सृष्टि संरचना की जड़ में है चेतना का निरंतर विकास

May 1993

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वैज्ञानिक अवधारणा के अनुसार चेतना अथवा आत्मा स्थूल शरीर की भाँति कोई पृथक अस्तित्व नहीं वरन् यह भी पंचभौतिक शरीर की तरह पदार्थों का सम्मिश्रण मात्र है। इसके उत्तर में यही कहा जा सकता है कि यदि प्रस्तुत कथन सत्य है, तो पदार्थों के मिश्रण की प्रक्रिया का ज्ञान कराने वाले किसी दूसरे मन की भी आवश्यकता निश्चित ही पड़ेगी। इस संदर्भ में मूर्धन्य मनोवैज्ञानिक जॉन बर्लिट्ज ने ठीक ही कहा है-”मस्तिष्क का गहन विश्लेषण करने के उपराँत भी मनुष्य को जब आत्मा अथवा मन का अस्तित्व किसी प्रकार समझ में नहीं आता और थक-हार कर जब उसे मस्तिष्क प्रक्रिया का एक अंग मान लेता है, तो वह यह भूल जाता है कि इस प्रकार की स्वीकारोक्ति ही आत्मा के अस्तित्व का सबसे बड़ा प्रमाण है। “ विज्ञान के अनुसार गति ही गति उत्पन्न करती है। यदि इस कथन को सत्य मान लिया जाय तो यह कैसे स्वीकारा जा सकता है कि जड़ मस्तिष्कीय संरचना चेतना या बुद्धि उत्पन्न करती हैं, क्योंकि बुद्धि अथवा चेतना कोई गति नहीं वरन् गति का अनुमान करने वाली शक्ति है। इस प्रकार भौतिकीविदों का उक्त प्रतिपादन स्वतः गलत प्रमाणित हो जाता है।

विज्ञान के धुरंधरों की मान्यता है कि स्मृति का आधार मस्तिष्क एवं शरीर की विशिष्ट संरचना है। इन दिनों प्रायः इसी आधार पर किसी को असाधारण बुद्धि सम्पन्न एवं किसी को मूर्ख घोषित कर दिया जाता है। आइंस्टीन विलक्षण बुद्धि वाला था। वैज्ञानिकों की उपरोक्त कथन की पुष्टि उनकी मस्तिष्कीय-संरचना द्वारा हो भी गई। जब मृत्योपराँत उनके ब्रेन का अध्ययन किया गया, तो प्रत्येक न्यूरोन के पीछे ग्लायल सेलों की संख्या उनमें सामान्य से अधिक पायी गयी। बस, फिर क्या था। शरीर शास्त्री इस दिशा में स्थापित अपने सिद्धाँत को निरपेक्ष सत्य मान बैठे। यही उनकी सबसे बड़ी भूल थी। प्रथम तो सपोरटिंग (ग्लायल ) सेलों के बढ़ जाने से बुद्धि बढ़ जाती है-यह उन्होंने किस आधार पर सुनिश्चित किया, समझ से परे की बात है। यदि केवल उक्त असामान्यता ही उनके निर्णय-निर्धारण का आधार रहा, तो निश्चय ही इसे निराधार कहा और अमान्य ठहराया जा सकता है। आये दिन कितने ही बच्चे प्रसव पूर्व असावधानियों के कारण विकृत हो जाते हैं। उनके यदा-कदा तीन-तीन टाँगे पायी जाती हैं। कइयों में उँगलियाँ असामान्य संख्या में होती है। परस्पर जुड़े बच्चे भी देखने को मिल जाते हैं, किंतु इनसे उनकी बौद्धिक क्षमता प्रभावित हुई हो ऐसा देखने में नहीं आया। वाह्य अंगों की तरह अंदर के अंगों में भी ढेरों विकृतियाँ पायी जाती हैं। कई मामलों में यह बात भी देखने को मिल जाते हैं, किंतु इनसे उनकी बौद्धिक क्षमता प्रभावित हुई तो ऐसा देखने में नहीं आया। वाह्य अंगों की तरह अंदर के अंगों में भी ढेरों विकृतियाँ पायी जाती है। कई मामलों में यह बात भी देखने को मिलती है कि व्यक्ति में असाधारण बुद्धि कौशल के होते हुए भी ग्लायल सेलों की संख्या उनमें सामान्य लोगों की जितनी थी, फिर भी वे बढ़-चढ़ कर बौद्धिक-क्षमता का परिचय देते थे। यही वैज्ञानिकों के बुद्धि संबंधी सिद्धाँत का खण्डन हो जाता है और यह स्पष्ट होता है कि इसका आधार संरचना न होकर कोई और है। शरीर शास्त्री जानते हैं कि प्रत्येक साढ़े सात वर्ष में शरीर की समस्त आणविक संरचना परिवर्तित हो जाती है। बचपन का शरीर युवावस्था में, यौवन के कोषाणु वार्धक्य में नहीं, रह जाते, फिर भी बचपन तक की स्मृतियाँ घटनाएँ ज्यों की त्यों बनी रहती हैं। यह भी उसी मान्यता को पुष्ट करता है कि बुद्धि का निमित्त कारण मस्तिष्कीय संरचना नहीं हो सकती।

मनोवैज्ञानिकों का कहना है कि किसी भी वस्तु का कारण उसी में सन्निहित होता है, जैसा कि बीज में विशाल वृक्ष की समस्त संभावनाएँ छिपी रहती है, अस्तु यह कहा जा सकता है कि परिणाम कारण की ही अभिव्यंजना मात्र है।

प्रख्यात भौतिक विज्ञानी जे.ए. बटलर अपनी रचना “इन साइड द लिविंग सेल “ में लिखते हैं-”इस समस्त सृष्टि को चेतना एवं पदार्थ की मिश्रित अभिव्यक्ति के रूप में माना जाना चाहिए, यद्यपि इस बात को साक्ष्यों और प्रमाणों द्वारा सिद्ध नहीं किया जा सकता, फिर भी यह अटल सत्य है कि अंत की संभावनाएँ प्रारंभ में, वृक्ष का वैभव बीज में ही समाया होता है। “

अंग्रेज विज्ञानी जे. इर्विन “सेल विद क्वीयर एनर्जी” नामक पुस्तक में कहते हैं “शरीर की समस्त कोशिकाएँ एवं उत्तक अपने-अपने प्रकार के निश्चित कार्य में अहिर्निश जुटे रहते हैं। इस क्रम में उनमें किसी प्रकार का कोई व्यक्तिक्रम नहीं होता, न गलती दिखायी पड़ती है। यदि यहाँ यह स्वीकार कर लिया जाए, कि सही-सटीक काम करना उनका स्वभाव है, तो अगले ही पल एक अन्य प्रश्न उठ खड़ा होगा कि इस स्वभाव का आधार क्या है, जो उसे गलत करने नहीं देता, जबकि स्वयं मनुष्य-अगणित कोशिकाओं का विशाल समुच्चय -औंधे-सीधे कार्य करता रहता है? और इस प्रकार अनेक सवाल एक के बाद एक पैदा होते चले जायेंगे, जिनका समुचित जवाब दे पाना विज्ञान के लिए कठिन ही नहीं, असंभव भी है। अन्ततः हमें अध्यात्म विज्ञान की आत्मा व चेतना वाली मान्यता स्वीकार करनी ही पड़ेगी, तभी इन जटिल प्रश्नों का सहज समाधान संभव हो सकता हैं।” जीवन क्या है? इस संबंध में दो प्रकार की मान्यताएँ हैं। प्रथम यह कि जीवन जन्म से लेकर मृत्यु तक विकास का क्रमिक रूप है, जिसमें वातावरण और वंश परम्परा का प्रभाव होता है। दूसरा पक्ष अध्यात्मवादियों का है। उनके अनुसार जीव में आत्म तत्व का अलग अस्तित्व होता है, जो शिशु के विकास के अति आरंभिक अवस्था में ही प्रविष्ट होता है। मृत्यु के संबंध में प्रथम मत वाले वैज्ञानिकों की मान्यता है कि शरीर बनाने वाले दोनों तत्व अर्थात् अणु और चेतना शक्ति अपना-अपना कार्य बंद कर दें, तो मृत्यु हो जाती है, जबकि दूसरी मान्यता के समर्थक प्रायः सभी धर्म और अध्यात्मिक प्रतिपादन हैं। उनकी मान्यता है कि आत्मा की मृत्यु नहीं होती, वरन् मृत्यु के बाद उसका अस्तित्व अक्षुण्ण बना रहता है। कर्मफल के रूप में दण्ड पुरस्कार इसे ही भोगना पड़ता है।

इस ब्रह्मांड की संरचना के संबंध में प्रथम स्कूल वाले वैज्ञानिकों की मान्यता थी कि इसका निर्माण कुछ रसायनों के पारस्परिक क्रिया-प्रतिक्रिया के आधार पर हुआ। रसायन अणुओं के संयोग से बने हैं। बाद में परमाणुओं की सत्ता सिद्ध हुई। रदरफोर्ड एवं बोर जैसे वैज्ञानिकों ने सिद्ध किया कि परमाणु अनेक विद्युत कणों के संयोग से विनिर्मित एक लघु सौर परिवार के रूप में हैं। तब से लेकर अद्यतन जो प्रयोग हुए है उनसे यही ज्ञात होता है कि सृष्टि संरचना का आधार परमाणु नहीं, वरन् सूक्ष्म तरंगें है। सृष्टि का आदि कारण यही है। अतः अब तरंग को सृष्टि का आधार माना जाता है, किंतु विज्ञान की बढ़ती पकड़ अब तरंगों को भी असंदिग्ध नहीं मानती।

सर जेम्स जीन्स ने आधुनिक वैज्ञानिकों की मान्यताओं पर कुठाराघात करते हुए अपनी पुस्तक “द ग्रेट डिजाइन” में लिखा है “यह पदार्थ क्या है? क्या यह विद्युत विकिरण? तब यह विकिरण क्या है? विकिरण सृष्टि का आधार मूलतत्व है, जिससे यह सृष्टि बनी है। यह विशुद्ध ऊर्जा है, कुछ अन्य नहीं।”

इस प्रकार सृष्टि-रचना संबंधी विज्ञान और अध्यात्म दोनों एक ही बिंदु पर पहुँचते है कि इसकी मूलसत्ता चेतना ही है। पदार्थ उसी की स्थूल अभिव्यक्ति है। उससे भिन्न कुछ अन्य नहीं। इसी चेतना को विज्ञान ऊर्जा कहकर अभिहित करता है, जबकि अध्यात्म उसे सर्वव्यापी सत्ता कहता है। नाम भले ही अलग हों, पर वस्तु एक ही है। इसे इस रूप में भी कहा जा सकता है कि सीमित दायरे में चेतना को पदार्थ और विस्तृत परिधि में यह चेतना ही जीवित पदार्थ या आत्मा है। यह चेतना ही अधिक स्वतंत्र रूप में विशुद्ध चेतना है। इस प्रकार यह चेतना के विकास की पद्धति वैज्ञानिकों के विकासवाद का ही स्वरूप हुआ। इस विकास यात्रा के एक किनारे में पदार्थ तथा दूसरे में चेतना या आत्मा है। चेतना का विकास का क्रम तब तक जारी रहता है, जब तक चेतना (आत्मा)परमात्मा (परम तत्व) से एकाकार न हो जाय। इस संबंध में दार्शनिक मेटरनिक ने ठीक ही कहा है-”ब्रह्मांड के एक अणु का भी रहस्य मेरी समझ में जिस दिन आ जायेगा, उस दिन यह विश्ववाटिका या तो नर्क तुल्य हो जायेगी या फिर मेरी चेतना ही जड़वत् बन जायेगी। “

हम इस सच्चाई को समझें और चेतना के अधिकाधिक विकास की ओर ध्यान दें, तभी यह जीवन सार्थक हो सकता है। हमारा यही लक्ष्य और प्रयोजन है।


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