शुक्राचार्य के गुरुकुल में एक प्रतिभावान बालक पढ़ता था-कच। साथ ही शुक्राचार्य की पुत्री भी साथ-साथ हो गयी।
देवयानी जब वयस्क हुई तो कच की प्रतिभा पर मुग्ध रहने लगी। उसकी इच्छा थी कि यदि इस युवक के साथ उसका विवाह हो जाय तो अच्छा रहे। इसके लिए उसने स्वयं भी प्रस्ताव किया और पिता से भी कहलवाया।
कच आरंभ से ही देवयानी को बहिन कहता रहा था।
उसे उसी भावना से श्रद्धा भी करता था। बहिन को पत्नी कैसे बनाये? इससे तो अनर्थ हो जायेगा। कच ने स्पष्ट इनकार कर दिया।
इस पर देवयानी और शुक्राचार्य दोनों ही रुष्ट हो गये। उसने शाप दिया कि इस गुरुकुल में पढ़ी विद्या तुम्हें विस्मृत हो जाये? शाप कच ने शिरोधार्य किया पर नैतिक मर्यादा को तोड़ने के लिए वह किसी प्रकार तैयार न हुआ।