बढ़ती आयु के साथ मेधा और प्रखर होती है

May 1993

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उपयोग और उपभोग का मोटा सिद्धाँत यह है कि इनसे वस्तुओं की क्षमता, योग्यता और आयु धीरे-धीरे घटती और फिर समाप्त हो जाती है। गाड़ी के पुर्जे लम्बे इस्तेमाल के उपराँत घिस जाने के कारण बदलने पड़ते हैं, तभी वह अपनी पुरानी क्षमता को प्राप्त कर पाती है। शरीर भी अधिक समय तक लगातार श्रम कहाँ कर पाता है? ज्यादा परिश्रम से उसमें थकान आती और विश्राम की आवश्यकता अनुभव की जाती है। थोड़े आराम के पश्चात जब उसकी क्लाँति समाप्त होती है, तभी उसके अंग-अवयव ताजगी महसूस करते और पुनः नये सिरे से नई स्फूर्ति के साथ काम में मुस्तैद होते हैं। यह उपयोग का सामान्य सिद्धाँत हुआ, पर इसे बिल्कुल ही अकाट्य नहीं माना जाना चाहिए। अपवाद यहां इस क्षेत्र में भी मौजूद हैं, जो दैनिक जीवन में सर्वत्र देखे जाते हैं।

बुराइयाँ अभ्यास और आदत के कारण ही उपजती और व्यक्ति के जीवन में कुकुरमुत्तों की तरह पलती-पनपती रहती है। कुकुरमुत्तों का यह स्वभाव होता है कि वे तनिक-सी नमी पाते ही उग पड़ते और बरसाती दिनों में अपनी उपस्थिति से जल-जंगल एक कर देते हैं। ऐसे ही अवाँछनीयताएँ आरंभ में अपना स्थान ढूँढ़ती और कमजोर स्थल पाते ही वहाँ फूट पड़ती है। एक बार जगह मिल जाने के बाद फिर वे अपनी जड़े जमाना आरंभ करती हैं। आचरण में उतरने के उपराँत धीरे-धीरे वे परिपक्व व पुष्ट होने लगती हैं और अन्ततः जीवन का अभिन्न अंग बन जाती हैं। शराबी, जुआरी और व्यभिचारी इसी कारण से इनसे जीवन भर उबर नहीं पाते। जो उबरते हैं उनकी अद्भुत संकल्प शक्ति ही इसमें सहायक होती है, अन्यथा व्यसनी मन और पापी तन की जोड़ी उन्हें कुटेव की कीचड़ से बाहर निकलने का मौका ही नहीं देती। जो निकलते हैं उनकी संख्या भी इतनी स्वल्प होती है, जिसे नगण्य जितना ही माना जा सकता है। खिलाड़ी यदि नियमित रूप से अभ्यास न करें, तो वह राष्ट्रीय स्तर तो क्या, स्थानीय स्तर के मुकाबले में भी हारते और पदक गँवाते देखे जाते हैं। पहलवानों, साहित्यकारों, संगीतज्ञों, वक्ताओं, विद्यार्थियों सभी के साथ यही बात समान रूप से लागू होती है कि दैनिक अभ्यास से योग्यता और क्षमता में अभिवृद्धि होती है। शरीर के संदर्भ में भी सच्चाई यही है कि नियमित श्रम करने से उसके सारे तंत्र सक्षम और मजबूत बने रहते हैं। लगातार श्रम करने से उनमें थकावट आती है, यह सत्य है, पर मिथ्या भी नहीं है कि यदि उसे यों ही निठल्ला पड़ा रहने दिया जाय, जो जंग लगे चाकू की-सी स्थिति पैदा हो जाती है और फिर वह किसी काम का नहीं रह जाता। इसी तथ्य की पुष्टि मस्तिष्कीय क्षमता के संबंध में अधुनातन शोधों ने की है। इस बारे में अब तक की मान्यता थी कि आयुष्य के साथ-साथ व्यक्ति की उस क्षमता का ह्रास होने लगता है, जिसकी अपूर्व सामर्थ्य का उपयोग कर यौवन में उसने स्वयं को असाधारण सिद्ध किया था, किन्तु शरीर-शास्त्रियों का कहना है कि शरीर के अन्य अंग-अवयवों के साथ यह बात लागू हो सकती है, परन्तु मस्तिष्क और उसकी सामर्थ्य के बारे में यह धारणा नितान्त गलत है कि उपयोग और उम्र का दुष्प्रभाव उसकी असाधारणता पर पड़ता है। यह दावा किया है कैलीफोर्निया यूनिवर्सिटी की शरीर विज्ञानी मेरियन डायमण्ड ने। अनेक वर्षों तक मानवी मस्तिष्क और उसकी क्रियाशीलता का अध्ययन करने के पश्चात् उनका कहना था कि नियमित मानसिक श्रम दिमाग को बुढ़ापे में भी जवान जैसी स्थिति में बनाये रहता है और उसकी क्षमता कलाकारों की भाँति निरंतर निखरती और बढ़ती ही चलती है।

उक्त निष्कर्ष पर पहुँचने से पूर्व उनने इस आशय के अनेक प्रयोग-परीक्षण चूहों पर किये। जब डायमण्ड और उनके सहयोगियों ने चूहों को पिंजड़ों में बन्द रखने की तुलना में उन्हें दूसरे चूहों को पिंजड़ों में बन्द रखने की तुलना में उन्हें दूसरे चूहों के साथ ऐसे वातावरण में रखा, जहाँ उनके खेलने की अनेकानेक वस्तुएँ थी, ऐसी वस्तुएँ जिनके प्रयोग से उनकी दिमागी क्षमता का उपयोग होता हो। ऐसी स्थिति में उनने जो कुछ देखा उससे वे हतप्रभ रह गये। शोधकर्ताओं का कहना था कि इस प्रयोग के बाद चूहों के कॉर्टेक्स की केमिस्ट्री और संरचना में स्पष्ट परिवर्तन परिलक्षित हुए। शोधकर्मियों ने देखा कि कोर्टिकल पर्त की प्रत्येक न्यूरान आकार-प्रकार में पहले से कई गुनी बड़ी हो गई थी। इसके अतिरिक्त जो एक अन्य विशेषता देखी गई, वह यह थी कि हर एक तंत्रिका कोशिका से जुड़ी रहने वाली सहायक कोशिकाओं (ग्लायल सेल्स) की संख्या में वृद्धि हो गई थी। इसके परिणाम स्वरूप इन चूहों की क्षमताओं में स्फुट अभिवृद्धि दृष्टिगोचर हुई। अन्य चूहों की तुलना में से वैसे कार्य अधिक दक्षता और चतुरतापूर्वक करते पाये गये, जो दूसरों के लिए ज्यादा कठिन और कष्टसाध्य प्रतीत होते थे।

ऐसे ही प्रयोग उन चूहों पर दोहराये गये, जिनकी उम्र 766 दिन थी। अनुसंधान दल के वैज्ञानिकों का कहना था कि चूकों की यह वय शारीरिक क्रियाशीलता की दृष्टि से मनुष्य के 76 वर्ष के बराबर मानी जा सकती है। विशेषज्ञ-दल का कहना था कि उपरोक्त प्रयोग के परिणाम बूढ़े चूहों पर भी पहले ही जैसे दृष्टिगत हुए, अर्थात् उनकी भी मस्तिष्कीय-संरचना में वही बदलाव पाये गये जो जवान चूहों में देखे गये थे। इस प्रकार प्रो. डायमण्ड और उनके साथियों ने यह साबित कर दिया कि आयुष्य का मस्तिष्क पर पड़ने वाला दुष्प्रभाव न सिर्फ भ्रामक है, वरन् गलत भी है। उनके अनुसार दिमाग अपनी सक्रियता-निष्क्रियता के अनुरूप ही प्रखरता का प्रदर्शन करता है, बढ़ती वय से उसका कोई लेना-देना नहीं।

उल्लेखनीय है कि आइंस्टीन-मस्तिष्क पर किया गया अध्ययन भी उपरोक्त तथ्य की ही पुष्टि करता है। न्यूरोलॉजिस्टों ने मृत्यु उपरान्त निकाले गये उनके सम्पूर्ण दिमाग की सूक्ष्मतापूर्वक जब जाँच-पड़ताल की, तो एक ही परिप्रेक्ष्य में उनका वह अंग अन्यों की तुलना में अलग पाया गया। उनमें हर न्यूरान के लिए ग्लायलसेलों की जो सामान्य संख्या होती है, वह अधिक थी। इसके अतिरिक्त कॉर्टेकल के अनेक न्यूरान का आकार-प्रकार साधारण मस्तिष्क के अपेक्षा बड़ा था। दूसरों शब्दों में उनका कार्टिकल पर्त अन्यों से कहीं अधिक मोटा था। ध्यान देने योग्य बात यह भी हैं कि वे अपने आरंभिक जीवन में फिसड्डी किस्म के विद्यार्थी थे। इसके लिए उन्हें प्रायः अभिभावकों की डाँट-फटकार सुननी पड़ती थी। यह संभव है कि इससे तंग आकर उनने कुछ कर गुजरने के निमित्त बाद में पढ़ाई में अधिकाधिक ध्यान देना प्रारंभ किया हो, जिससे लगातार दिमागी दबाव व क्रियाशीलता के कारण उनकी मस्तिष्कीय-संरचना में परिवर्तन आना शुरू हो गया हो, जिसकी उपलब्धि उनके उत्तरार्ध जीवन में सापेक्षवाद के ऐसे सिद्धान्त के रूप में हुई जिसने उन्हें विश्व-प्रसिद्ध बना दिया। उनके उक्त सिद्धान्त के बारे में प्रचलित है कि वह इतना दुरूह है कि अब तक उसे विश्व के मात्र तीन ही विज्ञानवेत्ता

भलीभाँति समझ पाये हैं, जिनमें से एक वे स्वयं थे।

अस्तु किसी को अब यह असमंजस करने की जरूरत नहीं कि बढ़ती आयु के साथ दिमागी प्रखरता घटती है। फिर भी जिन्हें ऐसा प्रतीत होता हो, उन्हें यही मानकर संतोष कर लेना चाहिए कि शारीरिक निष्क्रियता के कारण बरते जाने वाले मानसिक निठल्लेपन की ही यह परिणति है। सुन्दर सजा बँगला भी जब सर्वथा खाली पड़ा रहता है, तो वह चमगादड़ों अबाबीलों और उल्लुओं का डेरा बनकर रह जाता है। उसकी सुसज्जा तो मारी ही जाती है, बिना साफ-सफाई किये वह किसी प्रकार रहने लायक भी नहीं रह जाता। यही बात कपड़े के संबंध में है। उसकी जितनी धुलाई की जाती है, रंग उतना ही चोखा और चटक चढ़ता है। कमरे के फर्श की सफाई जितनी बार जितनी अधिक होती है, उतनी ही उसकी चमक में निखार आता है। फिर कोई कारण नहीं कि मस्तिष्क के बार-बार के उपयोग से उसकी क्षमता न बढ़े और बढ़ती उग्र के साथ-साथ उसमें प्रखरता न आये। उपयोग और उपभोग का सिद्धान्त अपने स्थान पर सही है। कई संदर्भों में उससे वस्तुओं की क्षमता प्रभावित होती व घटती है, पर कोई ऐसे भी प्रसंग दैनन्दिन जीवन में देखे जाते हैं, जिनमें तथ्य सर्वथा उससे विपरीत दिखाई पड़ते हैं। मस्तिष्कीय क्षमता के बारे में भी सत्य यही है कि वह बढ़ती आयु के साथ बढ़ती जाती है, घटती नहीं।


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