धुल गया है प्राण में विष, पर कहीं हैं अमृतकण भी। आजकल तो बस यही, एहसास जीवन दे रहा है॥
“नेति-नेति” कहा गया व अगम अगोचन भी बने तुम। “व्याप्त कण-कण में हो” यह विश्वास जीवन दे रहा है॥
इस जगत की गंध ने तो, कर दिया मस्तिष्क ही क्षत। किन्तु नंदन का मलय वातास, जीवन दे रहा है॥
हो भले आकाश में पाताल में, बैकुँठ में तुम। “उर गुहा में हो” यही आभास जीवन दे रहा है॥
शेष सांसें कालक्रम की, क्रामिक गिनती मात्र ही थीं। लिख जिस पर “राम” वह निःश्वास जीवन दे रहा है॥
इस जगत की हलचलों ने, कष्ट और दुख ही दिया है। आत्म और परमात्म-तत्वी, रास जीवन दे रहा है॥
रात के तम ने अनेकों, भाँति प्राणों को छला था। उदित सविता का पवित्र उजास, जीवन दे रहा है॥
-माया वर्मा