असली पारस

May 1993

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‘अपनी सेवा आप करना ब्रह्मचर्य व्रत का पालन भूमिशयन, वल्कल वसन, उपवास और उपासना से बचे समय में धर्मग्रन्थों का स्वाध्याय, चिन्तन मनन यह साधना की प्रारंभिक आवश्यकताएँ हैं, शिखिध्वज! आज तुम्हारी मंत्र दीक्षा संपन्न हुई। पूजन की सामग्री उपयुक्त पात्र, कुश आसन यह अपने पास रखने होंगे। पंचोपचार पूजन सहित मंत्र जप करते हुए शुभ ज्योति स्वरूप निराकार गायत्री का ध्यान करना। जब तुम इस प्रारंभिक साधना को सफलतापूर्वक पूरा कर लोगे, तो आगे उच्चस्तरीय साधना के लिए तुम्हें अग्नि दीक्षा भी देंगे।’ यह कहते हुए महर्षि उद्दालक उठ खड़े हुए। शिखिध्वज ने गुरुचरणों में प्रणिपात किया, महर्षि ने आशीर्वाद दिया और दोनों अपने-अपने पर्णकुटीरों की ओर चले गये।

श्रद्धा शिष्य की प्रारंभिक परख है। आत्म जिज्ञासा होना अलग बात है, श्रद्धा अलग। जिज्ञासाएँ तो नास्तिकों की भी होती है, किन्तु मानवीय दुर्बलताओं के विपरीत ऊर्ध्वगामी जीवन और कष्टपूर्ण साधनाओं में जिस धैर्य की आवश्यकता होती है, वह श्रद्धावान व्यक्तियों में ही संभव है। ‘श्रद्धावान लभते ज्ञानं’ ‘श्रद्धया सत्य माप्यते’ श्रद्धावान ही ज्ञानार्जन करते हैं, श्रद्धावान ही सत्य को प्राप्त करते हैं। शिखिध्वज की श्रद्धा भावना के ही कारण महर्षि ने मंत्रदीक्षा दी थी। सामान्यतः हर किसी को वे दीक्षा नहीं दिया करते थे।

एक वर्ष में शिखिध्वज ने अच्छी तरह अनुभव कर लिया कि संसार जड़ और चेतन दो प्रकार के परमाणु इधर-उधर घूमते हुए अपना संसार-दृश्य जगत बनाए रहते हैं,उसी प्रकार चेतना भी आनन्द प्राप्ति के लिए यहाँ-वहाँ विचरण करती रहती है। जब तक मन जड़ परमाणुओं से बने संसार में सुख खोजता है, तब तक वह भूले हुए पथिक की भाँति वन और कंटकों में विचरण का-सा कष्ट पाता है। पर जब वह जान लेता है कि आत्मा की प्यास विराट् आत्मा बनने से बुझती है तो फिर वह जन्म-मरण के चक्र में आत्म,चेतना को भटकाता नहीं, वरन् भौतिक संस्कारों का प्रच्छालन करने और आत्मा को परमात्मा में घुलाकर असीम आनन्द की प्राप्ति की तैयारी में संलग्न हो जाता है।

साधना का यह द्वितीय द्वार सिद्धान्ततः जितना सरल है, व्यवहार में उतना ही कठिन। जन्म−जन्मांतरों का अभ्यासी मन लौकिक सुखों को सहज ही त्यागने के लिए नहीं तैयार होता है। बड़ी भारी संग्राम करना पड़ता है, तब कहीं मन की मलीनताएं दूर होती हैं। इस अवस्था में पहुँचे हुए साधकों को थोड़ी सी-भी चूक उन्हें पथ-भ्रष्ट कर सकती है। उन्हें पहाड़ जैसी उपलब्धियों से पल भर में नीचे गिरा सकती है। इसीलिए योग्य आचार्यों ने अग्नि दीक्षा उन्हीं को दी, जिन्हें पात्र समझा। हर किसी को अग्नि दीक्षा का अधिकारी घोषित करने की भूल उन्होंने की होती तो साधन तत्व नष्ट ही हो गया होता।

मंत्र दीक्षा की वर्षगाँठ बसन्त के पुण्य पर्व पर पड़ती थी। एक दिन पूर्व ही शिखिध्वज ने गुरुदेव के समीप जाकर प्रार्थना की भगवन्! आपकी कृपा से प्रारंभिक साधना का अंतिम चरण आज से पूरा हो रहा है। मेरी हार्दिक अभिलाषा है कि अब मैं उच्चस्तरीय साधनाओं में प्रवेश कर सिद्धियाँ प्राप्त करूं। पंचकोशों का अनावरण करते हुए आनन्दमय भूमिका में पहुंचूं।

महर्षि शिष्य की निष्ठा से प्रसन्न तो हुए पर उनकी प्रसन्नता उस पात्र की तरह न थी, जो हलकी आँच से गर्म और थोड़ी-सी शीत से ही शीतल हो जाता है। वे बड़े पारखी थे। बोले कुछ नहीं। भीतरी दृढ़ता को टटोलते बिना आगे का पाठ्यक्रम चलाने की अनुमति भी नहीं दी। अभी अग्नि-दीक्षा के उपयुक्त पात्रता की परीक्षा शेष थी, उसे परखे बिना स्वीकृति कैसे दी जा सकती थी?

उद्दालक महान तपस्वी थे उन्होंने अनेक सिद्धियाँ प्राप्त की थी। लोहे को सुवर्ण में बदल देने वाला पारसमणि उनके पास था। उन्होंने चुप-चाप मणि निकाली, एक अन्य विद्यार्थी को भेजकर थोड़ा लोहा मँगवाया। शिखिध्वज को चिन्ता हो रही थी, गुरुजी कुछ कर तो रहे हैं, पर मेरी बात का उत्तर नहीं दे रहे। इस बीच वह शिष्य कई लौह शलाकाएँ लेकर आ उपस्थित हुआ। महर्षि ने पारसमणि को उन शलाकाओं से स्पर्श कराया। विस्मय! महान विस्मय!! वह शलाकाएँ स्वर्ण में परिवर्तित हो गई। शिखिध्वज गुरु का चमत्कार देखकर दंग रह गया।

‘धन...हां! धन से ही तो धर्म होता है धर्म से पुण्य से मुक्ति।’ मिल गया मुक्ति का मार्ग मुझे। शिखिध्वज के मन में पारसमणि का लोभ आ गया। चढ़ने में तो परिश्रम भी पड़ता है, समय भी लगता है फिसलते कितनी देर लगती है। साधना के द्वारा निर्माण किया गया मन एक ही क्षण में लोभ की कीचड़ में डूब गया। मुद्राध्यायी महर्षि मुस्कुराए इतनी कमजोर निष्ठा वाले शिष्य कहीं अग्नि-दीक्षा के अधिकारी हो सकते हैं। यह तो धन की बात रही अभी तो सौंदर्य, यश, प्रतिष्ठा के कितने ही आकर्षण हैं शिखिध्वज वित्तेषणा से ही मुक्त न हो सका तो यह ब्रह्मदीक्षा तक पहुँचने की कठिनाई कैसे झेल सकेगा? स्वल्प शक्ति, योग्यता और प्रतिभा का मनुष्य जो अपने कल के भविष्य के लिए भी निश्चित नहीं होता, उसे राज सम्मान के पद और प्रतिष्ठा प्राप्त करने में ही कितनी कठिन परीक्षाओं से गुजरना पड़ता है। सर्वशक्ति ब्रह्म और उसका अनन्त ऐश्वर्य प्राप्त करने की कठिनाइयों का तो अनुमान ही कौन कर सकता है। परम पुरुषार्थ कहा है, इसीलिए आत्म प्राप्त को क्योंकि उसमें सिवाय दमन-दमन के और कुछ नहीं। मनुष्य को अपनी प्रकृति का स्वभाव का, इच्छा और अहंकार का दमन करने में कितना कष्ट होता होगा, इसकी कल्पना कर सकना भी सहज नहीं है।

हतभाग्य शिखिध्वज पहले ही चरण में ढेर हो गया। अभी तक महर्षि उद्दालक कुछ बोले नहीं थे। अपनी मंतव्य अपने आप बदलते हुए शिखिध्वज ने कहा-’गुरुदेव! आप सचमुच भगवान हैं सर्व समर्थ हैं, कितना अच्छा हो यदि आप यह पारसमणि मुझे दे दें। इससे प्राप्त सुवर्णराशि का उपयोग समाज की भलाई में यज्ञ कार्यों में करूंगा और इस तरह संसार से मुक्त हो जाऊँगा।’

महर्षि शिष्य के बचकानेपन पर मुस्कुराए। चाहते तो पारसमणि दे भी देते, पर मणि देने कि जगह उन्होंने गंभीर होकर कहा-’वत्स! पारसमणि तो तुम्हें दे दूँगा पर तुम इसे लेकर जाओ और इसका दुरुपयोग करो, इससे पहले तुम्हें इस सत्यता की घोषणा करनी होगी कि धर्म और साँसारिकता में कौन बड़ा है। आसक्ति और वैराग्य में कौन श्रेष्ठ है। कहीं ऐसा न हो तुम इसे लेकर जाओ और पाप-पंक में डूबकर धार्मिक मर्यादाओं को कलंकित कर डालो।’

‘इसलिए पहले तुम्हें मेरे साथ यात्रा में चलना होगा।यात्रा के बाद ही तुम्हें पारसमणि सौंपने का निश्चय किया जा सकता है।’ महर्षि और शिखिध्वज वहाँ से चल पड़े। रात्रि वहाँ से पाँच योजन दूर एक गाँव में डेरा डाला। इस गाँव में उच्चवर्ण के ब्राह्मण और क्षत्रियों का बाहुल्य था। महर्षि एक कुलीन गृहस्थ के घर टिक गए।

संध्या समाप्त कर उद्दालक ने गृहस्वामी को बुलाकर पूछा-’यदि आप रात्रि भर के लिए अपनी युवा पुत्री की हमारी पास रहने दें तो हम अपनी मंत्र-शक्ति से तुम्हारा घर में उपलब्ध संपूर्ण लोहे को स्वर्ण राशि में बदलकर दे सकते हैं। गृहस्थ को एक बार संन्यासी की धूर्तता पर क्रोध तो आया तो हाय रे दुर्बल मनुष्य! स्वर्ण राशि का लोभ, भविष्य में वैभव विलास के रंगीन सपनों ने उसकी प्रतिरोध की शक्ति नष्ट कर दी। उसने सोने के लोभ में पुत्री देना स्वीकार कर लिया।

महर्षि ने उसे घर की लोहे राशि को सोने में बदल दिया। उसने अपनी पुत्री महर्षि को समर्पित कर दी महर्षि ने बालिका की पीठ पर स्नेह से हाथ फेरते हुए कहा’पुत्री! तुम्हारी पितृ भक्ति सराहनीय है किन्तु धन के लोभी पिता की आज्ञा के सामने अपनी धार्मिक मर्यादाएँ बड़ी है, आवश्यकता पड़े तो अपने माता-पिता का भी सामना करना चाहिए पर अविवेकपूर्ण निर्णय को स्वीकार नहीं करना चाहिए।’ शिखिध्वज ने यह सब अपनी आँखों देखा। इसके बाद महर्षि उद्दालक वहाँ रुके भी नहीं रात में ही आगे चल पड़े।

प्रातः होने तक गुरु-शिष्य पारावती नगर जा पहुँचे-नर्मदा के पुण्य तट पर स्नान, संध्या करने के उपरान्त वे एक धनी सेठ के घर मेहमान बने। धनिक ने उनका स्वागत सत्कार किया। इस स्वागत के बदले महर्षि ने कहा-तात! एक घण्टे में तुम जितना लोहा ला सको ले जाओ हम उसे स्वर्ण में बदल देंगे। वनिक का मन हर्ष से नाच उठा। सारे घर को इस काम में लगा दिया गया। आधे घण्टे में घर में उपलब्ध सारा लोहा खोज लिया पर उससे वनिक की इच्छा तृप्त न हुई। पड़ोस में लुहार का घर था, उसने अपने पुत्रों को भेज कर उसका भी बहुत सा लोहा चोरी करा लिया। यह भी ध्यान न रहा कि बेचारे लुहार की आजीविका छिन रही है।

लोहे का अंबार लग गया, महर्षि ने हँसकर कहा- धन्य है मनुष्य की तृष्णा! तू कभी पूरी न हुई पर मनुष्य पागल की तरह हर पल तेरे पीछे ही दौड़ता है। उन्होंने वह लोहे भी सोने में बदल दिया और चल पड़े।

अगली संध्या उन्होंने राजगृह में बिताई। राजा अपने पुत्र के विवाह की तैयारी में था। महर्षि ने उसे बुलाकर कहा-’यदि वह किसी नवजात शिशु को बलि के लिए ला सके तो उसके राजभवन की प्रत्येक वस्तु को सोने में बदला जा सकता है। लोभी नृपति ने पड़ोसी विधावा के बच्चे को गोंद से छिनवा मँगाया और महर्षि को भेंट कर दिया। पुत्र तो महर्षि ने पीछे से उसकी माँ को पहुँचा दिया पर लोभी मनुष्य समाज के लिए भी कितना घातक हो सकता है इसकी शिक्षा शिखिध्वज को मिल गई। इस तरह वे वहाँ से भी आगे बढ़ चले।

अगले दिन एक विद्वान ब्राह्मण के घर पहुँचकर महर्षि ने कहा-’यदि आप अपने संपूर्ण ग्रन्थों को मुझे बेच दें उनका स्वामी रचयिता सब मुझे बना दें तो मैं आपके घर प्राप्त सभी लोहे को सोना बना दूँगा।’ विद्वान का स्वाभिमान सोने के लोभ में ढेर हो गया। उसने भी प्रस्ताव स्वीकार कर लिया। साँसारिक सुख के लिए मनुष्य अपने आदर्श और सिद्धान्त ही नहीं शान और स्वाभिमान तक बेच सकता है। इस तरह की शिक्षा देकर गुरु-शिष्य वहाँ से चल पड़े और संध्या होने से पूर्व अपने आश्रम लौट आए।

गुरुदेव का आगमन सुनकर सारे आश्रमवासी हर्ष विभोर हो गये। सब लोग उन्हें प्रणाम करने आने लगे। शिक्षार्थी-वानप्रस्थी जो अपना सर्वस्व त्याग कर तप-साधना के लिए आश्रम में आए थे,एक-एक कर महर्षि के चरणों में शीश झुकाते जा रहे थे और शिखिध्वज देख रहा था, इस अनुशासन में शाँति-संतोष आनन्द का भाव छलक रहा है। आज उसे अपनी दीनता पर बड़ा पश्चाताप हो रहा था।

सबसे निवृत्त होकर महर्षि ने शिखिध्वज को बुलाकर कहा- ’तात! यह लो यह रही पारसमणि, इसे ले जाओ और साँसारिक सुखों का जी भर उपयोग करो।’

किन्तु आज उसकी आसक्ति धुल चुकी थी। जो तृष्णाएँ मनुष्य से छल करा सकतीं, चोरी, हत्या और कुत्सित कर्म करा सकती हैं। उनसे निराहार रहकर जीना अच्छा। मनुष्य का जन्म तो निराहार रहकर जीना अच्छा। मनुष्य का जन्म मनुष्यता से पतित होकर पशुता में गिरना नहीं, अपने जीवन ध्येय को समझने और उसे प्राप्त करने के लिए बना है, इसीलिए धर्म बड़ा है, लोकाचार नहीं। उसने पारसमणि लौटाते हुए कहा-’देव! देव मुझे यथार्थ पारस तो अब मिला है, मेरी एक वर्ष की साधना बेकार गई, इसका मुझे हार्दिक दुःख है। अब आशीर्वाद दें कि इसी साधना का पुनः अभ्यास करूं, फिर से अग्नि दीक्षा की पात्रता उपलब्ध करूं।’


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