धारावाहिक विशेष लेखमाला-(6) - करुणा के सागर-स्नेह की प्रतिमूर्ति युगपुरुष पूज्य गुरुदेव पं. श्रीराम शर्मा आचार्य

May 1993

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एकाकीपन ही जब जीवन का एक मात्र अर्थ बन गया हो, पारिवारिकता का सारा मूल ढाँचा ही जब चारों ओर ध्वस्त होता दिखाई पड़ता हो तब एक विशाल परिवार अपने को धुरी बनाकर अपने चारों ओर बनाते हुए हम अपने परम पूज्य गुरुदेव को पाते हैं जिनने जीवन भर एक काम सतत् किया-प्यार लुटाते बाँटते रहने का। गायत्री परिवार की मूल धुरी है-वह करुणा वह संवेदना जो गुरुसत्ता से उनने बंटायी। यह कार्य परमपूज्य गुरुदेव ने आरंभ किया व उसे परिपूर्णता तक लाने का दायित्व परमवंदनीय माता जी के माध्यम से सतत् निभाया।

गायत्री परिवार की विराट जनमेदिनी में एक भी व्यक्ति ऐसा नहीं है जिसे इस स्नेह संजीवनी से लाभान्वित होने का अवसर न मिला हो। हर व्यक्ति की यह अनुभूति रही है कि एक वही ऐसा है जिसे इतनी देर तक गुरुदेव के श्री चरणों में बैठकर अपनी व्यथा-कथा सुनाने व बदले में गुरु की स्नेह सरिता में अवगाहन का मौका मिला। अक्सर ऐसे व्यक्ति मिलते रहते हैं देश व विदेश में जो यही कहते हैं कि मुझसे अलग से बुलाकर, बैठकर उनने बात की, पीठ पर हाथ फिराया व मनोबल को इतना ऊँचा उछाल दिया कि देखते-देखते कष्ट दूर हो गए तथा प्रगति पथ पर बढ़ते चलने का राजमार्ग मिल गया। ऐसे व्यक्तियों को वही अनुभूति हुई तो श्री कृष्ण के साथ महारास खेलने वाली गोपियों को हुई होगी। इनकी संख्या कम नहीं लाखों में है।

मूलतः गुरुवर का हृदय माँ का हृदय था। माँ प्यार भी करती है, बच्चे को दुलारती है, किन्तु साथ ही साथ एक आँख सुधार की भी रखती है। विश्व मानवता के सुधार की दृष्टि रखने वाली मातृ स्तर की उस गुरुसत्ता ने जहाँ परिजनों की दुष्प्रवृत्तियों-दुर्व्यसनों अवांछनीय कामनाओं से अनुदान भी ढेरों बरसाए। क्या यह सत्य नहीं कि हर ऐसे व्यक्ति को लौकिक आध्यात्मिक स्तर के अगणित अनुदान मिले और वे निहाल होते चले गए। अब स्थूल शरीर नहीं रहा भी तो भी वह आश्वासन तो सतत् है ही व नित्य प्रतिपल साकार हो रहा है “कि जो भी मरा ध्यान करेगा, मेरे बताए काम में स्वयं को नियोजित करेगा उसके योगक्षेम का वहन मैं अंत तक करूंगा।” गायत्री परिवार का हर कार्यकर्ता ऐसी गुरुसत्ता के साथ जुड़ कर स्वयं को सुरक्षित व धन्य अनुभव करता है।

माँ का हृदय होने के नाते विश्व मानवता की हर व्यथा उनकी अपनी व्यथा थी। दहेज में जलती बहुओं का वर्णन समाचार पत्रों में पढ़कर उनका बोलते-बोलते गला भर आता था। लगता था कही कोई बहू जली है, लड़की-नारी जाति पर अत्याचार हुआ है तो वह उनकी अपनी ही बेटी के साथ हुआ है। अक्सर अपने प्रवचनों, कार्यकर्त्ताओं से चर्चा के दौरान व अंतरंग गोष्ठी में वे इन प्रसंगों पर बोलते-बोलते रुक जाते थे, कण्ठ अवरुद्ध हो जाता था तथा यह कहकर बात समाप्त कर देते थे कि “क्यों नहीं यह सब बन्द होता, क्यों नहीं तुम सब इसके खिलाफ प्रतिरोध का मोर्चा प्रबल बनाते हो? मुझे उम्मीद है कि अगले दिनों देखते-देखते इन उत्पीड़कों का निश्चित ही दमन हो जाएगा।” इन शब्दों में जहाँ उत्पीड़ितों की पीड़ा के प्रति असीम करुणा का भाव है, वहाँ वह “मन्यु” भी झलकता है, जो उनकी यति योद्धा रूपी सत्ता का मूल मर्म था।

एक बात सुनिश्चित है। माँ के हृदय जैसी विशालता, सहनशीलता व संवेदना विकसित किये बिना कोई संगठनकर्ता अपने आत्मीयों का परिकर न बढ़ा सकता है न उसके लक्ष्यों को सुनिश्चित गंतव्य तक पहुँचा सकता है। यदि किसी संगठन को सैनिक अनुशासन के स्थान पर नैतिक व भावनात्मक अनुशासन विकसित कर उसे आगे बढ़ाना है तो उसके सदस्यों को सबसे पहले गायत्री परिवार के मुखिया के जीवन दर्शन को समझना व जीवन में उतारना होगा। दूसरों का दुख दर्द समझे व सहानुभूति जताए-कष्ट बँटाये बिना कोई भी व्यक्ति अपने सहकर्मी अथवा अन्यान्य कार्यकर्त्ताओं की श्रद्धा का पात्र भी नहीं बन सकता। यह व्यवहार में उतरने वाली वह गुण प्रधान विद्या है, जिसका जीता-जागता उदाहरण हमें गुरुसत्ता के रूप में मिलता है।

1971 के जून माह में मथुरा से हिमालय-हरिद्वार क्षेत्र के लिये उन्हें लाखों परिजनों द्वारा दी गयी विदाई इस तथ्य की साक्षी है कि हर शख्स के मन में उनके प्रति कितना स्नेह था। कितनी श्रद्धा थी। उस समय का दृश्य जिनने भी देखा है, उनका हृदय विगलित हुए बिना रह नहीं सकता। एक तरफ तो इतना अधिक स्नेह-इतनी करुणा किन्तु दूसरी ओर गुरुसत्ता के मन में कठोरता इस सीमा तक कि जिस स्थान पर जिनके साथ इतने दिन रहे, उसे छोड़कर जाने में तनिक भी असमंजस मन में नहीं। अपनी पुत्री का विवाह कर तुरंत हमेशा के लिए इस स्थान को छोड़ देना हममें से कितनों के बस की बात है? किन्तु यह अवतारी स्तर की सत्ता ही होती है जो दोनों कार्य एक साथ निबाहती है।

तप के धनी, ज्ञान के सागर, चिंतन के उद्गाता के रूप में हम गुरुदेव को जानते हैं किन्तु उनका वास्तविक परिचय उनकी स्नेहमयी-मोहक उस मुसकान के रूप में अधिक है, जिसने लाखों व्यक्ति उनके पास रोते हुए आते थे तथा हँसते हुए वापस जाते थे। यह उनका विशाल हृदय ही था जिसके समक्ष नतमस्तक हो हर व्यक्ति अपने अंदर की व्यथा अपनी हर बात उनसे कह स्वयं को अत्यन्त हल्का महसूस करता था। इसलिए तो पूज्यवर अपनी पत्रिका में अधिकार से लिखते हैं-”लोग हमें भूल सकते हैं, पर हम अपने किसी स्नेही को भूलेंगे नहीं।”

अंतःवेदना, मानव मात्र के प्रति करुणा जो महामानवों में होती है, उसका वे दिखावा नहीं करते। वह तो सहज ही उनके जीवन व्यवहार में परिलक्षित होती रहती है। स्वामी विवेकानन्द के जीवन का वह प्रसंग सभी को ज्ञात है, जब फिजी में हुए भयंकर अग्निकाण्ड पर वे रात्रि भर व्याकुल रहे, सो नहीं सके तथा सभी शिष्यगणों द्वारा पूछने पर मात्र यही बात सके कि कहीं बड़े व्यापक स्तर पर जन क्षति हुई है। हजारों मील दूरी पर हुई घटना की अनुभूति उसी समय किसी को हो सकती है, यह विज्ञान के लिए कौतूहल का विषय हो सकता है किन्तु अध्यात्म की परिधि में यह असंभव नहीं। महामानवों का अंतःकरण एक विशाल मेक्रोकाँस्मास की तरह होता है वह समष्टि का दुख उनकी पीड़ा बन जाता है। ऐसे ही बंगला देश की आजादी के समय हुए युद्ध में हजारों अबलाओं तथा निरीह इंसानों पर हुआ अत्याचार उनकी वाणी व लेखनी में देखा जा सकता था। हर किसी की पीड़ा उनकी अपनी थी, उसका परिचय देते अनेकानेक घटनाक्रम देखने को मिलते हैं। एक का यहाँ जिक्र कर रहे हैं।

दिल्ली के एक परिजन जो काफी वर्षों से जुड़ें हैं, शाँतिकुँज प्रायः हर रविवार को आते रहते थे। एक दिन आने पर गुरुदेव के दर्शनों के बाद बोल उठे-”पूज्यवर आपने तो इस बार बचा ही लिया, नहीं तो जान तो चली ही गयी थी।” विस्तार से उनने बताया कि वे दुकान के लिए सड़क पार कर रहे थे कि एक ताँगा उधर आ गया व वे फिसल कर उसके नीचे आ गए। तांगा निकल जाने पर उठकर खड़े हो गए देखा कि मात्र हल्की-सी खरोंच थी, न फ्रैक्चर हुआ था न किसी प्रकार की कोई गंभीर चोट थी। बोले-”आपकी कृपा से ही बच गए।” गुरुदेव बोले-”बेटा! तू तो बच गया पर तूने देखा, मेरा क्या हाल हुआ?” इतना कहकर उनने अपनी धोती ऊपर कर उन सज्जन को अपनी जाँघें दिखायी। दोनों पर गहरा लाल नील का निशान था। ताँगा गुजरा तो था उन सज्जन के पैरों पर किन्तु सारी पीड़ा गुरुसत्ता ने हर ली थी ऐसे अगणित प्रसंग लाखों व्यक्तियों के हैं। किन-किन का बखान यहाँ करें?

अपने प्रवचनों में अक्सर पूज्यवर कह उठते थे कि-”हमारे देश में लाखों बाबाजी हैं। यदि उनकी कथनी करनी एक हो जाय तो सारा भारत अपना दुख-कष्ट भूल प्रगति के पथ पर आगे बढ़ता चले। यदि ये बाबाजी विलासिता के साधनों को भूल मानव जाति की उस तरह सेवा कर सके जैसा मिशनरी भावना लिए क्रिश्चियन पादरी करते हैं, तो वास्तव में हिंदू जाति का उद्धार हो जाय। वे कहते थे कि कभी-कभी मेरा मन करता है कि अफ्रीका के जंगलों में सेवा कार्यों में लगे पादरियों की पाँवों की धोवन लाकर इन सब बाबाजियों पर छिड़क दूँ ताकि इनका उद्धार हो जाय।” हय उनका मर्मस्थल था जो मानव मात्र की वेदना को समझता था तथा सुधारकों की-पीड़ा-पतन निवारकों की एक सेना खड़ी करने की टीस पैदा करता रहता था। गायत्री परिवार इस टीस से तो जन्मा है।

हम आप आज दुनिया भर के व्याख्यान देते लोगों को देखते-सुनते हैं, स्वयं भी देते हैं किन्तु कितना दूसरों के कष्टों में सहभागी बन जाते हैं, यह आत्म विश्लेषण स्वयं हमें करना है। वास्तविकता यही है कि बिना दूसरों का कष्ट समझे कोई व्यक्ति अध्यात्म प्रगति के पथ पर आगे बढ़ ही नहीं सकता। चिकित्सकों में वेदना का स्तर क्या व कितना होना चाहिए, यह हम गुरुदेव के जीवन में देखते हैं।

शाँतिकुँज का ही एक प्रसंग है। उन दिनों पूज्यवर प्रतिदिन व्याख्यान देने अपने कक्ष से छोटे से शाँतिकुँज के वर्तमान गायत्री तीर्थ में बने प्रवचन प्राँगण में जाते थे। एक कार्यकर्ता जो वशिष्ठ ब्लॉक के नीचे वाले एक कक्ष में मलेरिया बुखार से पीड़ित था, मन ही मन सोचता था कि दवा तो चल रही है पर एक बार गुरुदेव के दर्शन हो जाते तो तुरंत आराम हो जाता। चिकित्सा हेतु गये एक कार्यकर्ता बंधु स उसने कहा भी किन्तु उसे यह कहकर सोने को कह दिया गया कि “तुम को दवा दे दी है- आराम करो। गुरुदेव को कोई और काम नहीं है? जो तुम्हें देखने आ जायेंगे।” वह बेचारा आँखें बंद कर लेटा ही था कि सीधे प्रवचन कक्ष को जाते गुरुदेव की उसके कक्ष में प्रवेश करने के साथ उनकी मधुर आवाज उसके कानों में गूँज गयी-”क्यों भई! क्या बात है? ज्यादा तकलीफ है क्या? दवा तो चल ही रही है। मन मजबूत रखना।” इतना कहकर उसके सिर पर हाथ फेरा व उपस्थित चिकित्सकों से हाल−चाल पूछ सीधे प्रवचन के लिए चले गए। उस कार्यकर्ता की स्थिति तो बयान ही नहीं की जा सकती। आँखों से सतत् अश्रुधारा प्रवाहित हो रही थी। उसी दिन शाम को वह पूर्ण स्वस्थ स्थिति में ऑफिस में पूरे उत्साह से कार्य में लगा हुआ था।

मर्म को स्पर्श करने वाली संवेदना का यह तीव्रतम स्तर जब तक विकसित नहीं होगा तब तक हम वस्तुतः अध्यात्म का पहला पाठ पढ़ आगे बढ़ ही नहीं सकते। यही करुणा तो है, जिसके आगाध स्रोत से बहने वाली भागीरथी ने लक्षाधिक व्यक्तियों को स्नान कर धन्य कर दिया। परमपूज्य गुरुदेव द्वारा लिखे गए पत्रों को, जिन्हें अनेकों व्यक्तियों ने भलीभाँति सजा-सँवार कर अपने पास सुरक्षित रखा है, पढ़कर यही अनुभूति होती है। हर पात्र अपने आप में संवेदना से सराबोर एक ऐसा दस्तावेज है, जो यह प्रेरणा देता है कि दूसरों का दिल जीतना ही नहीं, उनके आत्मबल को शिखर पर पहुँचा कर उनसे समाज निर्माण की विभिन्न गतिविधियाँ संपन्न करा लेना महामानवों की सदा से रीति-नीति रही है वह हमें भी जन-श्रद्धा अर्जित करनी है तो यही मार्ग पकड़ना होगा।

उनके साथ बिताए थोड़े से क्षण भी हम आप सबके लिए अमूल्य थाती बन गए हैं। एक छोटे से स्नेह सिक्त वाक्य ने किसी कार्यकर्ता-परिजन या व्यक्ति की जीवन की दिशाधारा बदल दी है। मात्र कथनी ही नहीं, जीवन व्यवहार में करुणा-संवेदना का समावेश जब किसी के जीवन में होता है तो वह विलासिता को दूर भगा जीवन को सादगी-संपन्न बना देता है। स्वयं पूज्यवर का जीवन ऐसा ही था। किसी कार्यकर्ता के घर कोई बीमार हो, जब तक उसके लिए मुसम्बी के रस की व्यवस्था करने की स्थिति न हो, तब तक स्वयं उनने इतना अधिक काम करने-थकान की स्थिति होने पर भी वंदनीय माताजी द्वारा दिये जाने पर उसे स्वीकार नहीं किया। गलती से एक बार ग्रहण करते ही पता लगने पर उँगली डालकर उल्टी की व उसे निकाल दिया। यह एक छोटी-सी घटना “आत्मवत् सर्वभूतेषु” के उनके उस स्वरूप की परिचायक है जिसकी जीती जागती मिसाल वे थे। खादी की एक धोती व एक मोटा कुरता बस यही जीवन भर पहना व इतने भर में सारा जीवन काट दिया।

कोई आश्चर्य नहीं कि उनके जीवन दर्शन व्यवहार में उतरे इस ब्राह्मणत्व ने ही औरों का दिल जीतकर उनसे वह सब करा लिया जो स्वयं शायद वे न कर पाते। उनने यह प्रमाणित कर दिखाया कि जब आदमी के जीवन में भगवत् सत्ता के प्रति सच्चा प्रेम-साधन संवेदना मानवमात्र के प्रति करुणा का समावेश होता है तो सबसे पहले वह सुविधा साधनों को तिलाँजलि देकर उनका उपयोग समष्टि के लिए करता है।

वास्तव में देखा जाय तो एक आदर्श ब्राह्मण, करुणा के सागर-स्नेह की प्रति मूर्ति के रूप में हम परमपूज्य गुरुदेव-अपने आराध्य देव पं. श्रीराम शर्मा आचार्य की सारी विशिष्टताएँ इस मूल आधार-बीज से पनपे वट वृक्ष के वैभव की तरह है। हमें एक पथ वे दिखा गए हैं कि हम सब भी इन गुणों को जीवन में समाहित कर अपनी जीवन समिधा की एक जलती चिनगारी भी हमें स्पर्श कर जाए तो हमारा जीवन यज्ञ वस्तुतः सफल हो जाए।


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