कर्म योग स्तर का हो इसके लिए दो बातें आवश्यक हैं-प्रथम तो कर्म के प्रति प्रेम होना चाहिए द्वितीय उस व्यक्ति के प्रति प्रेम होना चाहिए, जिसके लिए कार्य किया जा रहा हो। यदि कर्म के प्रति प्रेम हो, पर उसके निमित्त कारण व्यक्ति के प्रति श्रद्धा न हो तो किया गया कार्य स्तरीय न होगा और वैसा प्रतिफल उत्पन्न न कर सकेगा, जिसकी आशा-अपेक्षा की गई है। इसी प्रकार यदि व्यक्ति के प्रति श्रद्धा हो किन्तु कार्य के प्रति निष्ठा न हो तो भी कायार्रु संतोषप्रद न हो सकेगा। इसके लिए निष्ठा और श्रद्धा दोनों तत्वों का साथ-साथ होना नितान्त आवश्यक है।
अस्पताल में नर्स और मरीज दोनों होते हैं। नर्स का कार्य बीमारों की सेवा-सुश्रूषा करना होता है। इसमें उसे रस भी आता है पर जिस रोगी की परिचर्या में वह लगी हो उसके प्रति श्रद्धा न हो घृणा उपजती हो तो क्या वह उसकी सेवा में लगान से कर सकेगी जैसी अपने स्वजन संबंधियों परिवार-कुटुम्बियों की करती है? कदाचित नहीं। चूँकि रोगी की देखभाल करना उसकी स्वयं की जिम्मेदारी के अंतर्गत है, अतः यहाँ वह मात्र खानापूर्ति के लिए कार्य करेगी और जैसे-तैसी कर उसे किसी प्रकार निबटाना चाहेगी।
इसके विपरीत किसी माँ का पुत्र जब बीमार पड़ता है तो उसकी सेवा में वह रात-दिन एक कर देती है। चूँकि परिवार की परिचर्या करने में माँ को मजा आता है और पुत्र उसका सबसे प्रिय होता है, अतः इस दौरान वह दारुण-से-दारुण दुःख और बड़े-से-बड़ा कष्ट हँसते-हँसते सह लेती है। यदि इस समय उस माँ से कोई यह जाकर कहे कि आपने बहुत कष्ट उठाये। अब आप आराम कीजिए। बच्चे की देखभाल मैं करता हूँ, शायद ही माँ इसके लिए तैयार हो, क्योंकि बेटा हर माँ का सबसे प्रिय पात्र होता है, अरस्तू इस स्थिति में वह किसी भी हालात में बेटे से विलग होना पसंद न करेगी, भले ही उसे इस मध्य कितनी ही रातें जागनी और कितना ही कष्ट क्यों न उठाना पड़े, वह सरलतापूर्वक सब कुछ झेली लेती हैं।
उपरोक्त उदाहरणों में दोनों कार्य एक ही प्रकार के हैं पर एक में कर्ता के लिए वह भारभूत बन जाता है, जबकि दूसरे में संतोषदायक सिद्ध होता है।एक कार्य की दो प्रकार की परिणतियाँ हैं।इस अन्तर के लिए एक ही कारक जिम्मेदार हैं-वह है सेविका का बीमार के प्रति प्रेम का भाव। निश्चय ही यह’तत्व ‘ अच्छे परिणाम के लिए आवश्यक है।
ऐसे ही यदि ‘कार्य के प्रति समर्पण’ पर विचार करें, तो ज्ञात होगा कि कार्य में आनन्दानुभूति के लिए यह तत्व भी उतना ही आवश्यक है जितना श्रद्धा-तत्व, और क्रिया का परिणाम उत्कृष्ट स्तर का तभी होता है जब उसमें मन रम जाये। मन नहीं रमने से कार्य बोझ-सा और नीरस प्रतीत होता है। जिस पिता को पाठ पढ़ाना-समझना अरुचिकर लगता हो उससे यदि उसका पुत्र कोई प्रश्न पूछ बैठे तो वह उसका उत्तर लगन और मनोयोगपूर्वक न दे सकेगा व जैसे-तैसे समझा कर उससे पिंड छुड़ाने कि कोशिश करेगा। यद्यपि पिता का यपुत्र से अगाध प्रेम है, पर पढ़ाने ह संबंधी कार्य उसकी अभिरुचि का नहीं, अतः वह उसे भार-सा महसूस होगा। इसके विपरीत प्राचीन गुरुकुलों के आचार्यों का अध्यापन और विद्यार्थी के प्रति समान रूप में प्रेम होता था, अस्तु वे इस कार्य में असीम आनन्द की अनुभूति करते थे और इसमें ऐसे खो जो जाते थे कि समान क्या हो रहा है, इसकी भी सुध नहीं रहती थी। यह लगन और प्रेम का संयुक्त परिणाम है। इससे दो लाभ मिलते थे। एक ओर जहाँ आचार्य प्रत्यक्ष स्वर्ग के आनन्द की प्रतीति करते थे, वहीं दूसरी ओर तत्परतापूर्वक दी गई विद्या के कारण शिष्यगण हर प्रकार से योग्य होकर निकलते थे।
इस प्रकार यह स्पष्ट है कि कर्म को रसमय बनाने उसे कर्मयोग बनाने के लिए व्यक्ति में निष्ठा और श्रद्धा के दोनों तत्वों विद्यमान होने चाहिए। यहाँ प्रश्न यही नहीं है कि कर्म छोटा है या बड़ा। महत्व इस बात का है कि उसे करते हुए कौन कितना, किस अनुपात में स्वयं को भुला पाता है? इसी में उसकी स्वर्ग मुक्ति का आनन्द है। रैदास को जूते सिलने में ऐसी मस्ती आती थी कि वह उनकी भक्ति बन गई। इसी भक्ति से प्रसन्न हो कर भगवान प्रकट हुए और रैदास निहाल हो गये। कर्म में भक्ति ऐसी ही होनी चाहिए। कर्त्ता का कल्याण इसी में निहित है। गोरा कुम्हार का प्रिय काम मटके बनाना था। इस कार्य में उसे बड़ा आनन्द आता था।मटके बना कर वह जिन लोगों को बेचता, दे उसे देवतुल्य लगते थे। उनके प्रति उसके मन में अगाध श्रद्धा थी। जनता में मानों उसे साक्षात ईश्वर की झाँकी होती। उन्हें धोखा देने का उसके मन में तनिक भी विचार नहीं आता था। घड़े बनाने में उसकी दृष्टि यह होती थी कि जो घड़े बनें, वे इतने मजबूत हों कि कई पीढ़ियाँ उसका प्रयोग करें। उसे इसका जरा भी पश्चाताप नहीं होता कि मजबूत घड़े बनने और लंबे काल तक सुरक्षित रहने से उसके धंधे पर इसका बुरा असर पड़ता वरन् उसे इससे असीम संतोष मिलता था। इसलिए जब वह घड़े की मिट्ठी रौंदता, तो उसमें ऐसे खो जाता था, जैसे विज्ञानवेत्ता अपने प्रयोग-परीक्षणों, में, गणितज्ञ अपने सवालों में और जिसके लिए यह किया जा रहा है, उसके प्रति मन में श्रद्धा हो, तो हर कोई हर किसी कार्य में स्वर्ग की प्रत्यक्ष अनुभूति प्राप्त कर सकता है। कर्म, अकर्म तब बन जाता है, जब उसमें कर्ता का अहंकार घुस पड़ता है। ऐसे में ने तो उसे किसी सुख कि अनुभूति होती है और न क्रिया का काई कहने लायक परिणाम ही सामने आ पाता है। उलटे व्यक्ति और कार्य के मूल्य और स्तर दोनों गिर जाते हैं। अब यदि किसी ऐसे व्यक्ति की सेवा का मूल्यांकन किया जाय जिसे सेवा-कार्य करने का अवसर तो बहुत प्राप्त होता है, पर उतना ही अहंकार-प्रदर्शन भी करता है तो ज्ञात होगा कि उसकी सेवा अत्यन्त तुच्छ है। चूँकि सेवा कार्य और अहंकार दोनों की संख्या से भाग देने से भागफल ‘एक’ आयेगा। अस्तु उसकी कीमत एक के बराबर हुई। 1 कि रुपया-पैसा कोई भी ईकाई मानी जा सकती है। इस प्रकार उस व्यक्ति की सेवा का मूल्य 1 रुपया अथवा पैसा हुआ। इसी तरह माँ की सेवा का अनुमान करें, तो वह अनन्त मालूम होगी। अपने प्रिय पुत्र के लिए वह सब कुछ सहने को तैयार रहती है। कष्ट, कठिनाई, विपत्तियां कितनी ही झेल लेती है, फिर भी उसके रुझान में कमी नहीं आती और अहंकार तनिक भी नहीं। अभिमान हो भी कैसे? वह तो इसे अपने धर्म मानती हैं। इसका आकलन करने पर उसकी सेवा में पूर्ण निरहंकारिता (अर्थात् शून्य) का भाग देने पर भागफल अनन्त (1/0=0ष्)आता है, अस्तु उसकी सेवा का मूल्य रुपयों-पैसों में किसी भी प्रकार नहीं आँका जा सकता। वह अनन्त है। इस प्रकार अहंकार रहित भक्तिमय कर्म की ही सार्थकता है। हम जो भी कार्य करें, चाहे वह पड़ोसी का हो, समाज अथवा राष्ट्र का हो, कृषि संबंधी विद्यालय या ऑफिस संबंधी हो, छोटा या बड़ा हो उसमें समर्पण भाव होना चाहिए, पूर्ण मनोयोग जुड़ना चाहिए, तभी वह कार्य उत्तम, परिणाम उत्कृष्ट और कर्त्ता श्रेष्ठ कहलाता है।
पुँडलीक माता-पिता की सेवा में तल्लीन था। उसकी सेवा से प्रसन्न होकर भगवान बिट्ठल प्रकट हुए, पर उन्हें देख उसने सेवा-कार्या बन्द नहीं कर दिया वरन् उनकी ओर एक इट बढ़ा कर उन्हें बैठने के लिए कह दिया और स्वयं सेवा में जुटा रहा।
एक साधु थे। उनकी झोंपड़ी में एक बिल्ली बस गई। साधु जब ध्यान भजन को बैठते तो बिल्ली उनके इर्द गिर्द घूमती और अपनी आदत के अनुसार उन्हें स चाटती।
साधु ने एक तरकीब निकाली। कुछ दूरी पर एक खूँटी गाढ़ कर बिल्ली को रस्सी से बाँध देते और निश्चिंतता पूर्वक भजन करते।
उनके पास अनेक भक्तजन आया करते। उन लोगों ने समझा कि बिल्ली पास बाँध रखने से साधना में सिद्धि मिलना कोई रहस्य है। उन लोगों ने भी बिल्ली पाली और उसी प्रकार बाँधना आरंभ कर दिया। कुछ दिन पश्चात् साधु तो न रहे पर उनके अनुयायियों ने बिल्ली की समीपता में साधना करने की एक परम्परा ही बना ली।
माता-पिता के आगे प्रत्यक्ष भगवान को भी इंतजार करना पड़ा क्योंकि पुण्डलीक को उन्हीं में साक्षात ईश्वर के दर्शन हो रहे थे और उनकी सेवा उसे अद्भुत सुख प्रदान कर रही थी। इसलिए समीप खड़े भगवान को भी प्रतीक्षा करने के लिए कह दिया। कर्म में यही भाव होना चाहिए। एक अभंग में संत तुकाराम ने भी कहा है कि चक्की, चरखा, कृषि, कारखाना, ऑफिस, प्रयोगशाला सब हमारा ईश्वर है। यह कार्य कर प्रकारांतर से हम ईश्वर की ही सेवा करते हैं। जब तक व्यक्ति के अन्दर यह भाव विकसित नहीं होता, तब कार्य कर प्रकारांतर से हम ईश्वर की ही सेवा करते हैं। जब तक व्यक्ति के अन्दर यह भाव विकसित नहीं होता, तब तक कार्य भारभूत लगते हैं। जब उसे ऐसा प्रतीत होने लगता है कि इनके द्वारा वह जनता-जनार्दन की, विराट् ब्रह्म की सेवा कर रहा है,तो कर्म का बोझ स्वतः समाप्त हो, वह भक्तिमय बन जाता है। यही निरहंकार की स्थिति है। अहंकार के मिटते ही भक्ति विकसित होती है। लकड़ी का लट्ठ बहुत भारी होता है। किसी के कन्धे पर रख किया जाय, तो वह बोझ से दब कर मर सकता है, किन्तु जब उसे जला दिया जाता है, तो वह भारी नहीं रह जाता। फिर साधु उसकी राख शरीर में मलते और उसके भार को खुशी-खुशी ढोते फिरते हैं। बोझ और भक्ति में यही अन्तर है। कर्म के साथ जब अहंकार जुड़ता है, तो वह वही भक्ति कहलाता है। अतः अहंकार रहित कर्म ही भक्ति का आनन्द दे सकता है। इसी ओर हमारी प्रवृत्ति होनी चाहिए।
कार्य उबाऊ और नीरस तब बन जाता है, जब हमारी संकीर्ण भावनाएँ उसके साथ जुड़ जाती है। हम कार्यों में विभेद करने लगते हैं। उन्हें अपने पराये के वर्गों में बाँटते हैं। कोई भी कार्य सम्पन्न करने से पूर्व हम यह देखते हैं कि प्रस्तुत कार्य अपना है या दूसरे का। पराया नाम सुनते ही मन-मस्तिष्क ढीले पड़ जाते है, उत्साह समाप्त हो जाता है। फिर यदि कार्य को पूरा करना जरूरी ही हुआ, तो उसी स्थिति में जैसे-तैसे करके बेमन से काम समाप्त कर दिया जाता है। दूसरों के कार्य करने में व्यक्ति की एक अन्य दृष्टि यह होती है कि इससे उसका अपना स्वार्थ कितना सधेगा उसे क्या लाभ मिलेगा? यदि कुछ इस प्रकार की गुंजाइश हुई, तो वह उसे लगन से करता है, अन्यथा औंधे-सीधे ढंग से पूरा करके टाल देता है।
यह स्वार्थपरायणता हुई। कार्य को भारभूत बनाने में इसकी भी महती भूमिका होती है। इससे उबरने के लिए आत्म विस्तार करना पड़ता है। दूसरों में स्वयं की और स्वयं में दूसरों की अनुभूति करनी पड़ती है। इस मनःस्थिति में जो कार्य बन पड़ता, वह अपना निजी प्रतीत होता है। फिर उसमें लाभ-हानि की दृष्टि नहीं रहती। तब कार्य यह मान करना पड़ता है कि भले ही इसमें अपना लाभ न हो पर समय, समाज और राष्ट्र के हैं एवं राष्ट्र व समाज हमारा है। उसकी उन्नति-प्रगति हमारी अपनी उन्नति प्रगति है और उसकी अवनति हमारी अवनति है। इस भावना से संपादित कार्य में कर्त्ता का उत्साह क्रिया के साथ सदा जुड़ा रहने से उसका प्रतिफल भी उच्चकोटि का सामने आता है। पिछले दिनों यदि ऐसा नहीं हुआ होता, स्वतंत्रता सेनानी अपना स्वार्थ त्याग आगे नहीं बढ़े होते, तो आज हम परतंत्र ही बने रहते। तात्पर्य यह है कि क्रिया के प्रति कर्त्ता में परायेपन का भाव उदित होते ही कार्य कि सरसता समाप्त हो जाती है। ऐसे में किया गया कार्य न तो वह परिणाम उत्पन्न कर पाता है, जिसकी आशा-अपेक्षा की गई थी और न योग की अनुभूति करा पाता है।
कर्म की गणना योग में की गई है। इसकी तीन प्रमुख धाराओं में एक कर्म भी है। योग का अर्थ होता है-समर्पण, विलय, विसर्जन। कर्म, कर्मयोग तभी बन पाता है, जब उसमें कर्त्ता का घनिष्ठ तादात्म्य जुड़ा हो। घनिष्ठता तब बन पड़ती है, जब कर्त्ता तल्लीनतापूर्वक कार्य में संलग्न हो, अर्थात् कार्य के प्रति उसकी गहरी अभिरुचि हो। तभी उसे कर्म में कुशलता भी प्राप्त हो सकती है और यह स्थिति प्राप्त करना ही योग है। इसी को गीता में ‘योगः कर्मसु कौशलम्’ कहकर अभिहित किया गया है। यही वह स्थिति है, जिसमें योग का आनन्द और क्रिया का सत्परिणाम दोनों साथ-साथ प्राप्त होते हैं। सभी को इस ‘कर्मयोग‘ की साधना करनी चाहिए।