परम पूज्य गुरुदेव की अमृतवाणी

May 1993

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इस अंक में गायत्री जयंती (30 मई 1993) के परिप्रेक्ष्य में प्रस्तुत है पूज्यवर द्वारा दिया गया गायत्री जयंती 1983 का एक उद्बोधन जिस में गायत्री महाविद्या के गुह्यतम पक्षों पर प्रकाश डाला गया है। पढ़े-अमृतवाणी

गायत्री मंत्र कृपा कर हमारे साथ-साथ कहिए- ॐ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात्।

देवियों, भाइयों! जिस पुनीत गायत्री पर्व को आप मनाने के लिए आये हैं, उसका बहुत महत्व है। आपने तो केवल उसको सुना है, पर मैंने देखा है। आपने तो केवल उसको आपके लिए यह पर्व सामान्य जानकारी के लिए आकर्षक भी हो सकता है, पर मेरे लिए तो जीवन है। मेरे नस-नस में गायत्री पर्व घुसा हुआ है। माँस में, अस्थियों में, मस्तिष्क के प्रत्येक कण में घुसा हुआ है। जीवन की गतिविधियों में भरा हुआ है। ऐसा है यह गायत्री पर्व, जिसके लिए कितनी श्रद्धा लेकर हमने इतनी लम्बी जिन्दगी ली ली। इसमें कोई शक नहीं कि आपका दृष्टिकोण दूसरा हो सकता है और मेरा दूसरा, लेकिन हमारे दानों के लिए यह हमारी माँ है। आप छोटे बच्चे हों तो क्या और हम बड़े बच्चे हों तो क्या? लेकिन हम दानों की माँ एक ही है-’गायत्री माता’ जिसको हम भारतीय संस्कृति की जननी कहते हैं। भारतीय धर्म की जीवात्मा कहते हैं। वेदों के मंत्रों से लेकर पुराणों तक का सारा वाङ्मय जिसकी व्याख्या के स्वरूप बना, जिसके सारे देवी-देवता, 24 देवता, त्रिपदा के तीन देवता, 24 अक्षरों के 24 अवतार, सारे का सारा पूजा-पाठ का परिकर-गायत्री के अलावा और कुछ है नहीं। भारतीय संस्कृति और भारतीय धर्म विरुद्ध गायत्री स्वरूप हैं।

गायत्री की महत्ता के बारे में कितना सारा बताया गया है, कितने गुण गाये गये हैं। लेकिन आमतौर से आदमी निराश देखे गये हैं और यह कहते सुने गये है कि हमको वे लाभ सुनने को तो मिलते हैं पर पायें नहीं जा सकते। मेरा मत इससे भिन्न है। आपकी शिकायत है कि गायत्री का कोई चमत्कार हमने नहीं देखा, लेकिन मैंने देखा है। कुछ ऐसे भी चमत्कार हैं जो मैं आपको भी दिखा सकता हूँ, पर कुछ ऐसे हैं जो मेरे लिये देखना संभव नहीं अथवा दिखाना नहीं चाहता। गायत्री के ऐसे सारे के सारे चमत्कारों के बारे में ऋषियों ने जो कुछ भी कहा है, उन्हें अक्षरशः मैंने सही पाया है। फिर आपने गलत क्यों पाया और मैंने सही क्यों पाया? गायत्री जयंती के पुण्य पर्व पर आइये इसी महत्वपूर्ण तथ्य पर प्रकाश डाले और पर्दे को उठाने की कोशिश करें कि हमारे लिये गायत्री क्यों चमत्कारी है और आपके लिए क्यों निराशाजनक हैं। अक्षर तो वही 24 हैं। माला तो वही है। पूजा के विधि-विधान भी वही हैं, फिर आप में फरक कैसे पड़ गया। हम यही चाहते हैं कि आप इसे जाने लें।

गायत्री के संबंध में हमारे गुरुदेव ने जब पहले दिन आये थे, तभी उसका तत्वज्ञान समझा दिया था और कहा था कि गायत्री की शक्ति बादलों की तरह बरसाती है, लेकिन इसके लिए एक शर्त है कि मिट्टी मुलायम होनी चाहिए और गड्ढा होना चाहिए। मिट्टी मुलायम होगी तो हरियाली पैदा हो जायगी और गड्ढा होगा तो बादलों का पानी जमा हो जायेगा। टीले के ऊपर, चट्टानों के ऊपर पानी बरसेगा तो हरियाली कैसे पैदा हो जायगी? बादल अपने आप में ऐ इकाई है, लेकिन समग्र नहीं है। जिसको ग्रहण करना है- धारणा करना है उसकी अपनी स्थिति और योग्यता भी होनी चाहिए, व्यक्तित्व भी होना चाहिए। उन्होंने एक बात और कही जिसे हमने गिरह बाँध ली, पर आप तो सुनने को भी तैयार नहीं हैं। वह थी-’भगवान की कोई साधना नहीं होती। कोई भगवान की साधना कैसे कर सकता है? साधना सिर्फ अपने आपे की करनी पड़ती है। अपने आपे की साधना कर लेने और पात्रता विकसित कर लेने के बाद में दैवी शक्तियों का अनुदान अनायास ही बिना माँगे मिलता हुआ चला जाता है।’ मेरे गुरु ने जिस दिन दीक्षा दी उसी दिन मुझे वास्तविकता समझा दी और कहा-कि सारे का सारा ध्यान अपने ऊपर केन्द्रित कर लीजिये मैंने अपने ऊपर केन्द्रित रखा और यही कहता रहा-आदर्शों को, सिद्धान्तों को भगवान कहते हैं, उत्कृष्टता को भगवान कहते हैं और उसी की आराधना के लिए, उसी की उपासना के लिए अपने हर एक साँस को, हर एक चप्पे को, योग्यता के हर एक कण को मैंने नियोजित कर दिया। हमने भगवान की महत्ता को समझने की कोशिश की और उसने हमको गायत्री के नजदीक ला दिया। आप तो लाखों मील दूर हैं इसलिए कि आपने केवल सुना है और कृत्यों को किया है, अतः निराश नहीं रहेंगे तो क्या करेंगे। लेकिन हमको-पूरी तरीके से सच्चे मन से हजार बार कहने की हिम्मत पड़ती है कि गायत्री शक्तिवान है, सामर्थ्यवान है और चमत्कारी है। गायत्री में वह सब कुछ है जिसके बारे में बताया गया है।

लेकिन मित्रों! यह कैसे संभव हो सका? ऐसे संभव हो सका कि हमारे दृष्टिकोण में और आपके दृष्टिकोण में फरक रहा। आपने उस तरीके से उपासना की कि आपको लाभ मिला या नहीं, परन्तु हमारी नीयत दूसरी ही रही है। हमने पाने का कभी विचार ही नहीं किया। शुरू के दिन से आखिरी दिन तक हमने केवल देने का ही विचार किया है। आपने किस स्तर की उपासना की है? हमने दधिचि जैसे स्तर की उपासना की है। हमने कमाया तो था, लेकिन देवताओं से कहा-’कुछ हमारे पास है। आप दुनिया को देते हैं तो कुछ हमसे भी लेते जाइये।’ ऐसे इनसान होते भी रहे हैं और हर अध्यात्मवेत्ता का स्तर यही होना चाहिए। देवता केवल दिया ही नहीं करते, उन्हें भी जरूरत होती है। आप जानते नहीं है क्या? एक बार देवताओं की जरूरत पड़ी थी और वे इंसानों की सहायता माँगने के लिए आये थे। उनने दशरथ से कहा था कि हम बहुत हैरान है और हमको इंसान के मदद की जरूरत है। तब दशरथ जी कैकेयी के साथ अपना रथ लेकर स्वर्गलोक को देवताओं की सहायता करने गये थे। दधिचि ने देवताओं की जरूरत पूरी की थी और हमारे पूजा करने के तरीके भी उसी तरीके से रहे हैं। देवताओं ने एक और आदमी से हाथ पसारा। उसका ना था-अर्जुन। अर्जुन देवताओं की मदद करने के लिए गये थे। मदद करने के बाद में जब देवताओं ने अपना काम बना लिया तो सोचा इसे उसी स्तर का कुछ इनाम देना चाहिए। सो स्वर्गलोक की सबसे खूबसूरत महिला उर्वशी को उनने पेश कर दिया और कहा-पैसे के बाद में लोग खूबसूरती चाहते हैं, विषय-विकारों को चाहते हैं, आप यह ले जाइये। अर्जुन ने मना कर दिया और कहा- हमने तो अपने आपको संयमी जीवन में ढाल लिया है। क्या करेंगे इन बेकार की चीजों को। तब देवताओं ने उससे भी शानदार चीज गाण्डीव इसलिए दिया गया था कि जहाँ कहीं भी उससे तीर चलायेगा, पार करता हुआ चला जायेगा, असफल हो ही नहीं सकता। समर्थ गुरु रामदास ने शिवाजी को भवानी से तलवार दिलायी थी-ऐसी शानदार तलवार जो चीरती हुई चली गयी-पार करती हुई चली गयी।

मित्रों! मैंने वहीं किया है। उपासना मैंने इसी ढंग से की है। हमने सिर्फ एक काम किया है-अपने आपको धोया है, अपने आपके ऊपर पॉलिश की है और अपने आपको रगड़ करके तेज चाकू की तरीके से बना दिया है कि जहाँ कहीं भी मारेंगे चीरता हुआ चला जायेगा। यह है हमारा व्यक्तित्व और आप तो उलटा चलते हैं। पूजा उपासना को जीवन से दूर रखना चाहते हैं। बिजली के पॉजिटिव और निगेटिव दोनों तारों को अलग-अलग रखना चाहते हैं तो उनके अंदर करेण्ट कैसे आयेगा। उपासना में त्याग की बात सिखाई जाती है और आप भोग की बात कहते हैं। योग भावनात्मक है, क्रियापरक नहीं। योग में जहाँ लोभ और मोह के ऊपर अंकुश लगाना पड़ता है वहाँ आप उसी की पूर्ति करना चाहते हैं। आप उलटा चलते हैं। मैं आपके विचारों में क्राँति लाना चाहता हूँ न केवल आध्यात्मिक क्षेत्र में, वरन् सामाजिक क्षेत्र में व्यवस्था के क्षेत्र एवं भावनात्मक क्षेत्र में, वरन् सामाजिक क्षेत्र में, व्यवस्था के क्षेत्र एवं भावात्मक क्षेत्र में भी क्राँति लाना चाहता हूँ। मैं चाहता हूँ कि यह गायत्री जयंती के पुनीत पर्व पर आप भी अपने मन की सफाई कर ले जाइये, ब्रेनवाश कर ले जाइये, दिशा लेकर जाइये और उस वास्तविकता को जानकर जाइये कि जहाँ से चमत्कार उत्पन्न होते हैं, सिद्धियाँ उत्पन्न होती हैं।

हमारे जीवन में ऐसा ही हुआ। 24 साल तक उपासना करता रहा और सिर्फ जौ की रोटी और छाछ खाता रहा अपनी जीभ को धोते रहने के लिए। इसलिए कि जिस जीभ से मुझे मंत्रों का उच्चारण करना है, आशीर्वाद देने है, उपदेश देने है, लोगों को सलाह देनी है उस जीभ को जरा पैनी तो कर लूँ, फौलाद की तो बना लूँ। इसलिए मैंने अपनी जीभ से जद्दोजेहद की है। हमने प्रत्येक के ऊपर संयम किया है हमने समय के ऊपर, विचारों के ऊपर और अपने पैसे के ऊपर संयम किया है। हमने किसी का खाया नहीं-खिलाया है। हमने अपने आपसे जद्दोजेहद की है। पैसे के बारे में जद्दोजेहद, दिमाग के बारे में जद्दोजेहद, आचरण के बारे में जद्दोजेहद, समय के नियंत्रण के बारे में जद्दोजेहद किया है। हमारा मनोरंजन एक ही रहा है-भगवान का काम। हमारी भावना एक है, मन एक है, लक्ष्य एक है। हमारा प्रिय एक है और वह है हमारा भगवान। सोते हुए सपना दीखता है तो हमको भगवान का दीखता है। पूजा की कोठरी में बैठते हैं तो हमें चारों ओर भगवान की सुगंध आती है। जहाँ कहीं भी जाते और अपना दिल टटोल कर देखते हैं तो वहाँ भगवान धड़कता हुआ दिखाई पड़ता है। हमने भगवान को अनुभव किया है, पर आप तो देखने की फिराक में रहते हैं। क्या देखेंगे भगवान को? आँखों से मिट्टी देखी जाती है। मिट्टी के अलावा क्या किसी ने देखा है भगवान को? देखा किसी ने नहीं है, पर अनुभव किया है। हमने अपनी प्रत्येक गतिविधियों में, उद्देश्यों में, विचारों में भगवान को नाचते हुए-रास करते हुए देखा है, हमारी नियति और गतिविधियां अध्यात्म के सही तरीके खाती हैं। हम यह अनुभव करते हैं कि अध्यात्म के सही तरीके से हम नजदीक आये हैं और सही तरीके से फायदा उठाने में समर्थ हो गये हैं।

मित्रों! हमने क्या किया और क्या पाया पाने की बात मलम है आपको जिसे मैं हजार बार बता चुका हूँ। शरीर की बाबत बता चुका हूँ कि यह शरीर भगवान का है। हमने अपने शरीर को भगवान के हाथों बेच दिया है। अब यह हमारा नहीं, हमारे ‘बास’ का है। इसलिए उसको इसकी एक बार नहीं 99 बार रखवाली करनी पड़ेगी। हमने अपनी अकल भगवान को बेच दी है। अब यह भगवान की जिम्मेदारी है कि अकल को सँभाले। आइन्स्टीन के दिमाग के बारे में पहले ही 10 लाख डॉलर के बीमे कराये गये थे कि मरणोपराँत उनका दिमाग निकाल लिया जायेगा और रिसर्च लैबोरेटरी में यह खोजबीन की जायेगी कि उनका इतना शानदार दिमाग किस तरीके से हो गया है। अपने बारे में अभी तो मैं कुछ नहीं बताता पर पीछे देख लेना हमारे दिमाग के बारे में। हमने ऐसी-ऐसी अजीब कल्पनायें की हैं कि सारे विश्व के 450 करोड़ मनुष्य तराजू के एक पलड़े पर और हमारा बाट एक पलड़े पर। हम जमीन पर रहने वाले 450 करोड़ मनुष्यों के भाग्य को बदल डालने का दावा करते हैं। उनको हैरानी से बचा लेने का दावा करते हैं। आदमी के उज्ज्वल भविष्य की संरचना का दावा करे हैं और इन दिनों चल रही वे हवायें जिनसे एक-एक आदमी उलटा हो जाता है-इन हवाओं को-फिजाओं को मोड़-मरोड़ डालने का दावा करते हैं हम। हमारी सम्पदाओं-विभूतियों का अता-पता नहीं है, किसी को। हमारे पास बहुत सम्पदायें हैं और हमारी सेवाओं के बारे में जिसे हर आदमी जानता है कि गुरुजी के दरवाजे पर से कोई भी आदमी खाली नहीं गया है। यह हमारा शान है। इस शान को हम कायम रखेंगे। आपकी मनोकामनाओं के बारे में हमारी सहायता तो नहीं के बराबर है, लेकिन अगर आप सौ मन मुसीबत लेकर आये थे तो 25 मन मुसीबत हमने मिटा दी है। आपकी सौ फीसदी जरूरतें हम कहाँ से पूरी करेंगे, लेकिन हम यकीनपूर्वक कह सकते हैं कि ईमानदारी के साथ अपनी सामर्थ्य के अनुसार हमने हर आदमी को पूरा-पूरा फायदा पहुँचाया है। मित्रो! यह हमारे चमत्कार हैं जिसे आप जानते हैं और जो नहीं जानते, उन बहुत-सी बातों को हमने छिपा कर रखी हैं। छिपाकर रखी गयी बातों को जानने के लिए उस समय तक इंतजार करना पड़ेगा। आपको जब तक हमारा शरीर जिंदा है। सबूत हमने सब जमाकर रखे हैं। हमने कहा है कि आदमी के पाँच शरीर होते हैं और हम पाँच शरीरों से काम करते रहे हैं। हमारे जाने के बाद आप देख लेना कि आचार्य जी एक नहीं-पाँच शरीरों से काम करते रहे हैं, और बहुत-सी बातें हैं जो हमने सब छिपाकर रखी हैं। आप देख लेना वे चमत्कार जिन्हें रहस्य कहते हैं, जादू कहते हैं, अतीन्द्रिय क्षमतायें कहते हैं, वे सब भी हमारे पास हैं।

गायत्री को त्रिपदा कहते हैं। इसकी व्याख्या सत्यम्-शिवम्-सुन्दरम् के रूप में, सरस्वती, काली-लक्ष्मी के रूप में, ब्रह्म-विष्णु-महेश के रूप में सच्चिदानन्द के रूप में की जाती है। यह उसका दर्शन पक्ष है। दर्शन और प्रयोग-कर्मकाण्ड पढ़ना हो तो ‘गायत्री महाविज्ञान’ में हमने सब कुछ लिख दिया है, पढ़ लीजिये। और भी कर्मकाण्डों को देखना हो तो आद्यशंकराचार्य की ‘गायत्री पुरश्चरण पद्धति’ तथा देवी भागवत पढ़िये। पर जो बात मैं बताना चाहता हूँ वह सिर्फ एक है कि आदमी के जीवन में गायत्री का समावेश कैसे हो? आदमी के जीवन में गायत्री का समावेश कैसे हो? अध्यात्म थ्योरी में नहीं व्यक्तित्व में होना चाहिए और व्यक्तित्व थ्योरी में नहीं रहता, वह आदमी के साथ घुला रहता है। हमारे साथ व्यक्तित्व घुला हुआ है। अध्यात्म हमारे मस्तिष्क में नस-नाड़ियों में, क्रिया–कलापों में, गतिविधियों में, चिन्तन में-सबमें घुला हुआ है। हमारे तीन शरीर हैं, आपके भी तीन शरीर हैं। एक है हमारा कारण शरीर जिसको अन्तरात्मा या अन्तःकरण कहते हैं। उससे हमने उपासना की है, मस्तिष्क से साधना और शरीर से आराधना की है।

उपासना कहते हैं नजदीक आने को। लकड़ी और आग जब नजदीक आ जाते हैं तब लकड़ी आग हो जाती है। हमने अपने आपको भगवान् के लिए समर्पित किया है और कहा है कि हमारी शक्तियाँ आपकी हैं। हमारा धन आपका है। हमारी अकल आपकी है। आप हुकुम दीजिये कि हमें क्या करना चाहिए? उपासना इसी चीज का नाम है और कोई उपासना नहीं होती यह विशुद्ध रूप से विचारपरक है, भावनापरक है, आस्थापरक है, निष्ठापरक है और श्रद्धा परक है। हमारी उपासना एक है-समर्पण की, श्रद्धा की, हमने नाले की तरीके से अपने आपको नदी के साथ में मिला दिया है और उसमें मिल जाने की वजह से हमारी हैसियत, हमारी औकात, हमारी शक्ति और हमारा स्वरूप नदी जैसा बन गया है। आप भी अपने आपको मिलाइये न और भगवान से कहिए न कि आप हुकुम कीजिए-आज्ञा कीजिए और हम चलेंगे। हमारी उपासना हमारे ऊपर इसी रूप में छायी रही है। उपासना की निष्ठा को जीवन में हमने उसी तरीके से घोलकर रखा है जैसे एक पतिव्रता स्त्री अपने पति के प्रति निष्ठावान रहती है और कहती है-”सपनेहु आप पुरुष जग नाही।” आपके पूजा की चौकी पर तो कितने बैठे हुए हैं। ऐसी निष्ठा होती है कोई? एक से श्रद्धा नहीं बनेगी क्या? मित्रों! हमारे भीतर श्रद्धा है। हमने एक का पल्ला पकड़ लिया है और सारे जीवनभर उसी का पल्ला पकड़े रहेंगे। हमारा प्रियतम कितना अच्छा है। उससे अधिक रूपवान, सौंदर्यवान, दयालु और सम्पत्तिवान और कोई हो नहीं सकता। हमारा वाही सब कुछ है वही हमारा भगवान है। आप ऐसी निष्ठा पैदा नहीं करेंगे क्या? उपासना इसी को कहते हैं जिसमें समर्पण की भावना हो-माँगने की नहीं देने की भावना हो। जवान औरत आती है और अपना ईमान, अपना मन, अपनी भावना, अपना शरीर, अपना गोत्र, वंश सब पति के हाथ पर रख देती है। हमने भी सब कुछ रख दिया है अपने पति के हाथ पर और कहा है कि हम आपके हैं और आपके होकर के रहेंगे। आपके अलावा हमारा कौन है और हम किसके-नजदीक जायेंगे। किसका पल्ला पकड़ेंगे। आपका कहना नहीं मानेंगे तो किसका मानेंगे। आप ही हमारे हैं और हम आपके हैं। मित्रों! यह उपासना है हमारी जिसने हमारी अन्तरात्मा को भक्ति से भर दिया है। भक्ति कहते हैं समर्पण को। इसी को ‘अद्वैत’ कहते हैं, ‘एकत्व’ कहते हैं।

गायत्री उपासना का दूसरा स्वरूप है-साधना। साधना अपने आपको करने को कहते है। हमने अपने आपको कितना कसा है, शरीर को, इन्द्रियों को कितना कसा है। अपने व्यवहार को कितना कसा है। अपनी इच्छा-आकाँक्षाओं और महत्वाकाँक्षाओं को चूरा करके फेंक दिया है। अपने आप को धोने के लिए परिष्कृत करने के लिए हमने धोबी के तरीके से बेरहमी के साथ पीट-पीट कर धोया है और धुनिये के तरके से अपने आपको धुना है। क्या आप अपने आप से जद्दोजेहद नहीं करेंगे? अपने आप से लड़ेंगे नहीं क्या? गायत्री का चमत्कार देखने का अगर आपका मन है, वास्तविक रूप में गायत्री से मोहब्बत है तो आप साधना के लिए अमादा हो जाइये साधक बनिये। साधना भगवान की नहीं अपनी होती है। भगवान पर क्या चंदन चढ़ायेंगे, चावल चढ़ायेंगे, स्नान करायेंगे? भगवान पर रहम कीजिए। पहले अपनी गंदगी धोइये, अपने को स्नान कराइये। अपना तो कराते नहीं हैं स्नान-भगवान को और करायेंगे। अपने आपको धोइये-साधना इसी को कहते हैं।

मित्रों! हमने आराधना की है। आराधना उसे कहते हैं जिससे सेवा पूजा करनी पड़ती है। सेवा हमने भगवान की है। भगवान किसे कहते हैं? सिद्धान्तों को कहते हैं, आदर्शों को कहते हैं। उन खिलौनों को भगवान नहीं कहते जिनको आपने भगवान मान रखा है। वे तो हमारी ध्यान-धारण के लिए एक ‘मीडियम’ हैं। आदर्शों को भगवान कहते हैं जिसके तई हमारी गतिविधियाँ, हमारे पसीने का एक-एक चप्पा, समय का एक-एक कण लगा है। सत्प्रवृत्तियों के संवर्धन को-लोकमंगल को, संस्कृति की सेवा को आराधना कहते हैं। सूरज निकलने से लेकर डूबने एक हम बराबर भगवान के काम में लगे रहते हैं। यही हमारा भजन है, उपासना है, तप है और सेवा है। आपकी अन्तरात्मा को उछाल देने के लिए ही हमारी वाणी चलती है। जनता–जनार्दन को ऊँचा उछाल देने के लिए हमारी लेखनी चलती रहती है। हमारी गतिविधियों का चप्पा-चप्पा इसी के लिए चलता रहता है लोकहित के लिए जनता जनार्दन के लिए, सत्प्रवृत्तियों के संवर्धन के लिए हम बराबर 12 घण्टे काम करते हैं। यह हमारी आराधना है, मसक्कत है। हमारा श्रम है-साधन है। भौतिक सामर्थ्य जो कुछ भी है हमने आराधना में लगा दिया है, चिन्तन साधना में और अन्तःकरण उपासना में लगा दिया है। यह है चमत्कारों के स्रोत। आप इसको सुनना, नोट करके रखना और जहाँ तक संभव हो सके वहाँ तक चलना। भागना नहीं आता दौड़ना नहीं आता तो छोटे बच्चे की तरीके से दीवाल पकड़ कर गाड़ी के सहारे चलना सीखिये-एक कदम आगे बढ़िये। लोभ, मोह की हथकड़ी और बेड़ी को-जिसने आपको मजबूती से जकड़ रखा है-छोड़िये-थोड़ा ढीला करिये फिर देखिये आपको आगे बढ़ने का मौका मिलता है कि नहीं श्रेष्ठता की दिशा में, शालीनता की दृष्टि में, महानता की दिशा में एक कदम आगे बढ़ाइये। अपने बच्चों, संबंधियों मित्रों के प्रति हमने अपने कर्तव्य का पालन किया है। उनके लिए संस्कृति छोड़ी है, संस्कार छोड़े हैं, परम्परायें छोड़ी हैं और आप तो लालच करते हैं उनके लिए जमा करना चाहते हैं। जो हराम का खायेगा देख लेना उसका पेट फटेगा। पेट फटने का मतलब है-कुमार्गगामी, दुर्व्यसनी होना, हराम का पैसा किसी को भी नहीं फला है। हराम के पैसे ने आज तक किसी को भी निर्मल क्षीर नहीं बनाया है। वह अपनी दुर्गति कराकर रहेगा।

मित्रों! हमारे आध्यात्मिकता की यही निशानी है- एक हमारा पराक्रम-जिसमें हमने पुराने ढर्रे को-लोभ और लालच तो तोड़ने की कोशिश की है और दूसरा पराक्रम-जिसमें हमने आगे बढ़ने की कोशिश की है। इस तरह हम सिद्धान्तों की दिशा में, उद्देश्यों की दिशा में आगे बढ़ते चले गये और उनमें चमत्कार पाया। गायत्री माता बड़ी चमत्कारी है। इसमें सिद्धियों के जखीरे भरे पड़े हैं-साधनों के जखीरे भरे पड़े हैं और न जाने क्या-क्या भरा पड़ा है। गायत्री की महत्ता को मैं किस मुँह से कहूँ जिसमें आदमी भौतिक जीवन में समृद्ध हो जाता है और आध्यात्मिक जीवन में सुसंस्कृत हो जाता है। हमने आध्यात्मिक जीवन में सुसंस्कारिता पायी है और भौतिक जीवन में समृद्धि। यह समृद्धि हमारे काम आयी है और हमारे मित्र और कुटुम्बियों में से हर एक के काम आयी है। ऐसी समृद्धि आप नहीं इकट्ठी करेंगे क्या?

आज गायत्री जयंती के दिन मेरा भाव और मन था कि आपको अपने जीवन के रहस्य निश्चय और अपने विश्वासों को आपके सामने परदे की तरीके से खोल करके ही रहूँ-रहस्यों को बताऊँ। आपको चमत्कारों की दिशा में गायत्री माता का अनुग्रह प्राप्त करने की पूरी-पूरी छूट है, लेकिन इस दिशा में चलिये तो सही। धीरे चलिये, पर शुरुआत तो करिये। शुरुआत करने के लिए हमने प्रज्ञा अभियान चलाया है। इससे दुनिया का भला होगा कि नहीं, पर आपका जरूर भला हो जायेगा। आप अपने आप पर नियंत्रण करते और उदार बनाने में जरूर समर्थ हो जायेंगे। आप समर्थ हो गये तो दुनिया जरूर समर्थ हो जायेंगे। साँचे हमारी सही होंगे तो हम सैकड़ों खिलौने अच्छे ढालने में समर्थ हो सकेंगे। साँचे ही अगर ठीक न हो सकेंगे तो हम दुनिया को कैसे ढालेंगे? आप पहले अपने आपको बदल डालिये। हमने अपने आपको जितना बनाया है, भगवान हमें उसी हिसाब से अनुग्रह देते हुए चले गये। यही है हमारा रहस्य और यही है हमारी आत्मकथा। यही है हमारे सारे के सारे रहस्यों का उद्घाटन जो आज गायत्री जयंती के दिन हमने आप लोगों के सामने अपना जी खोलकर रख दिया है। आपको करना हो तो इसी तरीके से करना-न करना होता तो आपकी मर्जी। आपको खेल-खिलवाड़ पसंद है तो ठीक है बच्चों की तरीके से खेल-खिलवाड़ ही करते रहिए। इससे भी क्या हर्ज है। मनोरंजन ही सही, लेकिन आप लम्बी चीजें नहीं पा सकेंगे। लम्बी चीजें-महत्वपूर्ण चीजें पाने लिए भी जिसकी आज बहुत जरूरत है, आपको यही करना चाहिए। अब हम जगह खाली कर रहे है और आपको उस जगह पर बिठा रहे है और यह कहते हैं कि जैसी शानदार जिन्दगी हमने जी ली, चमत्कारों से भरी हुई जिन्दगी हमने जी ली। जैसे महिमा और गरिमा हमने प्राप्त करली, आपके लिए भी खुला हुआ है। जरा हिम्मत दिखाइये न- हम दावत देते है- आप आइये और जिस रास्ते पर हम चले है आप भी चलिए। जो हिम्मत हमने दिखाई है आप भी दिखाइये और इसी जीवन में धन्य और कृत-कृत हो जाइये। अपने आपको कृतकृत्य बना लीजिए और सारे समाज को धन्य बना दीजिए। ऐसा मौका फिर कभी पायेंगे क्या?

आज गायत्री जयंती के दिन मेरे मन के उद्गार यही थे जो मैंने आप लोगों के सामने पेश कर दिये-व्याख्यान के रूप में नहीं वरन् सिर्फ इसलिए कि आप इस पर विचार करें और गौर करने के बाद में ऐसे कदम बढ़ाये जैसे हमने अपने जीवन में बढ़ाये। इसी आशा के साथ आज हम आप लोगों को विदा करते हैं कि आप इन पर बार-बार विचार करेंगे और बार-बार यह कोशिश करेंगे कि इन सिद्धान्तों को जहाँ तक संभव हो वहाँ तक जीवन में उतारने की कोशिश करेंगे। आज की बात खत्म।

सर्वेभवन्तुसुखिनः सर्वेसन्तुनिरामयः। सर्वेभद्राणिपश्यन्तु माकश्चिद्दुखमाप्नुयात्।


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