“प्राणः प्रजानाँ उदयत्येष सूर्यः”

May 1993

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काया की छाया, स्थूल का सूक्ष्म, व्यक्त का अव्यक्त, दृश्य का अदृश्य, प्रत्यक्ष का परोक्ष पक्ष सर्वविदित है। ऐसे ही यह गोचर संसार यदि लौकिक है, तो इसकी एक अलौकिक सत्ता भी होनी चाहिए।

विज्ञान भले ही अभी ऐसे ग्यारह लोकों की कल्पना भर कर सका है, पर अध्यात्म विज्ञान में तो 14 लोकों की सुनिश्चित मान्यता है। इनमें से सात पृथ्वी के नीचे और छः ऊपर, सातवाँ पृथ्वी। इस प्रकार कुल चौदह लोक हुए। यहाँ तात्पर्य मात्र इतना भर बताना है कि हर पदार्थ की कम-से-कम एक सूक्ष्म सत्ता अवश्य होती है। इस जगत को आभा और ऊर्जा से अनुप्राणित करने वाला यह प्रकाशवान सूर्य भी ऐसा ही एक ग्रह है। योगी जन इसके सूक्ष्म अस्तित्व से सर्वथा इनकार नहीं करते।

यहाँ यह प्रश्न उठ सकता है कि क्या दृश्य के साथ अदृश्य की उपस्थिति संभव है?स्थूल सूर्य का कोई ऐसा कलेवर भी हो सकता है, जो अगोचर स्तर का व्यापक, विस्तृत एवं अधिक सामर्थ्यवान हो? उत्तर “हाँ” में दिया जा सकता है। शरीर की एक समरूप छाया होती है, इसे कदाचित ही कोई अस्वीकार करें। इनकार करने वाले प्रकाश की उपस्थिति में इसका स्पष्ट आभास प्राप्त कर सकते हैं, फिर भी यह सत्य है कि अँधेरे में इसका आपा अनुपस्थित जैसा बना रहता है। इतने पर भी यह नहीं कहा जा सकता कि वह मौजूद नहीं है। विद्यमान तो वह तब भी होती है। अन्तर मात्र इतना होता है कि अंधकार के कारण दिखाई नहीं पड़ती। गहन तमिस्रा में तो अपने ही शरीर के कई अंग-अवयव दृश्यमान नहीं होते, तो फिर सूक्ष्म स्तर की छाया भासमान कैसे हो? फिर भी जो इसका कारण चाहते हों, वे छाया-पुरुष के साधकों का उदाहरण ले सकते और यह देख सकते हैं कि किस प्रकार आवाहन मात्र से उनकी ही अनुकृति आज्ञानुवर्ती सेवक की तरह उनके इर्द-गिर्द डोलने लगती और आदेश मिलते ही क्षणमात्र में वह कार्य कर गुजरती है, जो शरीरधारी कर्ता के लिए शारद ही शक्य हो! ऐसे ही चमत्कार सिद्ध-सन्त अपने सूक्ष्म शरीरों से करते दृष्टिगोचर होते हैं। स्थूल सत्ता एक स्थान पर असमर्थ जैसे स्थिति में पड़ी रह कर जहाँ दीन-हीन साबित होती है, वहीं सशक्त सूक्ष्म शरीर अनेक स्थानों पर एक ही समय में ऐसे कौशल कर दिखाते हैं, जिन्हें अचंभा कहा जा सके। इससे दो बातें सिद्ध होती हैं। प्रथम तो पुरुष की एक छाया-पुरुष जैसी हूबहू अपने ही जैसी, सूक्ष्म प्रतिकृति होती है और दूसरे, वह अपनी अभिव्यक्त सत्ता से अधिक समर्थ होती है। विज्ञान भी अब न्यूनाधिक इसे स्वीकारने लगा है कि हर पदार्थ का अपना एक अव्यक्त अस्तित्व होता है।

प्रसिद्ध विज्ञान वेत्ता एवं प्रख्यात लेखक लायक वाट्सन ने अपनी बेष्ट सेलर कृति “सुपरनेचर” में लिखा है जब किर्लियन ने अपने अद्भुत कैमरे का आविष्कार किया, तो पहली बार पदार्थ विज्ञान से स्थूल से सूक्ष्म में प्रवेश कर उसकी सुनिश्चित पुष्टि की। मात्र पदार्थपरक अस्तित्व पर ही विश्वास करने वाले विज्ञानियों को हैरानी तब हुई, जब उनने उससे वृक्ष-वनस्पतियों, मनुष्यों एवं मानवेत्तर प्राणियों के चित्र उतारने शुरू किये। हर तस्वीर के चारों ओर उन्हें एक विस्तृत नीली आभा दिखाई पड़ी, जो बिल्कुल मूल वस्तु का ही आकार लिए रहती है। बाद में उसे आभामंडल, आँरा आदि कूल वस्तु के अव्यक्त अस्तित्व जैसे संबोधनों से संबोधित किया गया। अध्येताओं को आश्चर्य तब हुआ, जब उन्हें कटी पत्तियों में भी संपूर्ण पत्ते के चित्र प्राप्त हुए। उनका अनुमान था कि आधे पत्तों के अपूर्ण प्रभामंडल की प्राप्त होंगे, पर तथ्य उलटा ही हस्तगत हुआ। ऐसे ही एक अन्य अवसर पर एक कटी टाँग वाले व्यक्ति का किर्लियन फोटो लिया गया, तो उसमें टाँग का वह भाग भी वहाँ स्फूट मौजूद देखा गया, जिसे कभी पृथक कर दिया गया था। इससे उनकी यह भ्रान्ति मिट गई कि स्थूल अवयव के विनष्ट होने के साथ-साथ उसका सूक्ष्म वजूद भी समाप्त हो जाता है।

इसी मत समर्थन करते हुए डॉ. गोपीनाथ कविराज अपने “सूर्य विज्ञान रहस्य” में लिखते हैं कि पदार्थ का प्रवाह सदा भविष्य से वर्तमान, वर्तमान से भूत के क्रम में चलता है। जो वस्तु अभी नहीं है, जो कल्पना, जो घटना अभी अघटित है, वह अनागत के गर्भ में पल-पक रही है, फिर वह वर्तमान बनती है, तत्पश्चात् अतीत के, विस्मृति के क्रोड में समा जाती है, किन्तु फिर भी उनका अस्तित्व एकदम समाप्त नहीं हो जाता। जो होता है वह मात्र इतना है कि वह तिरोहित स्तर का बन जाता है, परन्तु रहता अवश्य है। दूसरे शब्दों में यह कहा जा सकता है कि अनादिकाल से अब तक जो-जो वस्तुएँ वजूद में आयी है, अथवा आने वाली हैं, प्रकृति में चिरकाल से अपना आपा सदा बनाये हुए हैं। विज्ञान अपने शोध-अनुसंधान के दौरान इन्हीं का अन्वेषण करता और सूक्ष्म से सूक्ष्मतर की ओर निरन्तर बढ़ता चलता है।

आकाश में चमकने वाला अपना सूर्य भी पदार्थपरक एक पिण्ड है। यों प्रत्यक्ष में तो वह प्रकाश और ऊष्मा बिखेरने वाला अग्नि का गोला भर प्रतीत होता है, पर वैज्ञानिक बताते हैं कि यदि यह जलता गोला किसी कारण नहीं होता, तो आज यह पृथ्वी आबाद नहीं होती। अतिशय दण्ड के कारण यहाँ बर्फ जमी रहती और रोशनी के अभाव में असा-निशा की-सी स्थिति होती। इस पुष्टि से यह दिनमान महत्वपूर्ण तो है, किन्तु इससे भी अधिक महत्वपूर्ण वह अंशुमाली है, जो इन चर्मचक्षुओं को दिखाई नहीं पड़ता और हृदयाकाश में सहस्रों रविओं से भी अधिक देदीप्यमान बनकर चमकता रहता है। योगी-यती इसी की झलक-झाँकी पाने के लिए योगरत रहते और जन्मों बिता देते हैं। यह वही सूक्ष्म सत्ता है, जिसकी स्थूल अभिव्यक्ति हम दृश्य जगत के अन्तरिक्ष में उदीयमान देखते हैं एवं जिसके बारे में श्रुति का उद्घोष है-”सूर्य आत्मा जमतस्तस्थुशस्च” अर्थात् यह सूर्य जगत की आत्मा है। यहाँ “सूर्य” शब्द से विश्व को प्रकाशित करने व आकाश में उगने वाले सूरज से किसी को अर्थ नहीं लगाना चाहिए और न यह भ्रम पालना चाहिए कि यही विश्वात्मा है। भला एक जगह अचल रहने वाला सर्वथा जड़ पदार्थ संसार की आत्मा कैसे हो सकता है? आत्मा तो सर्वव्यापी परमात्मा की अंशधर है। उसे तो वही गुण अपने में सँजोये रहना चाहिए, जो ईश्वर में है, पर वह तो चेतन भी नहीं फिर जगत की आत्मा किस भाँति को सकता है? दूसरी दृष्टि से विचार करें, तो आत्मसत्ता को शरीरसत्ता के साथ अविच्छिन्न रूप से जुड़ा रहना चाहिए-ऐसा प्रतीत होता और प्रत्यक्ष दिखाई पड़ता है। देखा गया है कि आत्मा के पृथक होते ही प्राणियों का प्राणान्त हो जाता व शरीर सड़ने-गलने लगता है। यदि इस दृश्य सूर्य को जगत की आत्मा मान लिया जाय, तो स्कैण्डिनेवियाई देशों में से नार्वे, स्वीडन आदि राष्ट्रों में कई ऐसे स्थान हैं, जहाँ तीन-तीन महीनों तक सूर्य के दर्शन नहीं होते। फिर भी वहाँ जनजीवन सामान्य बना रहता है। उक्त अवधारणा की आरे यदि श्रुति का आशय रहा होता, तो फिर वहाँ मरण का नग्न नृत्य ही दिखाई पड़ना चाहिए, किन्तु ऐसा दीखता कहाँ है? इससे स्पष्ट है कि आप्तजनों का आशय दृश्यमान दिवाकर से नहीं, वरन् उस चेतन सत्ता से है, जिसे “सविता” कहा गया है। यह बात आगे के सूत्र से और भी साफ हो जाती है-”प्राणः प्रजानाँ उदयत्येष सूर्यः” अर्थात् यह उदीयमान सूर्य ही जीवधारियों में प्राणशक्ति के रूप में प्रकट होता है। यदि यहाँ तात्पर्य जड़ जगत के सूर्य के आधिभौतिक रूप से लगाया गया, तो अनेक विसंगतियाँ उठ खड़ी होंगी, यथा-गर्मी और रोशनी विकीर्ण करने वाला स्थावर पिण्ड प्राण के रूप में प्राणियों में किस प्रकार प्रस्फुटित हो सकता है? अतः यह मान कर चलना ही बुद्धिमानी होगी कि जो स्वयं चेतन है, वही प्राण चेतना के रूप में अन्यत्र प्रकट हो सकता है। सविता में ही यह गुण है। इस प्रकार यहाँ भी संकेत उसी सूर्य से है, तो हर एक के अंतराकाश में उदीयमान है। श्रुति में इसी का समर्थन दूसरे प्रकार से यह कहकर दिया गया है-

सहस्ररश्मि शतधा वर्तमानः। प्राणः प्रजानामुदयंत्येष सूर्यः॥

अर्थात् प्राण ही सहस्र रश्मियों वाला सैकड़ों प्रकार से वर्तमान प्रजा को उत्पन्न करने वाला सूर्य है। इसी की ओर उँगली निर्देश करते हुए गीता में भगवान कहते हैं-”ज्योतिषाँ रविरंशुमान (10/21)”। ज्योतियों में मैं सूर्य हूँ। इसे ही यजुर्वेद में यों कहा गया है-”ब्रह्म सूर्य समं ज्योतिः (23/48)” अर्थात् ब्रह्म सूर्य-ज्योति के समतुल्य है। जिस तरह भौतिक दिनमान सम्पूर्ण संसार को प्रकाशित करता रहता है, उसी प्रकार चैतन्य सूर्य जिसको प्रायः “सविता” के नाम से पुकारा गया है, उसकी ज्योति से जगत का समस्त जड़ चेतन, कण-कण, अणु-अणु समान रूप से प्रकाशित हो रहा है। यह सविता-प्रकाश की ब्रह्म है। यही छान्दोग्य उपनिषद् का निर्देश है-

“आदित्यो ब्रह्मत्यादेशस्तस्यों पष्याख्यानम्” (3/19/1)

अर्थात् आदित्य ही ब्रह्म है। यह महर्षियों का आदेश है। इसमें परमेश्वर की सत्ता को समझने का उपदेश है।

सूर्य ब्रह्म कहलाने का अधिकारी तभी हो सकता है, जब उसकी सत्ता हर स्थिति और अवस्था में हर क्षण समूची दुनिया को अपनी आभा प्रदान कर रही हो, पर प्रत्यक्ष में ऐसा होता कहाँ दीखता है? आकाश में उगने वाला गोला तो रात्रि के पहर पूरी धरित्री को गहन तम में धकेल देता है। उस वक्त उसकी किरणों से वसुँधरा वंचित होती है, फिर उसे ब्रह्म कैसे कहा जाय? और जहाँ ब्रह्म का प्रकाश न हो, वहाँ यह सृष्टि और उसकी नियम-व्यवस्था बनती व चलती कैसे रह सकती है? क्योंकि जगती का निमित्त कारण तो वही है। फिर भी हम देखते हैं कि यहाँ सब कुछ नियमानुसार हो रहा है। इससे स्पष्ट है कि अध्यात्म क्षेत्र के आचार्यों का तात्पर्य उस महासूर्य से है, जिसके बाह्य दृष्टि से न दिखने वाले अनन्त गुना आलोक से यह ब्रह्मांड आलोकित है। गीता में इसी को और सरल शब्दों में निम्न प्रकार से निरूपित किया गया है-

दिवि सूर्यसहस्रस्य भवेद्युगपदुत्थिता यदि भाः सदृश्ी सा स्याद्मासस्तस्य महात्मनः (11/12)

अर्थात् अंतरिक्ष में हजार सूर्यों के एक साथ उदित होने से जो तेज पैदा होता है, वह भी उस ब्रह्मतेज के समान कदाचित ही होता है।

इस प्रकार यह प्रमाणित हो गया कि दृश्य सूर्य एवं आर्ष वाङ्मय में वर्णित सूर्य में जमीन-आसमान जितना अन्तर है। वस्तुतः यह लाल अग्नि पिण्ड ब्राह्मी-चेतना-सविता की ही स्थूल अभिव्यंजना है, इसमें दो मत नहीं। यहाँ शंकालु हृदय को यह संदेह हो सकता है कि जब जड़-चेतन रवि दो पृथक अस्तित्व हैं, तो फिर साधना-विधानों में जड़ दिनमान के आश्रय का क्या तुक है? ऐसे लोगों के समाधान के लिए इतना ही कहना पर्याप्त होगा कि मानवी मन इतना चलायमान है कि उसे स्थिर व एकाग्र करने के लिए दृश्य माध्यमों का सहारा लेना पड़ता है। जिसने निराकार ईश्वर को देखा नहीं, उसे साकार साधनों से काम चलाना पड़ता है, उन्हें ब्रह्म का मूर्तिमान प्रकाश मान कर चलना पड़ता है। इतने पर भी अंतिम लक्ष्य वह सर्वव्यापी तेजोमय ब्रह्म की उपलब्धि ही होती है। बालक जब छोटा होता है, तो उसे लकड़ी की तिपहिये गाड़ी से चलना सिखाया जाता है। बाद में जब उसके पैर लड़खड़ाने बन्द हो जाते और जमीन में स्थिर होकर टिकने लगते हैं, तो फिर उसकी आवश्यकता नहीं रह जाती है। वह अपनी टाँगों से ही बिना किसी सहायता के न सिर्फ चलने लगता है, अपितु दौड़ने-भागने में भी समर्थ हो जाता है।

साधना विज्ञान में इसी बात को ध्यान में रख कर जड़ के सहारे चेतन की ओर, व्यक्त के सहारे अव्यक्त की ओर निरन्तर बढ़ते चलने का प्रावधान है। हम दृश्य जगत में उगने वाले सूर्य का ध्यान तो करें, पर उसके पीछे उसकी चेतना को-ब्रह्मवर्चस को सविता को ग्रहण-धारण करने का ही प्रयास लक्ष्य मानें। स्थूल में न अटकें वरन् उसकी सूक्ष्म सत्ता तक पहुँचने का प्रयास करें-सूर्योपासना का यही तत्वदर्शन है। जो इसे समझ कर सविता के भर्ग को जितने अंशों में आत्मसात् करता हैं, उसकी सूर्योपासना-सविता साधना-गायत्री आराधना उसी अनुपात में सफल मानी जाती है।


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