यह कैसी रीति-नीति

May 1993

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दूसरों को प्यार करना उचित है पर उस प्रेम की परिधि से अपने को अलग क्यों रखा जाय सेवा सहायता दूसरों की भी करनी चाहिए, पर उससे वंचित अपने को भी नहीं रखना चाहिए।

वस्तुतः हम औरों से प्यार और अपने शत्रुता रखते। वस्त्रों को हम जरूर साफ-सुथरा रखते हैं पर शरीर को रोगों से ग्रसित और टूटा-फूटा ही बनाये रखने के आदी हैं। वस्त्र भी अपने हैं उनकी साज-संभाल रखनी चाहिए, पर कम से कम उतना ही ध्यान शरीर और मन का भी रखना चाहिए। यही बात अन्तःकरण के संबंध में भी लागू होती है।अन्तःकरण की अनगढ़ता और मलीनता को दूर करना तो और भी आवश्यक है। कपड़े संबंधी सतर्कता और सुरुचि को यदि काया से आगे बढ़ कर मन और अन्तस् तक विकसित किया गया होता, तो जरूर उसकी उन्नति- प्रगति की विधि-व्यवस्था पर ध्यान जाता और वह ऐसी दबी-कुचली एवं मैली-कुचली न होती जैसी इन दिनों हो रही है।

बेटे-बेटी को सुखी-समुन्नत और सम्मानित रखने के लिए आवश्यक साधन जुटाना ठीक है। जिन्हें हम प्यार करें उनकी सेवा–सहायता भी करनी चाहिए और उनकी अच्छी स्थिति से संतुष्ट होना चाहिए इस दृष्टि से पुत्र और पत्नी के लिए किये गये प्रयत्नों को उचित ही ठहराया जाएगा पर मनरूपी पुत्री और बुद्धिरूपी पत्नी दयनीय स्थिति में रहें, दुख पाएँ असम्मानित-अभावग्रस्त और असंतुष्ट रहें, उनकी उनकी ओर ध्यान न दिया जाय, यह उपेक्षा वृत्ति कहाँ तक ठीक है?

पुत्र को आवारागर्दी से रोकते हैं, कुसंग से बचाते हैं, कुसंग से बचाते है, सुसंस्कृत बनाने का प्रयत्न करते हैं। पर क्या वे ही प्रयत्न हमने मन के लिए किए? पुत्र इसी जनम का साथी है-सो भी उसकी वफादारी संदिग्ध है? पर मन तो जन्म-जन्मांतरों तक अभिन्न साथी मित्र और पुत्र है। उसकी आवारागर्दी, कुसंगति क्यों सहन की जाती है? उसे रोकने का प्रयत्न क्यों सहन कि जाती है? उसे रोकने का प्रयत्न क्यों नहीं किया जाता?

बुद्धि से बढ़कर अर्धांगिनी और कौन हो सकती है? शरीर न रहने पर पत्नी बिछुड़ जाती है निरन्तर साथ रहने वाली अपनी समग्र चेष्टा एक ही केन्द्र पर नियोजित करने वाली पत्नी किसकी है? स्त्री को अपने बच्चे, शरीर, परिवार भविष्य को भी देखना पड़ता है। इन सबके साथ ही वह पति की सुविधा सँजोती है। पर बुद्धिरूपी पत्नी की तो समस्त चेष्टाएं अपने लिए ही समर्पित हैं। वह हर जन्म में साथ सती होती है और सच्चे अर्थों में अर्धांगिनी होकर रहती है। उसे सुयोग्य सुसंस्कृत, सन्मार्गगामिनी, सशक्त और साधन संपन्न बनाने के लिए जिस स्वाध्याय और सत्संग आदि जुटाने की आवश्यकता थी, विद्या से होता है, उसके लिए हमारा प्रयास कितना है? हाड़-माँस की पत्नी के लिए बहुमूल्य उपहार मिल यह ठीक है, पर यह बुद्धिरूपी अर्धांगिनी को दीन-दुखी, भूखी-प्यासी निर्वस्त्र-रुग्ण चिंतित रहने और जहाँ-तहाँ भटकने दिया जाय, यह भी तो शोभनीय नहीं। प्यार से उसे बेचारी को वंचित क्यों रखा जाय?

अहंकार कि तृप्ति के लिए सारा सरंजाम खड़ा किया गया। बड़ा ठाट-बाट जुटाया गया, पर आत्मा एक कोने में पड़ी खिसकती रही। उसकी इच्छा-आवश्यकता को कभी सुना-पूछा तक नहीं गया। गधे को शाही सज्जा के साथ सजाया गया, पर गाय प्यासी मर गयी। यह पक्षपात क्यों? एक एकाँगी असंतुलन क्यों?

लोक में यश-वैभव पाने के लिए भारी दौड़-धूप की जाती रही, परलोक की बात कभी सोची भी नहीं गई। सराय पर दौलत न्यौछावर कर दी पर घर की टूटी झोपड़ी का छप्पर तक न बना। वर्तमान ही सामने रहा, भविष्य तो आँखों से ओझल ही बना रहा। दिखावटी प्यार बिखेरें और भीतर निष्ठुरता बनी रहे तो बात कुछ बनने की नहीं। बाहर वालों की शिक्षा और अपनी उपेक्षा यह रीति-नीति कहाँ तक ठीक है? सोचें-विचारें और निर्णय करें।


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