शिक्षा-संस्कृति जनता की धरोहर

May 1993

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“प्रजा महर्षि यज्ञदीप्ति को सबसे अधिक सम्मान देती है, यहाँ तक ठीक है महाराज। शिक्षक ही समाज का निर्माण करता है, इसलिए वह सबसे अधिक आदर-सत्कार पाने लायक है। किन्तु आचार्यगण राजकीय व्यवस्था की आलोचना करें यह सह्य नहीं। महाराज! शिक्षा राजनीति का आश्रित नहीं। शिक्षकों को राजतंत्र की आलोचना करने या मार्गदर्शन का कोई अधिकार नहीं।” महामंत्री आँत्रेष्टक आवेश में बोले चले जा रहे थे।

महाराज भद्रबाहु ने रोककर पूछा-”तुम्हारा आशय क्या है महामात्य, वह कहो-क्या तुम चह चाहते हो कि आचार्य यज्ञदीप्ति के गुरुकुल में अध्यापन करने वाले आचार्यगणों को दंडित किया जाय?”

नहीं महाराज। आँत्रेष्ठक ने छलबाज जुआरी की तरह विश्वस्त दांव फेंकते हुए कहा-’मेरी ऐसी कुछ इच्छा नहीं। पर यदि प्रजा ने राज्य के प्रति विद्रोह कर दिया तो? कैसे भी हो आचार्यों की राजनीति का आश्रित होना ही चाहिए। मेरा तो यह सुझाव भर है कि समस्त गुरुकुलों को दी जाने वाली सहायता समाप्त कर दी जायें। जब भूख सताएगी तो ये आचार्य अपने आप सीधे हो जाएँगे।”

सम्राट भद्रबाहु के माथे की लकीरें गहरी हो गई, वे कुछ चिन्तित स्वर में बोले-यह मत भूलो महामंत्री तुम्हारी योग्यता भी इन गुरुकुलों की ही देन है। यदि उनके साधन समाप्त कर दिए गए तो आज देश में जो प्रतिभाएँ हैं, प्रज्ञा है-तेजस्विता है, ज्ञान और विज्ञान है, वह नष्ट हो जाएगा।”

“राज्य को अराजकता से बचाने और आपके सम्मान को सुरक्षित रखने के लिए यदि प्रतिभाओं के स्रोत बंद करने पड़े तो बुरा क्या है?” महामंत्री की यह कूटनीति काम कर गई। दांव ठिकाने पर लगा। भद्रबाहु ने घोषणा करा दी-”अब आगे किसी भी गुरुकुल को राजकीय सहायता नहीं मिलेगी। अब तक दी गई सारी गौएं, अन्न और वस्त्र छीनकर अविलंब लौटा लिए जांय।”

देखते ही देखते आश्रमों के सारे साधन छिन गए। स्थिति गंभीर हो चली। विद्यार्थियों का भरण-पोषण तो भिक्षाटन से किया जा सकता था-पर आचार्य क्या करते?

महर्षि यज्ञदीप्ति की अध्यक्षता में आचार्यों का सम्मेलन बुलाया गया। सर्व सम्मति से यह निश्चय किया गया कि महर्षि स्वयं ही महाराज तक जायें और उन्हें वस्तुस्थिति से अवगत कराकर राजकीय वृत्ति पुनः प्रारंभ कराएँ।

महर्षि ने जाकर सम्राट के सामने स्थिति का निवेदन किया, पर महामंत्री आँत्रेष्टक की धूर्तता के आगे उनकी एक न चली। लेकिन मार्ग में उन्होंने निश्चय किया “शिक्षा जन-जीवन की नैसर्गिक आवश्यकता है, राजतंत्र के दबाव में उसे नष्ट नहीं किया जा सकता। लोक जीवन उस जरूरत को अनुभव करेगा तो स्वयं ही आगे बढ़कर सहायता भी करेगा। गुरुकुल बंद कदापि नहीं होंगे। देश को निरक्षरता के कलंक में धकेला नहीं जायेगा।

यही सोचते हुए महर्षि जैसे ही अपने पर्णकुटीर में पहुँचे देखा उनका नन्हा-सा बालक भूख से व्याकुल पृथ्वी पर लोट रहा है। क्षुधित शिशु पर माँ के समझाने-मनाने का कोई असर नहीं था। माँ भी क्या करती आज कई दिनों से अन्न का दाना न मिलने के कारण उसके स्तनों में भी दूध नहीं आ रहा था।

यज्ञदीप्ति की आंखें भर आयीं-”जो सारे समाज का हित-चिन्तन करते हैं, समाज क्या उन्हें इसी स्थिति में रखेगा।” पर वे मनस्वी महात्मा थे। परिस्थितियों से विचलित होना उनके स्वभाव में नहीं था। उन्होंने धर्म-पत्नी के कान में कुछ कहा-”पत्नी भीतर गई और एक कटोरे में कुछ ले आयीं। बच्चे ने प्रसन्नतापूर्वक दूध पी लिया। उस बेचारे को क्या पता था कि श्वेत रंग का दिया गया तरल पदार्थ नहीं चावल के आटे का घोल है।

आचार्य गण भद्रबाहु के निर्णय से बड़े निराश हुए। पर गुरुकुल न बन्द किए जांय, इस बात पर सब एक मत थे। प्रातःकाल सभी विद्यार्थियों को भिक्षाटन के लिए भेजा गया। किन्तु जिस घर के सामने गुहार लगाई वहीं से फटकार भरे स्वर सुनने को मिले-”जो शिक्षा बालकों को भिखारी बनाती हो, उस शिक्षा से अच्छा है, बच्चे अनगढ़ रहें। घरों में रहकर परिश्रम से उपार्जित अन्न ग्रहण करें। भीख माँगना मानवीय शक्ति एवं परमात्मा का अपमान करना है। अध्यात्म-धर्म, शिक्षा और संस्कृति के नाम पर इस अनात्म कृत्य का पोषण नहीं किया जा सकता।”

ब्रह्मचारी खाली हाथ गए थे और लौट तब भी हाथ खाली ही निकले। एक बार तो ऐसा लगा कि अब विद्यालय बन्द हो जायेंगे। किन्तु आचार्य अभी भी साहस हारने को तैयार न थे। राज्य की शिक्षा और संस्कार परंपरा को बनाये रखने के लिए वे प्रत्येक तितिक्षा पर कसे जाने के लिए तैयार थे।

विद्यार्थियों के लिए यह नियम बनाया गया कि अपनी व्यवस्था के लिए वे अपने अभिभावकों का आश्रय लें। इधर आचार्यों ने अपने लिए आश्रम में ही फल-फूल, शाक और अन्न उगाकर पेट पालन प्रारंभ कर दिया। मुसीबतें आयी पर गुरुकुल एक दिन के लिए भी बन्द न हुए। आचार्य कौपीन पहन कर रहने लगे पर अध्ययन एक दिन भी बन्द न किया। आचार्य पत्नियों के पास जो मंगलसूत्र थे, विक्रय कर आश्रम के लिए गायें मँगा ली गई। उनके दाने-चारे का प्रबंध भी वे स्वतः करने लगीं, पर उन्होंने आचार्यों के अध्यापन कार्य में थोड़ी भी रुकावट न आने दी।

अभाव तो आखिर अभाव ही थे। आश्रमों के पास इतनी भूमि भी तो नहीं थी कि उससे आचार्यों और उनके आश्रित सभी-बच्चों को पेट भर अनन मिलता रहता। महर्षि यज्ञदीप्ति समय निकालकर स्वयं भी जंगल जाया करते और जितना बन पड़ता उतनी सूखी लकड़ियां काट कर लाया करते। यह कार्य वे दूसरों की आँख बचाकर करते, जिससे विद्यार्थियों के अध्यापन में अवरोध न आने पाए। शरीर पहले ही कृश था। भूख ने रही-सही शक्ति और तोड़ दी। यज्ञदीति ने लकड़ी का बोझ उठा तो लिया किन्तु दो पग भी आगे न बढ़ सके। आँखों के सामने अँधेरा छा गया पर लड़खड़ा गए और वे वहीं सिर के बल गिर पड़े।

देखते-देखते ग्रामवासियों की भीड़ एकत्रित हो गई। जल के छीटे लगाए गए। महर्षि की चेतना लौटी पर वह शून्य में थी। वे बुदबुदाए -”हे प्रभु। जब तक शिक्षा और संस्कृति के आधार यह गुरुकुल स्वावलम्बी और साधन संपन्न नहीं हो जाते, तब तक मैं बार-बार जन्म लेता हूँ। बार-बार गुरुकुलों की सेवा करता रहूँ। “ इन शब्दों के साथ महर्षि ने अपना यह नश्वर शरीर छोड़ दिया।

ग्रामवासियों एवं नगरवासियों में यह समाचार वर्षाकालीन मेघों के समान सर्वत्र पल भर में फैल गया। एक ओर चिता प्रज्वलित हो रही थी, उस पर महर्षि का पार्थिव शरीर फूँका जा रहा था। दूसरी ओर जनता साधनों से आश्रमों के आँगन पाट रही थी। लोगों ने संकल्प कर लिया था-शिक्षा और संस्कृति हमारी अपनी आवश्यकता है राजतंत्र उसे सहायता नहीं देता तो न दे पर हम नागरिक उसे साधन हीन नहीं रहने देंगे।


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