प्राणयोग की उच्चतर सिद्धिदात्री साधनाएँ

May 1993

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‘प्राण’ हवा से-आक्सीजन से भी सूक्ष्म है। वह एक प्रकार की सचेतन बिजली है जो समूचे ब्रह्मांड में संव्याप्त है। प्राणी उसी के सहारे अपना अस्तित्व बनाये हुए हैं। उसका संतुलन बिगड़ते ही बलिष्ठ काया को भी तत्काल मृत्यु के मुख में जाना पड़ता है। प्राण का तात्पर्य है-जीवट, साहस, प्रतिभा, ओजस, तेजस् वर्चस्। यह जिसमें जितनी मात्रा में होता है, उसकी प्रखरता, तेजस्विता उसी अनुपात से उभरती है। महामानवों, सिद्ध पुरुषों में प्राणचेतना की बहुलता ही उनके प्रति आकर्षण का केन्द्र रहती है। दीर्घायुष्य इसी की देन है।

प्राणवान बनने के लिए लोक व्यवहार में भी कई उपाय हैं, पर अध्यात्म विज्ञान के अनुसार प्राण विद्या के सहारे ही इस क्षेत्र में बहुत कुछ प्राप्त किया जा सकता है। प्राण उपचार के प्राण-प्रयोग के कितने ही मार्ग है, जिनका संकेत प्रश्नोपनिषद् में सूक्ष्म विवेचना के साथ किया गया है। संक्षेप में वह साधना ‘प्राणायाम’ की प्रक्रिया द्वारा सधती है। विज्ञात प्राणायामों की संख्या चौरासी है। अविज्ञात इससे भी अधिक हो सकते हैं। अध्यात्मिक क्षेत्र में प्रगति करने, साधकों को प्राणवान बनाने के उद्देश्य से कुछ ऐसे निर्धारण चुने गये हैं जो सर्वसुलभ हैं और जिनके प्रयोग से लाभ तो बहुत हैं, किंतु कोई भूल रहने पर भी हानि होने की तनिक भी आशंका नहीं है।

यह तीन प्राणायाम हैं-(1)नाड़ीशोधन (2)प्राणाकर्षण और (3)सूर्यवेधन प्राणायाम। इन तीनों प्राणायामों में से एक ही साधक की स्थिति का पर्यवेक्षण करते हुए निर्धारित किया जाता है और उसे एक महीने तक नियत समय पर नियत विधि से करते रहना होता है। उसकी पद्धति, प्रक्रिया और विद्या निम्न प्रकार हैं-

(1)नाड़ीशोधन प्राणायामः-नाड़ीशोधन को एक प्रकार से आयुर्वेदोक्त पंचकर्म के समतुल्य माना जा सकता है। शारीरिक मलों के निष्कासन में वमन, विरेचन, स्वेदन, स्नेहन, नस्य के पाँच उपाय अपनाये जाते हैं और विभिन्न अवयवों से भरे हुए संचित मलों को निकाल बाहर किया जाता है। इसके उपराँत ही बलवर्धक रसायनें पूरी तरह काम करती हैं और प्रभाव दिखाती है। नाड़ीशोधन प्राणायाम का भी सूक्ष्म क्षेत्र में वहीं प्रभाव पड़ता है, पंचकर्मों से प्रत्यक्ष मल इंद्रिय छिद्रों से होकर कफ रूप में निकलते हैं। नाड़ी शोधन प्राणायाम में वही बात सूक्ष्म मलों, प्राणचेतना में घुले विकारों का निष्कासन करने के रूप में श्वसन क्रिया के माध्यम से संपन्न होती है, स्थूल एवं सूक्ष्म शरीर का परिशोधन होकर उनमें नवीन चेतना का संचार होता है। इस प्राण प्रयोग में तीन बार बांये नासिका से साँस खीचते और छोड़ते हुए नाभिचक्र में पूर्णिमा के चंद्रमा का शीतल ध्यान, तीन बार दाहिने नासिका छिद्र से साँस खींचते हुए सूर्य का उष्ण प्रकाश वाला ध्यान तथा आखिरी बार दोनों छिद्रों से साँस खींचते हुए मुख से प्रश्वास निकालने की प्रक्रिया संपादित की जाती है। इसका प्रयोग इस प्रकार है-

सर्वप्रथम स्वच्छ एवं कोलाहल रहित शाँत-एकाँत स्थान में पूर्वाभिमुख हो पालथी मारकर ध्यान मुद्रा में बैठा जाता है। इसमें दोनों हाथ घुटनों पर मेरुदण्ड सीधा एवं आंखें बंद कर ली जाती हैं। तदुपराँत दांये हाथ के अँगूठे से दांयी नासिका का छिद्र बंद कर बाँये से साँस खींचते हैं और उसे नाभिचक्र तक ले जाते हैं और ध्यान करते हैं कि नाभिस्थान में पूर्णिमा के चंद्रमा के समान शीतल प्रकाश विद्यमान है, साँस उसे स्पर्शकर स्वयं शीतल एवं प्रकाशवान बन रहा है अब इसी नासिका छिद्र से पूरी साँस बाहर निकाल देते हैं तथा थोड़ी देर तक श्वास रोककर बायीं ओर से ही इड़ानाड़ी के इस प्रयोग को तीन बार करते हैं। इसके बाद दांये नासिका छिद्र से इसी प्रकार पूरक, अंतःकुंभक, रेचक व बाह्यकुंभक करते हुए नाभिचक्र में चंद्रमा के स्थान पर स्वर्णिम सविता-सूर्य का ध्यान किया जाता है। भावना की जाती है कि नाभि स्थित सूर्य को छूकर लौटने वाली प्राणवायु पिंगला नाड़ी से होते हुए ऊष्मा और प्रकाश उत्पन्न कर रही है। इस क्रिया को भी तीन बार करना होता है। अंत में नासिका के दोनों छिद्र खोलकर एक बार में ही बाहर निकाल देते हैं। प्रारम्भिक अभ्यास में एक सप्ताह तक नित्य एक ही बार नाड़ी शोधन का अभ्यास में एक सप्ताह तक नित्य एक ही बार नाड़ी शोधन का अभ्यास करते हैं, पर पीछे धीरे-धीरे इसकी संख्या बढ़ायी जा सकती है।

(2)प्राणाकर्षण प्राणायाम-प्राणाकर्षण प्राणायाम में ब्रह्मांडव्यापी प्राण तत्व का अपने लिए जिस स्तर का प्राण आवश्यक होता है, उसे खींचा जाता है। प्राण की अनेक धारायें हैं। जिस प्रकार वायु में आक्सीजन, नाइट्रोजन, हाइड्रोजन, कार्बनडाइ आक्साइड आदि अनेकों रासायनिक सम्मिश्रण रहते हैं, उसी प्रकार संव्याप्त प्राण चेतना में भी ऐसे तत्व घुले हुए हैं जो विभिन्न स्तर के हैं और विभिन्न प्रकार के प्रयोजनों में प्रयुक्त होते हैं। उनमें से जिसको, जितनी मात्रा आवश्यक हो, उसे उसी अनुपात से खींचकर अपने किसी अंग विशेष में प्रतिष्ठापित किया जा सकता है। उनकी पद्धति एवं प्रक्रिया निम्न प्रकार है-

नाड़ीशोधन प्राणायाम की तरह ही इसमें भी पूर्व की ओर मुँह करके ध्यानमुद्रा में बैठा जाता है। भावनापूर्ण यह ध्यान किया जाता है कि अखिल आकाश प्राणतत्व से व्याप्त है। सूर्य के प्रकाश में चमकते बादलों की शक्ल के प्राण का उफान हमारे चारों ओर उमड़ता चला आ रहा है। नासिका के दोनों छिद्रों से श्वास खींचते हुए अब यह भावना करनी पड़ती है कि प्राणतत्व के उफनते हुए बादलों को हम अपने अंदर खींचकर अवशोषित अवधारित कर रहे हैं। यह प्राण हमारे विभिन्न अंग-अवयवों में प्रवेश कर रहा है। इस प्रक्रिया में जितनी देर आसानी से साँस रोकी जा सकती हो, भीतर रोके रहना चाहिए और यह भावना करनी चाहिए कि प्राणतत्व में सम्मिश्रित चैतन्य बल, तेज, साहस, पराक्रम, जीवट जैसे घटक हमारे अंग-प्रत्यंगों में स्थिर हो रहे हैं। इसके बाद साँस धीरे-धीरे बाहर निकाल देते हैं, साथ ही चिंतन करते हैं कि प्राण का सारा तत्व हमारे संपूर्ण काया के अंग प्रत्यंगों द्वारा पूरी तरह सोख लिया गया। अब थोड़ी देर तक बिना साँस के रहते हैं और भावना करते हैं कि जो दोष-दुर्गुण बाहर निकाले गये हैं, वे हममें बहुत दूर चले जा रहे हैं और उन्हें फिर से दुबारा अंदर प्रविष्ट नहीं होने देना है। इस पूरी प्रक्रिया को पाँच प्राणायामों तक ही सीमित रखा जाता है।

(3)सूर्यवेधन प्राणायामः ब्रह्म-प्राण को आत्म-प्राण के साथ संयुक्त करने के लिए उच्चस्तरीय प्राणयोग की आवश्यकता पड़ती है। सूर्यवेधन इसी स्तर का प्राणायाम है। इस प्राणायाम में ध्यान−धारणा को और भी अधिक गहरा बनाया जाता है एवं प्राण ऊर्जा को साँस द्वारा खींचकर इसे सूक्ष्म शरीर में प्रवेश कराया जाता है। इसमें प्रकाशपुँज को आर-पार करने की प्रक्रिया बनती है। चीरते हुए गुजरने में मध्यवर्ती ऊर्जा के साथ संपर्क बनता है और सतही प्रभाव के हलकापन में उलझे रहने के स्थान पर अंतराल में पायी जाने वाली प्रखरता के साथ जुड़ने की बात बनती है। सूर्य को इस विश्व कर प्राण माना गया है। सविता सचेतन प्राणऊर्जा का केन्द्र है। इस प्राणायाम की विधि संक्षेप में इस प्रकार हैं।

पूर्वाभिमुख, सरल पद्मासन या सुखासन, मेरुदण्ड सीधा, नेत्र आधे खुले, घुटनों पर दोनों हाथ। यह ध्यानमुद्रा है। बांये हाथ को मोड़कर उसकी हथेली पर दाहिने हाथ की कोहनी रखकर, दाहिने हाथ का अंगूठा दाहिने नासिका छिद्र पर, अनामिका अंगुलियों से बांये नथुने को बंद कर गहरी साँस खींची जाती है। यह साँस इतनी गहरी होनी चाहिए कि पेट फूल जाये, वह फेफड़े तक सीमित न रहे। उसके साथ ही गहनतापूर्वक ध्यान किया जाता है कि सविता का प्रकाश प्राण से मिलकर दांये नासिका छिद्र से पिंगला नाड़ी में होकर अपने सूक्ष्म शरीर में प्रवेश कर रहा है। जितनी देर तक सरलतापूर्वक साँस रुक सकती है उतनी देर तक रोके रखकर दोनों नथुने बंद करके यह ध्यान करते हैं कि नाभिचक्र के प्राण द्वारा एकत्रित यह तेज पुँज यहाँ अवस्थित चिरकाल से प्रसुप्त पड़े सूर्यचक्र को प्रकाशवान कर रहा है। वह निरंतर प्रकाशवान हो रहा है। अब बांये नथुने को खोल देते हैं और भावना करते हैं कि सूर्य चक्र को सतत् घेरे रहने वाले, धुँधला बनाने वाले कषाय-कल्मष छोड़ी हुई साँस के साथ बाहर निकल रहा हैं। इसके उपराँत दोनों नथुने फिर बंद करके फेफड़ों को बिना साँस खाली रखा जाता है, साथ ही भावना करनी पड़ती है कि नाभिचक्र में एकत्रित प्राण तेज सारे अन्तःप्रदेश को प्रकाशवान बना रहा है। सर्वत्र तेजस्विता व्याप्त हो रही है। यही प्रक्रिया फिर बांये नथुने से साँस खींचते व रोककर दांये नथुने से बाहर फेंकते हुए दुहरायी जाती है और साथ ही साथ भावना भी उसी प्रकार की जाती है जैसा कि ऊपर वर्णित है। यह पूरी प्रक्रिया एक लोम-विलोम सूर्यवेधन प्राणायाम की हुई। इसे एक प्रकार का दधिमंथन समझा जा सकता है जिससे स्तब्धता में हलचल उत्पन्न होती है। प्रसुप्त को जाग्रत किया जाता है। समुद्रमंथन से जिस प्रकार 14 रत्न निकले थे, उसी प्रकार भौतिक सिद्धियों एवं आत्मिक विभूतियों के भाण्डागार हाथ लगने जैसी आशा इस आधार पर की जा सकती है।


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