विज्ञान मुहर लगाता है, इन चमत्कारी सिद्धियों पर

May 1993

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सन् 1860 का मध्याह्न। द्वारिका नदी के तट पर स्थित तारापुर (पं. बंगाल) के श्मशान में शाल्मली वृक्ष की शीतल छाया में ध्यानस्थ अघोरी सन्त के समक्ष एक अधेड़ आयु का व्यक्ति कातर स्वर में मनुहार कर रहा था-’बाबा हमारा पुत्र मरणासन्न है। चिकित्सकों ने जवाब दे दिया है। वह कुछ घण्टों का मेहमान है। अब आप ही कृपा कीजिए, उसे बचा लीजिए, अन्यथा मैं लुट जाऊँगा, कहीं का न रहूँगा......।’ वह गिड़गिड़ाते चला जा रहा था और नेत्र पावस की तरह उमड़ रहे थे। करीब पंद्रह-बीस मिनट के उपरान्त ‘क्षेपा’(पागल) उपनाम से प्रसिद्ध सन्त वामाचरण की आँखें खुली। वे कुछ क्षण तक याचक की आँखों में आंखें डाले देखते रहे तत्पश्चात् श्मशान की मिट्टी उठायी। कुछ पल उसे मुट्ठी में बन्द रखी, फिर शोकाकुल व्यक्ति की ओर बढ़ाते हुए कहा-’बालक को इसे खिला देना, स्वस्थ हो जायेगा।’बंगाली ने हाथ बढ़ा कर उसे ग्रहण किया तो चकित रह गया। मृत्तिका पेड़े के टुकड़े में परिवर्तित हो चुकी थी। उसने गदगद हृदय से सन्त को साष्टांग प्रणिपात किया और चला गया।

यहाँ प्रतिपाद्य विषय पदार्थ-परिवर्तन की वह घटना है, जो अक्सर सिद्ध-सन्तों के अलौकिक प्रसंगों में दिखाई पड़ती और चर्चा का विषय बनती है। श्रद्धालु लोग ऐसे प्रकरणों को सिद्धि चमत्कारों आदि नामों से पुकारते हैं, तो तर्कशील मस्तिष्क उसमें संशय की गुंजाइश से सर्वथा इन्कार नहीं करते। उनका एक ही तर्क होता है कि पदार्थ का परिवर्तन और उनके उपादानों का रूपांतरण कैसे सम्भव है? यह कैसे शक्य है कि मिट्ठी मिष्ठान हो जाये और शीश, सुवर्ण में बदल जाये? किन्तु यत्र-तत्र जब वे ऐसे कौशल देखते तो उनका संदेहशील मन पुनः असमंजस में पड़ जाता और सोचने लगता है कि इसे क्या कहा जाय-सत्य? असत्य? दृष्टिभ्रम? या हस्तलाघव? निर्णय न कर पाने की स्थिति में सत्यता की परख अधूरी रह जाती है और उधेड़ बुन ज्यों कि त्यों बनी रहती है।

यहाँ एक प्रश्न अंतस् में बार-बार उभरता है कि आखिर इन दिनों मन इतना शंकाशील क्यों हो गया है? वह बात-बात में हर चीज का प्रमाण क्यों खोजता फिरता है? और न मिलने पर क्यों उसे अमान्य ठहराने की कोशिश करता है। इसका एक उत्तर यह दिया जा सकता है कि यह सब प्रत्यक्षवाद की देन है। उसने पिछले कुछ वर्षों में मानसिक-संरचना में इस कदर बदलाव उपस्थित कर दिया है कि अब वह ‘बाबा वाक्यं प्रमाणं?’ की जगह ‘प्रत्यक्षं किं प्रमाणं?’ पर ज्यादा विश्वास करने लगा है और जहाँ पुष्टि के लिए प्रमाण की माँग की जा रही है हो वहाँ इससे कम में भरोसा भी कैसे दिलाया जाय? दूसरे योग का वर्तमान समय में इतना प्रचार-प्रसार हुआ है कि धूर्तों को इससे अनुचित लाभ उठाने और भोले-भावुकों की जेबें खाली करने का अच्छा अवसर मिल गया है। ये जगह-जगह नुक्कड़-चौराहों पर योग के नाम पर मायाचार रचते और स्वयं को सिद्ध स्तर का योगी साबित करने का प्रपंच अपनाते देखे जाते हैं। इस क्रम में जब उनकी पोल खुलती और हाथ की सफाई पकड़ी जाती तो न सिर्फ उनकी निन्दा-भर्त्सना होती, वरन् योग विज्ञान जैसी प्रमाणिक विद्या से भी जन सामान्य का विश्वास उठने लगता है। एक तीसरा कारण इसका यह हो सकता है कि आजकल सच्चे योगी नहीं के बराबर रह गये हैं। जो हैं वे अपनी सिद्धियों का सार्वजनिक प्रदर्शन कर विज्ञान की चुनौती को स्वीकार करने के लिए सहमत नहीं होते। ऐसी स्थिति में दुविधा का निवारण कैसे हो? शंका का समुचित समाधान न हो पाने के कारण संशय यथावत् रह जाता है।

इन्हीं सब कारणों से प्रत्यक्षवाद को आज सबसे प्रमाणिक और प्रतिष्ठित माना जाने लगा है, इतने भरे से यह नहीं भुला दिया जाना चाहिए कि साक्ष्य की अनुपस्थिति मात्र से ही किसी का अस्तित्व अमान्य नहीं हो जाता। उदाहरण के लिए ईश्वर को लिया जा सकता है। वह एक निराकार चेतन सत्ता है। उसे सिद्ध कर पाना न तो प्रत्यक्षवाद के लिए संभव है, न अध्यात्मवाद के लिए। उसका अनुमान भर लगाया जा सकता है। संभवतः इसी कारण से कपिल मुनि ने अपने दर्शन में मात्र इतना पर भी सच्चाई यह है कि उसकी सत्ता से इनकार ने तो अध्यात्म करता है न विज्ञान। अध्यात्म तो शुरू से ही यह कहता आया है कि हर वस्तु को लौकिकता के धरातल पर न तो पुष्ट किया जा सकता है न प्रमाणित। प्रसन्नता कि बात यह है कि विगत कुछ वर्षों में विज्ञान की भी तत्संबंधी मान्यता में बदलाव आया है और वह इसे मानने लगा है कि स्थूल यंत्रों के सहारे सूक्ष्म की सिद्धि एक सीमा तक ही संभव है इसके अतिरिक्त एक अन्य बात जो विज्ञान में दिखाई पड़ती है वह है, अनुमान का अवलंबन। इस आधार पर आरंभ में विज्ञान का हर सिद्धान्त कल्पना मात्र होता है। बाद में वह परिकल्पना बनता और फिर सत्य व सिद्धान्त के रूप में स्थापित होता है।

कुछ साल पहले तक ’टैकियोन’ कल्पित कण मात्र थे, पर हाल में उसके अस्तित्व की साक्षी ढूँढ़ ली गई। इस प्रकार प्रत्यक्षवाद पर आधारित पदार्थ विज्ञान भी कई बार परोक्ष का, अज्ञात अस्तित्व का अनुमान का सहारा लेकर अपना काम चलाता दिखाई पड़ता है। यों विचार किया जाय तो ज्ञात होगा कि उसमें अधिकाँश अनुसंधान ऐसे भी हुए हैं जो आरंभ में अनुमान थे और बहुत समय उपरान्त ही वे प्रमाणित हो सके। इस तरह यह कहा जा सकता है कि भौतिक विज्ञान की नींव भी अनुमान-प्रमाण पर ही खड़ी है, जबकि अध्यात्म विज्ञान तो प्रमाणों की श्रृंखला में प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान शब्द जैसे चार प्रकार के साक्ष्यों को प्रस्तुत करता और प्रत्येक को प्रत्यक्ष स्तर का ही प्रमाण मानता है।

अतः जनसामान्य को भी यह हठवादिता छोड़ देनी चाहिए कि किसी के प्रत्यक्ष प्रमाण मिलने या प्रक्रिया-सिद्धान्त समझने पर ही उसे सच माना जाय, अन्यथा झूठा-ढकोसला करार दे दिया जाय। यह संभव है कि बाद में विज्ञान ऐसे प्रकरणों को भी सत्य की कसौटी पर प्रत्यक्ष कर दे जैसा कि शुरू से उसका इतिहास रहा है, पर इसके लिए दीमक जैसे धैर्य और पुरुषार्थ की आवश्यकता है, जो पहाड़ जैसे कलेवर को भी खोखले करने में अद्भुत दृढ़ता का परिचय देती है।

जहाँ तक पदार्थ के रूपांतरण का सवाल है साधारण जन की यह दलील होती है कि ऊर्जा का रूपांतरण तो सुना-देखा जाता है, पर पदार्थ का रूपांतरण? यह किस भाँति संपन्न हो सकता है यही उसका एकमात्र असमंजस है। यहाँ ध्यान योग्य बात अँग्रेजी की वह कहावत है, जो एक बहुत बड़े दार्शनिक सत्य को प्रतिपादित करती है- ‘नथिंग कम्स आउटा ऑफ नथिंग’ अर्थात् शून्य से शून्य की ही उत्पत्ति होती है। दूसरे शब्दों में यह दार्शनिक तथ्य स्पष्ट उद्घोष करता है कि जहाँ कुछ है वहाँ उससे दूसरा कुछ भी पैदा कर सकना संभव है।

इसी आशय का मन्तव्य प्रकट करते हुए स्वामी

अभेदानन्द ने एक स्थान पर(अभेदानंद साहित्य में) लिखा है कि हर वस्तु में पूर्ण प्रकृति विद्यमान है।

ॐ पूर्णमदः पूर्णमिदं पूर्णात पूर्णमुदच्यते। पूर्णस्य पूर्णमादायु पूर्णमेवावशिष्यते॥

अर्थात् ब्रह्म पूर्ण है। उससे निष्पन्न होने के कारण यह संसार भी पूर्ण है। पूर्णत्व में से पूर्णता ले ली जाय, तो भी वह पूर्ण ही रहता है। लोहे का हम सोना बना लें या सोने को चाँदी में परिवर्तित कर दें, कोई अंतर नहीं पड़ता। उसकी पूर्णता ज्यों-की-त्यों बनी रहती है, क्योंकि वह भी प्रकृति का ही एक पदार्थ है और हर पदार्थ अपने में पूर्णता को पूर्ण प्रकृति को धारण किये हुए है। योग विज्ञान में इस प्रकार की सिद्धि अष्ट सिद्धियों की प्राप्ति श्रेणी के अंतर्गत आती है, जिसमें संकल्प शक्ति द्वारा किसी भी वस्तु को प्राप्त कर लेना अथवा एक को दूसरी में रूपांतरित कर देना संपन्न किया जाता है। आज यह प्रक्रिया भले ही अविश्वसनीय और भ्राँति जैसी लगती हो, किंतु है यह पूर्णतः विज्ञान समस्त और निभ्राँत। यदा-कदा इसके उदाहरण भी देखने को मिलते रहते हैं।

स्वामी विशुद्धानंद परमहंस प्रायः इस प्रकार के चमत्कार अपने शिष्यों को दिखाया करते थे, जिसकी चर्चा उनके प्रमुख शिष्य पंडित गोपीनाथ कविराज ने यत्र-तत्र अपने ग्रंथों में की है। एक बार क्वीन्स कालेज के फिजिक्स के प्राचार्य अभय चरण सान्याल की इच्छा पर विशुद्धानंद ने उनकी इच्छित वस्तु लाल रंग का ग्रेनाइट पत्थर रुई से सूर्य विज्ञान द्वारा उनके समक्ष विनिर्मित कर दिया तो चमत्कृत रह गये। उनका सारा संशय जाता रहा। ऐसे ही एक अन्य अवसर पर उनने अपने शिष्यों के सम्मुख गुड़हल फूल को गुलाब में परिवर्तित कर दिया था। वे कहा करते थे कि इस प्रकार का निर्माण न सिर्फ सूर्य विज्ञान द्वारा संभव है, वरन् दूसरे अनेक विज्ञानों यथा-चंद्र विज्ञान नक्षत्र विज्ञान, वायु विज्ञान द्वारा भी संभव है और योग विज्ञान द्वारा भी। वांछित पुष्प के सुगंध का सृजन तो वे स्पर्श मात्र से तत्काल कर देते थे और वह इतनी तीक्ष्ण और चिरस्थायी होती कि नहाने-धोने पर भी कई दिनों तक यथावत बनी रहती। नाथ संप्रदाय के महान योगी गंभीरनाथ के बारे में प्रसिद्ध है कि जब वे गया प्रवास के दौरान कपिलधारा नामक स्थान पर साधनारत थे, तो माधव लाल नामक एक व्यक्ति अपनी व्यथा-कथा लेकर उनके समक्ष उपस्थित हुआ और असाध्य लम्बी बीमारी का उल्लेख कर फूट-फूट कर रो पड़ा। योगिराज का मन करुणा से विगलित हो गया। उन्होंने कुछ क्षण रुक कर बगल के पौधे से एक पत्ती तोड़ी। हाथ हवा में लहराया और उसे खा लेने के लिए माधव लाल को दे दिया। माधव लाल यही समझ रहा था, कि वह पत्ती ही होगी, पर जब हाथ में लिया, तो उसे अत्यंत आश्चर्य हुआ। पत्ती पके अमरूद में बदल चुकी थी। उसके सेवन से वह रोगमुक्त हो गया।

शिरडी के साईं बाबा के बारे में प्रसिद्ध है कि एक बार उनके दीपक का तेल समाप्त हो गया। उन्होंने पास-पड़ोस के लोगों से इसकी याचना की, पर जब सभी ने देने से इंकार कर दिया, तो उन्होंने मस्जिद के दीपक में पानी भर दिया। पानी, तेल बन कर जलता रहा।

प्रख्यात संत बुल्ला साहब तब बुलाकीराम हलवाहे थे। वे बिल्कुल अनपढ़ थे और गाजीपुर जनपद के एक जमींदार गुलाल साहब के यहाँ खेती-बारी का काम करते थे। उनकी प्रकृति बड़ी अध्यात्मिक थी। काम करते हुए भी चित्त भगवद्-स्मरण में ही लगा रहता। एक दिन नित्य प्रति की तरह खेत में हल चलाने गये। दो घंटे पश्चात बैलों को कुछ आराम देने हेतु उन्हें हल में जुता छोड़ खेत में खड़ा कर दिया और स्वयं मेंड़ में बैठ ईश-चिंतन में लीन हो गये। इसी बीच गुलाल साहब आ पहुँचे। बुलाकीराम को गायब देख उन्होंने जोर-जोर की दो-तीन आवाजें लगायीं, पर बुलाकीराम ध्यान में इतने तल्लीन थे कि आवाज सुन न सके। जमींदार उन्हें कामचोर समझ कर आग बबूला हो उठे। नजदीक आये, तो पता चला बुलाकीराम मेंड़ पर विश्राम कर रहे हैं और समीप आने पर पता चला वह हाथ में पानी युक्त लोटा लिए आंखें बंद किये कुछ बुदबुदा रहे हैं। उन्हें हलवाहे की इस हरकत पर क्रोध आ गया और पीठ पर एक जोरदार लात जमायी। बुलाकीराम का ध्यान भंग हो गया। आघात खाकर लोटा हाथ से छिटक पड़ा और उससे दही का गिरना देख गुलाब साहब हतप्रभ रह गये। जब बुलाकीराम से इसका रहस्य जानना चाहा, तो उत्तर मिला कि वह थोड़ी देर के लिए सत्पुरुषों की सेवा में निमग्न हो गये थे। पत्तलों में सब कुछ परोसा जा चुका था। दही परोसने ही वाला था कि आपके प्रहार से ध्यान भंग हो गया और दही छलक पड़ा। पानी का दही बन जाना-इस घटना ने गुलाल साहब को अभिभूत कर दिया। वे हलवाले बुलाकीराम के चरणों में गिर पड़े और उन्हें अपना गुरु बना लिया।

इस तरह की अगणित घटनाएँ सिद्ध संतों के चरित्रों में आये दिन घटते देखी-सुनी जाती हैं, जिन पर अविश्वास करने का कोई कारण दीख नहीं पड़ता फिर भी संशयी मन का ऊहापोह यथावत् बना रहता है। यों भौतिक विज्ञान भी पदार्थ रूपांतरण की इस संभावना से सर्वथा इनकार नहीं करता। वह कहता है कि भी पदार्थ अपनी मूल सत्ता को मात्र अपनी निश्चित परमाणु-संख्या के कारण ही बनाये रहता है। यदि इस संख्या में किसी प्रकार फेर बदल कर पाना संभव हो, तो पदार्थों का रूपांतरण भी असंभव नहीं। उदाहरण के लिए लोहे के एक अणु में 26 परमाणु होते हैं। यदि इनकी संख्या को बढ़ा कर किसी भाँति 79 कर दिया जाय, तो फिर लोहा, लोहा न रह कर सोना बन जायेगा। इसी प्रकार यदि इस संख्या को घटाकर क्रमशः 25, 24, या 3 कर दिया जाय तो वह सर्वथा दूसरी वस्तु मैंगनीज, क्रोमियम, लिथियम बन जायेगा। यह और बात है कि भौतिकशास्त्र अब तक कोई ऐसी विद्या विकसित नहीं कर सका हैं जिससे पदार्थों के परमाणुओं को घटाना-बढ़ाना संभव हो सके। योगशास्त्र के पास ऐसी गूढ़ और सुनिश्चित प्रक्रिया है, जिसके द्वारा वह अशक्य लगने वाला यह कार्य संपादित कर लेता है, फलतः वस्तुओं का रूपांतरण संभव बन पड़ता है। प्राचीनकाल में कीमियागिरों को लोहा से सोना बनाने में कदाचित् कोई सफलता मिली हो, तो उसमें परमाणु संख्या की न्यूनाधिकता को ही जिम्मेदार ठहराया जा सकता है-ऐसा वैज्ञानिकों का सुनिश्चित मत है।

इस आधार पर यह कहा जा सकता है कि योग विज्ञान में वस्तु-रूपांतरण की जो घटनाएँ दिखायी पड़ती हैं, वह कोई कपोल-कल्पना, सम्मोहन अथवा हस्तकौशल न होकर पूर्णतः विज्ञान सम्मत प्रक्रिया है। संभव है आने वाले समय में पदार्थ विज्ञान भी ऐसी कोई विद्या विकसित कर ले, जिससे ऐसा कर पाना शक्य हो जाय।


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