आध्यात्म है ही, सुव्यवस्था का नाम

April 1993

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रेलगाड़ी में अधिक महत्व इंजन का होता है। उसे अति सावधानी के साथ कुशल निर्माताओं द्वारा समुन्नत प्रतिभाओं द्वारा बनाया जाता है, कारण कि पूरी रेलगाड़ी का वजन खींचने और अभीष्ट गति से घसीटते ले चलने की जिम्मेदारी उसी की होती है। इंजन गड़बड़ाने लगे, तो समझना चाहिए कि रेलगाड़ी का नियत लक्ष्य तथा नियत समय में पहुँच सकना कठिन पड़ेगा। इसके विपरीत कमजोर डिब्बों को भी बलिष्ठ इंजन अपने बलबूते खींचता चला जाता है। ठीक यही उदाहरण प्रायः सभी सामूहिक क्रिया–कलापों पर लागू होता है।

जीवन का थोड़ा-सा अंश ही ऐसा होता है, जो नितान्त एकाकीपन के रहते हुए भी गुजर जाता है। ऐसे समय नित्यकर्म, शयन, विश्राम जैसे ही होते है, पर उनकी गणना महत्वपूर्ण कामों में नहीं होती। औसत व्यक्ति का अपना अधिकाँश जीवन अधिक मिल-जुल कर किये जाने वाले कार्यों का भागीदार रहते हुए ही व्यतीत करना पड़ता है। इसमें यों सभी घटकों को अपने-अपने जिम्मे के कार्य सही रीति से करने की आवश्यकता पड़ती है, फिर भी यह आवश्यकता तो बनी ही रहती है, कि सब का समन्वय करने, तालमेल बिठाने का कार्य कोई रेल के इंजन जैसी क्षमता संपन्नता करता रहे। इसकी योजनाएँ, निर्धारणायें यदि ठीक तरह चलती रहें, तो ही किसी सामूहिक कार्य के सुनियोजित रूप से संपन्न होने की आशा करती चाहिए। अनुभवहीन, अविकसित, मानस वाले व्यवस्थापक तो अपने साथी सहयोगियों के श्रम को भी अस्त−व्यस्त कर देते हैं। इसलिए लोक-नेतृत्व करने की क्षमता को अन्य बड़े महत्वपूर्ण कार्यों में सम्मिलित किया गया है। डॉक्टर, इंजीनियर, आर्कीटेक्ट, चार्टर्ड एकाउन्टेंट आदि का लम्बा शिक्षण काल इस आधार पर बनता है कि वे अपने दायित्वों के प्रति अधिक जागरूक, अधिक प्रवीण-परिष्कृत सिद्ध हो सकें। प्रबंधन का कार्य भी इससे कम महत्व का नहीं है। वह साधारण श्रमिकों की तरह ढर्रे का काम भारवाही पशुओं की तरह नहीं निपटता, वरन् सम्मिलित परिकर के हर छोटे-बड़े विभाग पर पैनी दृष्टि रखता है और जहाँ कहीं गड़बड़ी की आशंका लगती है, वह समय से पूर्व ही सतर्क होकर समाधान निकालता और दुर्घटना घटित होने से बचा लेता है।

गड़बड़ियों को न होने देने, पर उन्हें फुर्ती से सँभाल लेने का कौशल संचालक द्वारा प्रयुक्त होने की आशा की जाती है। इस प्रकार की सूझबूझ न होने पर किसी को कुशल प्रबन्धन का श्रेय नहीं मिल सकता, भले ही वह शिक्षा की दृष्टि से कितनी ही डिग्री हस्तगत क्यों न किये हुए हो।

व्यवस्था में एक और विशेषता भी सम्मिलित करनी चाहिए कि वर्तमान की गतिविधियाँ भविष्य को उज्ज्वल बनाने की दृष्टि से सही रीति-नीति अपनाये हुए है या नहीं। ध्यान आज का ही नहीं, अगले कल का भी रखना पड़ता है। बड़े व्यवसायों और कारखानों के मैनेजर यह ध्यान रखते है कि वर्तमान के विनिर्मित निर्माण की कल खपत कहाँ और कैसे होगी? कल जिन सामानों की आवश्यकता पड़ेगी, उनका संचय समय रहते कर लिया गया है या नहीं। पूँजी कहीं रुक तो नहीं रही है। यदि ऐसी कुछ आशंका हो, तो उसका विकल्प पहले से ही तैयार रखना पड़ता है, जिसमें इस प्रकार की सुविस्तृत सूझ-बूझ हो, वह व्यवस्थापक के पद को तो सार्थक बना ही सकता है। संपन्न तो कोई उत्तराधिकार में प्राप्त संपत्ति के आधार पर भी हो सकता है, किन्तु प्रबंध की क्षमता तो पूरी तरह अपने द्वारा ही अर्जित करनी पड़ती है।

विधाता को उतना श्रेय मिलता है, जितना कि नियामक की मनुहार की जाती है। बच्चे जनने की क्षमता तो हर वर्ग के मादा प्राणियों में होती है। उत्पादन तो अनायास भी हो सकता है, पर उसे सुनियोजित करना, समुन्नत करना विशेष प्रकार का कौशल है। उसके जानकारों को ही उत्पादकों की तुलना में अधिक श्रेय मिलता है। यही कारण है कि उद्योगपतियों की, स्वामित्व वाले लोगों की अपेक्षा प्रबंधकों को ही अधिक श्रेय जाता है। राजा की सफलता-असफलता बहुत कुछ उसके मंत्रियों पर ही निर्भर रहती है। स्कूल तो असंख्यों खुले होते हैं, पर उसमें से सफलता का श्रेय उन्हीं को मिलता है, जिनके संचालक अपनी प्रतिभा, लगन और सूझबूझ का बढ़-चढ़ कर परिचय देते हैं। सेना में अनेकों सैनिक होते हैं। वे अनुशासन भी पालते हैं और देशभक्ति तथा दक्षता का परिचय भी देते हैं, किन्तु मोर्चा जीतने-हारने का यश-अपयश सेनापति को ही जाता है। उसे तनिक-सी भूल कर बैठने पर अनर्थ करने वाले जैसा दण्ड तक भुगतना पड़ता है। सिपाही का प्रमाद छोटी प्रताड़ना से भी संभल जाता है, पर सेनापति को क्षमा कैसे किया जाय, जिसने संचालन जैसा भारी-भरकम उत्तरदायित्व स्वीकार करने पर भी गहरी सूझबूझ का परिचय देने में भूल की। ऐसी रणनीति न बना सका, जिसके सही होने पर पराजय की आशंका नहीं के बराबर ही रह जाती।

मजबूत इंजन तो टूटे डिब्बों को भी खींच ले जाता है। यह प्रतिपादन गलत नहीं है। उच्च अधिकारियों को अधिक वेतन और अधिक साधन इसी बात का मिलता है कि उन्हें सामान्य लोगों की अपेक्षा किसी भी समस्या के साथ जुड़े हुए असंख्य पहलुओं पर एक ही समय में विचार कर लेने और सही निष्कर्ष पर पहुँचने की क्षमता से संपन्न माना जाता है। प्रबंधक से सर्वज्ञ और सर्व समर्थ जैसी आशा की जाती है, पर किसी के कंधे पर यह भार आ पड़ा हो तो उसका कर्तव्य है उस पद के अनुरूप दक्षता में यदि कहीं कुछ कमी हो, तो उसे जल्दी-से-जल्दी पूरी कर लेने का प्रयत्न करे। “ग्रुप लीडर” होने का अर्थ ही यह है कि उसने भिन्न-भिन्न प्रवृत्ति के लोगों के बीच तालमेल बिठाए रखने की क्षमता से संबंधित ज्ञान को उपलब्ध किया है। यह एक ऐसा प्रमाण पत्र है, जिसके उपयुक्त सिद्ध होने के लिए अपनी समूची तत्परता और तन्मयता दांव पर लगाने की आवश्यकता पड़ती है। प्रहरी ही निद्राग्रस्त होकर रखवाली करने की जिम्मेदारी आती है कि साथियों को सही कार्य में सहमत होने की विशेषता का अभिवर्धन करें अन्यथा संयुक्त नेतृत्व के बीच अहमन्यता के दुर्गुणवश कुछ विशेष कारण न होने पर भी अपनी हेठी न होने देने की प्रमुखता को सबसे ऊपर मानने वाले परस्पर झगड़े बिना न रहेंगे और उस विग्रह का दुष्परिणाम समूचे कार्य तंत्र के लड़खड़ाने के रूप में सामने आयेगा।

हर किसी को प्रबंधक बनने की क्षमता का विकास करना चाहिए, भले ही उसे किसी मिल, कारखाने, पार्टी, फैक्टरी, स्कूल आदि में प्रबंधक के पद पर नियुक्ति होने का अवसर न आये, क्योंकि जीवन की अधिकाँश प्रक्रिया पारस्परिक आदान-प्रदान, सहयोग पर निर्भर है। सद्भाव अर्जित किये बिना, तालमेल बिठाये बिना प्रगति पथ पर एक कदम भी नहीं चला जा सकता। अपने छोटे से व्यवसाय में कर्मचारी बनकर रहने में पग-पग पर सहयोग की आवश्यकता पड़ती है। उपेक्षा की स्थिति बने रहने में भी घाटा-ही घाटा है। फिर यदि किसी से सहयोग की अपेक्षा हो, तो उस पर दबाव डालने की अपेक्षा यह अधिक सरल है कि अपनी योग्यता को इस रूप में प्रस्तुत करें कि संबंधित व्यक्तियों को यह आशा बँधे कि इनके साथ सद्भाव बनाये रहने में हमें ही लाभ है। यह कार्य मिथ्या शेखीखोरी के आधार पर बन नहीं पड़ते, क्योंकि बनावटी अत्युक्ति प्रकट करने वाला ऐसे अनेकों संदेह के क्षेत्र छोड़ता है, जिस पर झाँक कर किसी का बड़बोलापन आँका जा सके। कुछ समय बाद तो अत्युक्तियों में घुला झूठ प्रकट होकर ही रहता है। तब फिर प्रामाणिक संदिग्ध हो जाने लगता है। इसके बाद बचने, दूर रहने की बारी आ जाती है। इस झंझट में पड़ने की अपेक्षा यही उपयुक्त है कि अपनी कार्यशैली में व्यवस्था तत्व का समुचित समावेश होने की बात अपने क्रिया–कलापों से ही प्रकट होने दी जाय।

घर-परिवार भी एक पाठशाला, सहकारी समिति या फैक्टरी के समतुल्य है। उसमें भिन्न-भिन्न स्तर के सदस्य रहते हैं। उनमें से कुछ संस्कारवश उद्दंड या अनगढ़ भी हो सकते हैं। इनमें से किसी को भी घर से बाहर निकाल-बाहर नहीं किया जा सकता। बात तभी बनती है कि अन्यों का स्वभाव, दृष्टिकोण समझते हुए उनके साथ इस प्रकार तालमेल बिठाया जाय कि कम-से-कम व्यवधान पहुँचे और जितना कुछ बन पड़े, उनका सहयोग करते रहें, किसी प्रकार की समस्या न उठे। डराने-धमकाने की आवश्यकता तो विवशता की स्थिति सामने आ जाने पर ही अपनानी चाहिए। प्रयत्न यही रखना चाहिए कि जिनके साथ इच्छा या अनिच्छा से रहना ही पड़ेगा। उसके साथ मनोमालिन्य जैसी स्थिति न बनने दी जाय। दूसरी आरे से उपेक्षा बरती जा रही है, तो भी अपनी ओर से सज्जनता भरा व्यवहार करते रहने की नीति अपनाये रहने में ही लाभ है। सबको अपनी इच्छा के अनुरूप नहीं बनाया जा सकता, पर इतना तो हो ही सकता है कि विग्रह को टालते रहने और निरर्थक बातों में अपना समय और चिन्तन नष्ट होने देने की हानि से बचा जाता रहे।

किसी तंत्र में नियमित रूप से व्यवस्था का दायित्व न सौंपे जाने पर भी प्रतिभावान प्रतीक्षा करते नहीं बैठे रहते और न इस प्रकार की हीनता मन में आने देते हैं कि हम से आग्रह नहीं किया गया। अपनी विशिष्टता के परिचय देने की दृष्टि से ही नहीं अवसर पर छोटे कार्य सामने दीख पड़ने पर उनमें आत्मीयता का सेवा-भावना, सहयोग आरंभ कर देना चाहिए। छोटे कामों में सही ढंग से निपटने की योग्यता अपने स्तर पहचानने का अवसर मिलता है और फिर आग्रहपूर्वक अन्य कार्यों में हाथ बँटाये जाने की आशा करने लगती हैं। योग्यता अपने स्तर के अवसर भी देर-सबेर में प्राप्त कर लेती है। लोकनायकों को इसी प्रकार अपनी विशेषता का परिचय देने और क्रमशः अधिक ऊँचे काम कर दिखाने के अवसर मिलते रहें हैं। यदि यह नीति न अपनायी जाय, तो गुमसुम रहने वाले व्यक्ति को प्रायः अयोग्य ही माना जाने लगता है। यदि यह नीति न अपनायी जाय, तो गुमसुम रहने वाले व्यक्ति को प्रायः अयोग्य ही माना जाने लगता है। अपने व्यवहार एवं वाक कौशल से ही यह प्रकट किया जा सकता है कि अपने में बड़े दायित्व सँभालने की क्षमता है। ऐसे लोगों की सर्वत्र माँग है। वैसे लोग न मिलने पर अधिकाँश लोग अपने को किसी बड़ी कमी से घिरा अनुभव करते हैं, पर कभी यह पता चलता है कि संपर्क क्षेत्र में अमुक व्यक्ति स्वभावतः व्यवस्थित रहने और दूसरों के कार्यों में उत्साहपूर्वक रस लेने, सहायता करने के स्वभाव वाला है, तो उसे हर स्थिति में आमंत्रण मिलता है, एक के बाद दूसरा बड़ा काम सौंपा जाने लगता है। प्रगतिशीलता का यही क्रम है, जो सदा-सर्वदा बनता और चलता रहता है।

परिचय का प्रारंभ किसी की निकटता के उपरान्त ही होता है। पहली दृष्टि में व्यक्ति के शरीर, बचत, वस्त्र एवं शिष्टाचार के बरते जाने पर यह जानकारी मिलती है कि आगन्तुक का स्तर एवं महत्व क्या है। प्रत्युत्तर भी उसी के अनुकूल मिलने लगता है। गुम्बज की प्रतिध्वनि की तरह ही हमारे व्यक्तित्व की प्रतिक्रिया होती है और दूसरों पर छाप पड़ती है। सभ्यता के प्राथमिक सिद्धान्तों से परिचित व्यक्ति अपने स्वभाव को ऐसे ढांचे में ढालते हैं कि परखने वाले ही नहीं, देखने वाले तक प्रथम परिचय में सहानुभूति का प्रत्युत्तर देने लगें। इस संदर्भ में साफ-सुथरापन और वाणी में सज्जनता का समावेश अत्याधिक आवश्यक है। इन्हीं छोटी-मोटी आदतों का समन्वय शिष्टाचार बन जाता है और बरतने वालों का मूल्य बढ़ता है।

खर्चीली सज-धज किसी का मान बढ़ाती नहीं, वरन् उसे धारणा करने वाले को ओछा, बचकाना, एवं नट-अभिनेता स्तर का उपहासास्पद ही बनाती हैं। स्वच्छता और सादगी किसी का बड़प्पन प्रकट करने के लिए पर्याप्त है। दूसरों पर रौब जमाने के लिए अपना बड़प्पन प्रदर्शित करने की आवश्यकता पड़ती है। इसके लिए कई लोग अपनी सज-धज, ऐंठ-अकड़ दूसरों की अपेक्षा, अपनी व्यस्तता आदि के अनावश्यक आवरण ओढ़ते और आशा करते हैं कि अन्य लोग अपने प्रभाव में आकर दब जायेंगे और जैसा कहें, वैसा करने लगेंगे। यह मान्यता आदि से अन्त तक गलत है, कारण कि अपने अहंकार में दूसरों का अपमान जुड़ा होता है, जिसकी गंध किसी भी विचारशील मनःस्थिति वाले को सहज लग जाती है और उसकी प्रतिक्रिया विरोध तिरस्कार में होती है। अन्तर्विरोध बढ़ जाने या बने रहने पर खिन्नता बढ़ती है, खाई चौड़ी होती है और संघर्ष जैसी मनःस्थिति बन जाती है। ऐसे वातावरण में तालमेल बैठ नहीं पाता और दिशा-भिन्नता बन पड़ने से कटुता, प्रतिद्वंद्विता, प्रतिरोध जैसे तत्व उभर पड़ते हैं। गड़बड़ी के कारणों को समझना और समझाना कठिन हो जाता है। काम बनता नहीं बिगड़ता है। इसलिए अपनी मुद्रा परिधान से लेकर व्यवहार तक में नम्र ही रहना चाहिए सादगी और सज्जनता यह दो गुण ऐसे हैं, जिन्हें अपना कर कोई प्रबंधक घाटे में नहीं रहता, वरन् उलझनों को हँसते-हँसाते भाईचारे के वातावरण में ही संपन्न कर लेता है। अच्छा होता इस स्तर का स्वभाव ही बन जाता और अभ्यास में उतर जाता, परी यदि ऐसा स्तर इससे पूर्व नहीं बन पड़ता है तो समय की आवश्यकता और कार्य की सुव्यवस्था को ध्यान में रखते हुए उसे प्रयत्नपूर्वक अर्जित कर लेना चाहिए। स्मरण रहे बड़प्पन का रौब जमा कर जितना काम कराया जा सकता है उसकी तुलना, में सम्मान और सद्भाव का परिचय देकर कहीं अधिक और अच्छी तरह बात बनायी जा सकती है।

अनगढ़ व्यक्ति को सिर्फ समय का दबाव ही प्रेरणा का स्रोत बना सकता है। वे उतना ही करते हैं, जितना कि तात्कालिक आवश्यकता उन्हें बाधित करती है। ऐसी दशा में मानसिक विकास सीमाबद्ध हो जाता है। कुली, मजदूर उतना ही कर पाते हैं जितनी कि अनिवार्यता होती है। इससे आगे की पीछे की सोच करना और कार्य को अधिक सुचारु रूप से संपन्न करने की आवश्यकता बनी रहती है, उसके संबंध में उनका ध्यान ही नहीं जाता। ऐसी दशा में वह बन ही नहीं पड़ता जिसे देख कर संबंधित व्यक्तियों को उसकी विशेषता का भान हो और बदले में सहानुभूति-जन्य लाभ एवं गौरव प्राप्त हो। यथास्थिति बने रहने का प्रमुख कारण एक ही है, विषय से संबंधित अन्य अनेकानेक बातोँ की ओर ध्यान न जाना, एक सीमित परिधि में ही सोचते और करते रहना। यह मानसिकता किसी की भी उन्नति में बाधक हो सकती है और प्रबंधक स्तर प्राप्त करने की तो प्रमुख अड़चन समझी जाती है।

एक ही दृष्टि में तीक्ष्णबुद्धि वाले लोग प्रस्तुत खामियों को खोज लेते है। उसके क्या कारण हो सकते है, उसकी कल्पना बिना समय गँवाये कर लेते हैं, साथ ही यह उपाय भी सूझता रहता है कि खामियों को किस प्रकार जल्दी-से-जल्दी और अच्छी-से -अच्छी तरह कितनी जल्दी और सुविधापूर्वक ठीक करना, वरन् अधिक प्रगति एवं अधिक सफलता कि लिए जिन नये सुधारों-परिवर्तनों की आवश्यकता है, उसका ताना-बाना भी साथ ही बुनते रहते हैं। इस प्रकार मस्तिष्क एक होते हुए भी एक ही समय में अनेक प्रकार सोच सकने वाला सुव्यवस्था में बाधक सभी तथ्यों को सुधारने लग जाता है। प्रगति अनायास ही नहीं आती, उसके लिए प्रतिस्पर्धा के क्षेत्र में क्या हो रहा है, क्या होने वाला है-इसकी भी सुविस्तृत जानकारी संगृहीत की जाती है और इस निष्कर्ष पर पहुँचा जाता है कि हमारे लिए अधिक श्रेय प्राप्त करने के लिए क्या करना संभव और अनावश्यक है। मस्तिष्क में बेकार बातें सोचते रहने, काम में अनावश्यक विलम्ब लगाने वाले ही प्रायः पिछड़ते हैं। जागरूक, दूरदर्शी, व्युत्पन्नमति वाले, चुस्त-दुरुस्त रहने और दिखने वाले लोग ही इस योग्य समझे जाते हैं कि किसी तंत्र की सुव्यवस्था ठीक प्रकार चला सकेंगे। यदि इस प्रकार के मानसिक विकास में कुछ कमी पायी जाय, तो उसे तत्परतापूर्वक सुधार लेना ही उस पद की गरिमा के अनुरूप है।


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