लूट-खसोट, आतंक का कारण अति दर्जे की विषमता ही है। अति संपन्नता बढ़ती ही तब है, जब अन्याय का मार्ग अपनाया जाय। इससे शोषितों की ईर्ष्या स्वाभाविक ही है। अतः वे बदले की भावना से आक्रमण की नीति अपनाते हैं। दैनिक जीवन में ईर्ष्या कलह, द्वेष का कारण यही विषमताजन्य अतिवाद है। अतिवाद एक प्रकार का पागलपन है, जो व्यक्ति को स्वार्थ बनाता और आत्मीयता का क्षेत्र सीमित करता है। समर्थता, योग्यता और शौर्य आदि अच्छे गुण माने गये हैं किन्तु जब यही अति का अतिक्रमण की दुस्साहस दिखाते हैं और न तुच्छ और हेय कारणों के लिए जीवन खतरे में डालते है, अथवा दूसरों को अकारण प्रताड़ित करते हैं। इसके विपरीत सत्साहस इसका दूसरा और अन्तिम सिरा है पर उसे अपनाने में कोई हर्ज नहीं। क्योंकि व्यक्ति में जब उत्साह उभरता है तो वह उसे गुणवान,शीलवान बना देता है और उससे ऐसा कुछ करा लेता है, जो स्वयं उसको अपरिमित श्रेय-सम्मान देता और समाज को असाधारण लाभ पहुँचाता है, किन्तु यह भी एक यथार्थ है कि इस प्रकार के सत्साहस कभी-कभी किन्हीं विरलों में ही पाये जाते हैं। साधारण समय और सामान्यजनों में तो इसका बिल्कुल अभाव ही देखा जाता है। ऐसे लोगों के लिए एक मात्र विकल्प मध्यवर्ती रास्ता अपनाना ही शेष रहता है। अतः इस स्तर के लोगों के लिए इतने भर से भी काम चल सकता है।

शेक्सपियर की एक कविता है-’आँन दि जेनिथ’। इसमें वे लिखते हैं ‘मैं एक ऐसे सिरे पर खड़ा हूँ, जहाँ से दूसरे को देख पाना और छू पाना दोनों ही मेरे लिए असंभव हैं। मैं एक चरम-बिन्दु पर स्थित हूँ एक ऐसे चरम-बिन्दु पर जो मेरे लिए अत्यन्त असह्य और कष्टकारक साबित हो रहा है। इससे मैं उबरना चाहता हूँ, पर यह सब तब तक संभव नहीं, जब तक मैं संतुलनकारक मध्य-बिन्दु पर अपनी स्थिति न बना लूँ, जहाँ से दोनों सिरों के संतुलित प्रभाव ही मुझे प्रभावित कर सकें और मैं साम्य की अवस्था में बना रह सकूँ।’

इस प्रकार प्रकारांतर से उन्होंने भी इसे स्वीकार किया है कि सामान्यजनों के लिए बीच वाला रास्ता हो श्रेयस्कर है। सामान्य पासन-क्षमता वाले यदि असामान्य परिमाण में भोजन भी अहितकर ही साबित होगा। इसके विपरीत यदि तीक्ष्ण जठराग्नि वाले व्यक्ति अति न्यून मात्रा में भोजन करें, तो वह जल्द ही अपना स्वास्थ गँवा बैठेंगे। यह दोनों ही स्थितियाँ अतिवादी हैं। इनसे बचना चाहिए। भोजन पौष्टिक और स्वादिष्ट हो यह अच्छी बात है, पर जायके के नाम पर तल-भुन कर कोयला बना देना एक प्रकार का अतिवाद है, जो स्वास्थ्य के लिए अनुपयुक्त ही नहीं, अहितकर भी है। इसी प्रकार मित्रता और मिलनसारिता अच्छी आदत है पर अति के सीमा से परे हो जाने इसको भी शत्रुता के बदलते देर नहीं लगती। देखा गया है कि भावुकतावश लोग अनेकों से मित्रता गाँठ लेते हैं पर सूझबूझ और दूरदर्शिता के अभाव के कारण आये दिन ठगते–ठगाते देखे जाते हैं।

इसीलिए मनोवैज्ञानिक और मनीषी दोनों इस संदर्भ में ऐसी रीति-नीति अपनाने की सलाह देते हैं जो अति की सीमा के अन्दर हो जिससे मानवीगरिमा बढ़ती और सफलता मिलती हो। प्रसन्नता और प्रगति इसी से प्राप्त होती है। जो इस सामान्य नियम या अतिक्रमण करते, वे निरंतर अवगति के गर्त में गिरते चलते है किन्तु जो समझदारी और सूझ-बूझ का परिचय देकर मध्यवर्ती मार्ग का चयन करते हैं वे प्रायः हर क्षेत्र में सफल होते, सम्मान प्राप्त करते और विवेकशील कहलाते हैं। अतिवाद और अतिक्रमण से बच कर मध्यमार्गी का अनुसरण करना ही श्रेष्ठ है।


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