एक बार एक व्यक्ति ने संत सुकरात से पूछा-”मानवी जीवन में सबसे मूल्यवान वस्तु कौन-सी हैं?” उनका उत्तर था-”प्रेम”। पूछने वाला चौक पड़ा। उत्तर उसकी अपेक्षा के विपरीत था। उसने सोचा था-आत्मा, परमात्मा या इनके संबंधित कोई अन्य दार्शनिक शब्द उनके मुख से निकलेगा, पर संत के उस उत्तर से वह अवाक् रह गया। यों विचार किया जाय तो जवाब साधारण होते हुए भी असाधारण अर्थ सँजोये हुए है।
प्रेम संसार की अकेली ऐसी अपार्थिव चीज है, जिसे हर कोई प्राप्त करना चाहता है, चाहे वह गरीब हो या अमीर, शिक्षित हो या अशिक्षित-सब समान रूप से इसकी अपेक्षा दूसरों से करते हैं। यह अद्वितीय है। मनुष्य का सारा दर्शन, समस्त काव्य, संपूर्ण धर्म एवं समग्र संस्कृति इसी एक शब्द से अनुप्रेरित है। मानवीय जीवन में जो भी श्रेष्ठ और सुँदर है, वह सब स्नेह से ही जन्म और जीवन पाता है। जीवन में संवेदना की कमी सबसे बड़ी दरिद्रता है। जिसके भीतर का यह स्रोत सुख गया, उससे बढ़कर दीन इस संसार में दूसरा कोई नहीं। इससे संसार के किसी भी कोने में किसी बिराने का भी सहयोग हस्तगत किया जा सकता है, जबकि इसका अभाव अपनों को भी अजनबी बना देता है। यह प्रेम का बाह्य प्रतिफल हुआ, किंतु जब इसका उत्स फूटता है, तो अन्तरंग का, अन्तःकरण का वह कोना भी प्रभावित हुए बिना नहीं रहता, जहाँ परमेश्वर का बास बताया जाता है। फिर भी यह स्पष्ट आभास मिलने लगता है कि “मैं” और “वह” दो नहीं एक हैं। दूसरे सभी उसी की पृथक अभिव्यक्तियाँ हैं। बस, इस तादात्म्य की अनुभूति ही तो स्वर्ग-मुक्ति है। एक सूफी कथा है किसी प्रेमी ने अपनी प्रेमिका का द्वार खटखटाया। भीतर से आवाज आयी कौन है? प्रेमी ने जवाब दिया-मैं हूँ, तुम्हारा प्रेमी। प्रत्युत्तर मिला-यहाँ दो का स्थान नहीं है। कुछ दिनों बाद प्रेमी पुनः उस द्वार पर आया। दस्तक दी, किंतु इस बार “कौन है?” के उत्तर में जवाब था-”तू ही है।” इसके साथ ही बंद पट खुल गये।
कथा के पीछे एक गूढ़ दार्शनिक सत्य निहित है, इसमें दो मत नहीं। आत्मयोग का साधक अपने अंतरंग में भावनात्मक और बहिरंग में क्रियात्मक प्रेमतत्व की दिव्य संवेदनाओं का परिचय देता है। इसके रसास्वादन से आत्मा को असीम तृप्ति मिलती है। यही तृप्ति बाह्य जीवन में तुष्टि और शाँति के रूप में प्रकट होती है। जिसने इसकी अनुभूति कर ली, समझा जाना चाहिए कि उसने प्रेम तत्व का पान कर लिया। उसका “स्व” “पर” में समाहित हो गया और जहाँ पर आ गया, वहाँ प्रेम के घनीभूत रूप परमेश्वर को पाने में भी देरी नहीं लगती।
वियोगी हरि ने अपनी पुस्तक “प्रेम योग“ में प्रेम के तीन रूप बताये हैं-निष्काम प्रेम, सकाम प्रेम और ज्ञानयुक्त प्रेम। सकाम प्रेम आसक्ति है। निष्काम प्रेम भक्ति है। ज्ञानयुक्त प्रेम तर्क पर आधारित अनुराग है। इसमें सबसे उत्तम प्रकार का प्रेम भक्ति बताया गया है। अध्यात्म क्षेत्र में जहाँ कहीं भी “भक्ति” शब्द का प्रयोग हुआ है, वहाँ उसका प्रच्छन्न अर्थ प्रेम ही होता है। प्रेम किसके प्रति? ईश्वर के प्रति। प्रेम की पराकाष्ठा ही समर्पण है। यह समर्पण वहीं हो सकता है, जहाँ उच्च आदर्शों का समुच्चय हो। यह भगवान के अतिरिक्त दूसरा कोई हो ही नहीं सकता। अतः जहाँ कहीं भी इस प्रकार का समर्पण होता है, वहाँ किसी की कृपा बरसने की प्रतीक्षा नहीं की जाती, वहाँ किसी याचना की कामना नहीं होती। जो होता है, वह शुद्ध प्रेम-भाव है। यही आदी और यही अंत है। प्रेम से आरंभ कर व्यक्ति अंतिम पड़ाव-महाप्रेम -ईश्वर प्रेम में ही ठहरता है। पृथ्वी गोल है। अतः उसका कोई अंत और आरंभ नहीं-कोई ओर छोर नहीं। चाहे जहाँ से प्रारम्भ करें, अंत में वहीं आना पड़ेगा, जहाँ से यात्रा की शुरुआत हुई थी। इसी प्रकार प्रेम का श्रीगणेश चाहे जिस रूप में जहाँ से किया जाय, उसका समापन उस महाप्रेम में ही होगा, जिसे “रसो वै सः” कहकर आप्तजनों ने संबोधित किया है।
देवर्षि नारद का भक्ति सूत्र में कथन है-”सा त्वस्मिन परम प्रेमरूपा”। सचमुच, वह परम सत्ता प्रेमरूप ही है। उसकी प्राप्ति हम अपने अंदर प्रेम तत्व का विकास कर ही कर सकते हैं। इस संदर्भ में जो अपने भीतर इसका जितना विकास कर सका, समझना चाहिए, वह भगवद् सत्ता के उतना ही सन्निकट पहुँचा। इस परिप्रेक्ष्य में विचार किया जाय तो सुकरात का उत्तर अत्यंत सारगर्भित जान पड़ेगा।