सृष्टि की नियामक सत्ता- परमेश्वर

May 1993

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यह समूचा विश्व-ब्रह्मांड एक सुनिश्चित नियम और व्यवस्था के अंतर्गत चल रहा है। अब विज्ञानवेत्ता भी इस तथ्य को स्वीकारने लगे हैं कि इतने विराट्-जगत को घुमाने वाला कोई महान शक्तिशाली तत्व होना चाहिए और वह केवल ईश्वर ही हो सकता है। जब मानवकृत छोटे-छोटे उपदान बिना कर्ता के अभिव्यक्ति नहीं पा सकते, तो इतना सुन्दर संसार, जिसमें प्रातःकाल सूरज उगता और प्रकाश तथा गर्मी देता है। रात, थके–हारों को अपने अंचल में विश्राम देती है, तारे पथ-प्रदर्शन करते,ऋतुयें समय पर आती है और चली जाती हैं। हर प्राणी के लिए अनुकूल आहार जल-वायु की व्यवस्था, प्रकृति का सुव्यवस्थित स्वच्छता अभियान सब कुछ व्यवस्थित ढंग से चल रहा है। असंख्यों ग्रह-गोलक एवं तारागण किसी व्यवस्था के अभाव में अब तक न जाने कब के आपस में लड़ मरे होते। यदि इन सबमें कोई गणितीय नियम-व्यवस्था काम न कर रही होती तो अमुक दिन अमुक समय सूर्य चन्द्र ग्रहण मकर संक्रांति आदि का ज्ञान किस तरह हो पाता। यह सोद्देश्य कार्य और सुंदरतम रचना बिना किसी ऐसे सचेतन कलाकार के संभव नहीं था जो संपूर्ण ब्रह्मांड को एक रस देखता हो साधन जुटाता हो न्यायकर्ता हो और जीव मात्र को पोषण, संरक्षण प्रदान करता हो। विश्व विख्यात वैज्ञानिक अरस्तू के लिए सबसे बड़ा आश्चर्य था-ब्रह्मांड का स्वरूप और उसकी गति। उनका कहना था कि परमात्मा ही सृष्टि का संचालक है। उसके अतिरिक्त और किसी में यह शक्ति नहीं। दार्शनिक हर्बर्ट स्पेन्सर की दृष्टि में भगवान ही वह विराट्शक्ति है जो संसार कि सब गतिविधियों का नियंत्रण उसी प्रकार करते हैं जिस प्रकार मुखिया घर का, सरपंच गाँव का कलेक्टर जिले का, गवर्नर प्रदेश का और राष्ट्रपति सारे राष्ट्र की भोजन, वस्त्र, निवास सुरक्षा आदि की व्यवस्था करता है। उनके अनुसार-राज्य के नियमों का आदर इसलिए करते हैं क्योंकि राज्य कि शक्ति से हमें भय लगता है, जब कि हम उसके लिए पूर्ण स्वतंत्र होते हैं। यह इस बात का प्रमाण है कि संसार में काई सर्वोच्च सत्ता काम करती है जिसके परिचय में हम कभी न कभी रहे हैं क्योंकि हम डरते हैं। निर्भीक व्यक्ति नैतिक व्यक्ति ही हो सकती है, इसलिए उसे संसार की व्यवस्था ईमानदारी और न्याय से करने वाला प्रजावत्सल होना चाहिए।

सुप्रसिद्ध दार्शनिक कान्ट ने हर्बर्ट स्पेन्सर के कथन को अधिक स्पष्ट करते हुए कहा है कि ‘नैतिक नियमों की स्वीकृति ही परमात्मा के अस्तित्व का प्रमाण और पूर्ण नैतिकता ही उसका स्वरूप है। संसार का बुरे से बुरा व्यक्ति भी किसी न किसी के प्रति नैतिक अवश्य होता है। चोर-डकैत भी नहीं चाहते कि कोई उनसे झूठ बोले, छल या कपट करे, जबकि वे स्वयं सारे जीवन भर यही किया करते हैं। अपने भीतर से नैतिक नियमों की स्वीकृति इस बात का प्रमाण है कि संसार केवल नैतिकता के लिए ही जीवित है। उसी से संसार का निर्माण पालन और पोषण हो रहा है इसलिए भगवान नैतिक शक्ति के रूप में माने जाने योग्य है।’

हैब्रयू ग्रन्थों में ईश्वर को ‘जेनोवाह’ कहा गया है। जेनोवाह का अर्थ है- वह जो सदैव सत्य नीति ही प्रदान करता है। अपने स्वार्थ के लिए मनुष्य एक दूसरे को ठगता देखा जाता है, पर पाया गया है कि ऐसा व्यक्ति कुछ ही दिनों में लोगों के आदर से सम्मान से वंचित हो जाता है। कभी-कभी तो ऐसे लोगों की इस जीवन में दुर्गति होते देखी गयी है। इस सबका अर्थ यह है कि विश्वास की संपूर्ण व्यवस्था किसी सत्य के आधार पर चल रही है। जो भी उससे हटने का प्रयत्न करता है वह पीड़ित और प्रताड़ित होता है, जब कि इन नियमों पर आजीवन आरुढ़ रहने वाले व्यक्ति साँसारिक दृष्टि से कुछ घाटे में भी रहें तो भी उनकी प्रसन्नता में कोई अन्तर नहीं आता।

सत्य और नीतिनिष्ठ द्वारा संसार का नियंत्रण करने वाली ऐसी शक्ति जो व्यक्ति की आकांक्षाओं में विद्यमान रहती है, वही ईश्वर है। दार्शनिक प्लेटो की मान्यता लगभग ऐसी ही थी। उनका कहना था-’ईश्वर अच्छाई का विचार है।’ संसार के प्रत्येक व्यक्ति-यहाँ तक की जीव-जन्तुओं तक को भी अच्छाई कि चाह रहती है। जहाँ अच्छाई होती है, वहीं आनंद रहता है। अच्छाई शरीर और सौंदर्य की जो संयम और सदाचारों के द्वारा सुरक्षित हो, अच्छाई शरीर और वस्त्रों की जो धोने और स्नान करने से सुरक्षित हो अच्छाई वातावरण की, घर, गाँव और नगरों की जो स्वच्छता और सफाई द्वारा सुरक्षित हो। अच्छाई प्रकृति की-जो हरे-भरे पौधों और खिलते हुए रंग-बिरंगे फूलों भोले-भाले पशु-पक्षियों के कलरव और उछलकूद से सुरक्षित हो। इस संसार में हम सर्वत्र अच्छाई का दर्शन करके प्रसन्नता का अनुभव करते हैं। यही प्रभुत्व हैं, इन्हीं से आनंद मिलता है। यदि हम ईश्वर को मानें तो उसे अच्छाई का वह बीज मानना पड़ेगा जो आँखों को दिव्य, मनोरम और बहुत प्यारा लगता है।

न्यूटन और आइन्स्टीन जैसे विश्वविख्यात वैज्ञानिकों ने सृष्टि के प्रत्येक क्रिया कलाप में उस सर्वव्यापी परम चेतना के अस्तित्व को स्वीकारा है जो समय, स्थान गति और कारण से परे हैं। उनके अनुसार सृष्टि की समस्त व्यवस्था सुनियोजित रूप से उस चेतन सत्ता के द्वारा संचालित है जिसका अस्तित्व सिद्ध कर सकना भौतिकी के नियमों और वैज्ञानिक उपकरणों द्वारा संभव नहीं। उसे ज्ञान के रूप में, विचार के रूप में अच्छाइयों के समुच्चय के रूप में ही जाना जा सकता है। मूर्धन्य मनीषी स्पिनोजा ने भी अविनाशी विचार को ही भगवान कहा है। उन्होंने विज्ञान और दर्शन-दोनों का अध्ययन करके बताया कि संसार में दो प्रकार कि सत्तायें काम कर रही हैं-एक दृश्य, दूसरी अदृश्य। एक का नाम प्रकृति या पदार्थ जो दिखाई देता है। यह दृश्य संसार-प्रकृति की ही रचना है अपना शरीर भी पदार्थ से ही बना है। इसमें भी धातुयें खनिज लवण, गैसें आदि भरी पड़ी हैं पर विचार उससे भिन्न हैं। यह दिखाई नहीं देता पर हम उसे हर घड़ी अनुभव करते हैं। हमारे जीवन की सारी क्रियाशीलता विचारों की ही देन है। विचार मरे कि शरीर भी मर गया। मृत्यु के अन्तिम क्षण तक विचार प्रक्रिया का बने रहना यह बताता है कि विचार ही विश्वव्यापी चेतना या ईश्वर है। विचार कभी नष्ट नहीं होते। या यों कहें कि भगवान का स्वरूप-गुण और विचारमय ही हो सकता है चाहे वह किसी शक्ति कणों के रूप में हो अथवा प्रकाश रूप में पर विचारों का अस्तित्व संसार में है अवश्य। हम सदैव ही उनसे प्रेरित, प्रभावित होते रहते हैं। विचारों को कोई भी व्यक्ति अपना नहीं कह सकता। मनोविज्ञानी फ्रायड को भी कहना पड़ा था कि विचार अवचेतन मन से आते हैं और मनुष्य का उस पर कोई नियंत्रण नहीं, वह कोई स्वतंत्र सत्ता है।’

प्रसिद्ध वैज्ञानिक हीगल ने भगवान को सामान्य इच्छाओं से ऊपर उठा हुआ, इच्छाओं को भी नियंत्रण में रखने वाला परम विचार ‘अब्सोल्यूट आइडिया’ बताया है जिस प्रकार प्रत्यक्ष में देखने से हमारा मस्तिष्क एक प्रकार से विचारों का पुंज है और इसी के किसी कोने से विचारों का प्रवाह निरन्तर चलता रहता है, इसी तरह समूचे विश्व में फैले विचार किसी केन्द्रीभूत सत्ता से प्रस्फुटित हो रहे हैं। जिस प्रकार सूर्य में आक्सीजन जलती रहती और हीलियम के कण उछलते रहते हैं उसी प्रकार संसार के किसी भाग से नियमित विचारों का निर्झर झरता रहता है। उस केन्द्रीभूत सत्ता का नाम उन्होंने परमेश्वर बताया।

दार्शनिक इमर्सन और बर्कले के अनुसार सब आत्माओं में श्रेष्ठ शक्ति का नाम ही परमात्मा है। उनके मत में सारा संसार कहीं से उधार प्राण और चेतना ले रहा है। यह चेतना और प्राणशक्ति अपने मूलरूप में एक जैसी ही है। विचारग्रस्त होने के कारण वह अनेक जीवों के रूप में दिखाई देती है, पर आत्म चेतना के सभी लक्षण मनुष्य और पशु प्राणियों में समान हैं। जिस तरह बड़े विद्युत घर से विद्युत लेकर छोटे-छोटे बल्ब जलने लगते हैं, उसी प्रकार प्राणियों की चेतना भी किसी मूल तत्व से प्राण और प्रकाश लेकर अस्तित्व में आती है। जो सब आत्माओं का उद्गम है वही परमेश्वर है। यदि आत्माओं का स्वरूप प्रकाश है तो परमात्मा भी प्रकाश है। यदि ज्ञान या विचार है तो परमात्मा भी ज्ञान या विचार है। यह सारी विशेषतायें वस्तुतः एक ही हैं, कहने भर का अन्तर जान पड़ता है।

ख्यातिलब्ध मनीषी डॉ. ब्राँडले भगवान को जानने के लिए अनुभवों का रूप समझने की प्रेरणा देते हैं। उनका कहना है कि हमारे अन्दर जो अनुभूतिकोष है वह पदार्थ ही नहीं-प्रकाश ताप, चुम्बक, विद्युत कणों से भी भिन्न है। इसलिए उन्होंने भगवान को ‘परम अनुभव’ कहा है। यह सारी बातें मिलकर एक अध्यात्मवादी सृष्टि का निर्माण करती हैं। इसलिए यूकन जैसे विद्वान ने उसे आध्यात्मिक जीवन का आधार कहा। आद्यशंकराचार्य और उपनिषद् दर्शन उसे ही ‘अहं ब्रह्मास्मि’ ‘तत्वमसि’ ‘अयमात्मा ब्रह्म’ ‘मैं ही ब्रह्म हूँ’ ‘परमात्मा तत्व रूप हूँ’ ‘यह मेरी आत्मा ही ब्रह्म है’ आदि सूक्तों से संबोधित करते हैं। यह सारी विशेषतायें परमात्मा के स्वरूप के भिन्न-भिन्न विशेषण हैं। तत्वतः वह एक ही है जो सारी सृष्टि के क्रम को नियम और सुव्यवस्था के चला रहा है।


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