विशिष्ट सामयिक लेख:- - सूर्य नारायण हैं-सृष्टि के पिता हैं

April 1993

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पृथ्वी और सूर्य आदर्श माता-पिता हैं। माँ-संतानों को जन्म देती, प्यार-दुलार देकर अपनी गोद में पाल-पोस का बड़ा करती है। पिता अपनी संतानों व संतानों की माँ के लिए संरक्षण-साधन, ऊर्जा जुटाता रहता है। पृथ्वी व सूर्य के संबंध कुछ ऐसे ही हैं। दोनों आपस में मिल-जुल कर इस व्यापक विश्व गृह की गृहस्थी चला रहें हैं। पृथ्वी सूर्य की परिक्रमा करती, उससे प्रकाश ग्रहण करती और जीवित रहती है। आदर्श पत्नी की तरह उसकी सत्ता सूर्य के गहरे आकर्षण से सघन एकात्मकता में बँधी है। सूर्य भी अपने उत्तरदायित्वों की उपेक्षा नहीं करता। अपनी समग्र संपदा का अजस्र अनुदान उसे खुले हाथों से प्रदान करता है और उसके रोम-रोम में जीवन संचार करने में अपने साथ हुए ग्रन्थि बंधन को पाणिग्रहण को सार्थक बनाता है।

कभी सूर्य और पृथ्वी एक ही गोलक में संयुक्त थे। जैसे सृष्टि के प्रारंभ में नर और नारी एक थे। पीछे परिस्थितियों ने दोनों को अलग कर दिया फिर भी उनकी महानता में कोई अंतर नहीं आया। परमात्मा का एक अंश ही जीव है। कभी दोनों एक थे अब वे अलग हो गए, फिर भी मूलसत्ता की विशेषता दोनों पक्षों में यथावत-विद्यमान है। पृथ्वी सूर्य से दूर है तो भी अपने मूल केन्द्र के विशेष वैभव बीच रूप से आत्मा में मौजूद है। पृथ्वी का ठोस पिण्ड थोड़ी-सी परिधि में सीमित है, पर उसका शक्ति क्षेत्र, वायुमंडल बहुत बड़े क्षेत्र में संव्याप्त है।

पृथ्वी कितनी बड़ी है? इसका जवाब छोटी कक्षा के विद्यार्थी तुरंत आठ हजार मील व्यास बताकर दे सकते हैं। पर चूँकि वायु मंडल भी पृथ्वी का ही एक अंग है, धरती की वायुभूत संपदा जिस क्षेत्र में उड़ती फिरती है, उसे भी उसी का एक अंग क्यों न माना जाय। इस प्रश्न के अनुसार पृथ्वी का विस्तार और अधिक बढ़ जाता है। अब से 60-70 साल पहले यह वायुमंडल 7−8 मील माना जाता था। पीछे पाया गया कि वह 100−150 मील तक फैला हुआ है। रेडियो संचार की खोज ने उसे 250−300 मील तक पहुँचा दिया। पर अंत यहाँ भी नहीं होता। प्रकृति की दिव्य रंग बिरंगी-झूमती-लहराती हुई ज्योतियाँ आँरिओला लाइट्स के रूप में दिखाई पड़ती रहती हैं। वे भी बिना वायुमंडल के कैसे चमकती होंगी। यह सोचकर अब वायुमण्डल का विस्तार 700 मील की ऊँचाई से भी अधिक मानना पड़ेगा।

अंतरिक्ष में सैर करने वाले उपग्रहों ने नए समाचार यह लाकर दिये हैं कि वायुमण्डल बहुत आगे तक फैला हुआ है। पृथ्वी की भूमध्य रेखा के चारों ओर दो मोटे-मोटे कवच हैं मानों उसने अपनी कमर में मजबूत मेखलाएँ किसी चीज की बनी है, इसके उत्तर में उस स्थिति को ‘प्लाज्मा’ कहा जाता है। पिछले दिनों तक पदार्थ के तीन स्वरूप बताए जाते रहे हैं-(1) ठोस (2) तरल (3) वायवीय। अब एक चौथा तथ्य और सामने आया है-प्लाज्मा। यह गैसीय स्थिति से भी विरल स्थिति है, इतनी विरल कि उसमें परमाणुओं का विघटन हो जाता है। असल में ठोस धरती का वायवीय विस्तार इतने बड़े क्षेत्र को घेरे हुए है यही मानकर चलना चाहिए। धरती का असली कलेवर इतना ही सुविस्तृत है।

पिछले दिनों यह माना जाता रहा है कि ग्रह नक्षत्रों के बीच आंतरिक क्षेत्र नितान्त शून्य है। अब यह माना गया है कि शून्य नाम की कोई चीज नहीं। सब जगह किसी न किसी रूप में पदार्थ की सत्ता मौजूद है। उसमें ये स्पंदन मौजूद है और प्लाज्मा अथवा अन्य रूपों में पदार्थ की सत्ता विद्यमान है। पृथ्वी की ठोस परिधि समाप्त होते ही वायुमंडल की परत आरंभ होती है। वायु मण्डल के समाप्त होते ही प्लाज्मा की परत आरंभ हो जाती है। तो फिर प्लाज्मा को भी पृथ्वी की ही परिधि क्यों न गिन लिया जाय? पृथ्वी का यह चुम्बकीय क्षेत्र है। प्लाज्मा की हलचलों को सूर्य से गति मिलती है। अतएव सूर्य और पृथ्वी के बीच का सारा क्षेत्र चुम्बक मण्डल बन जाता है। उसी से सूरज और धरती के बीच अति महत्वपूर्ण आदान-प्रदान चलते रहते हैं।

पति-पत्नी के स्थूल क्रिया−कलाप घर-परिवार की छोटी सीमा में सिमटे दिखते हैं। पर वस्तुतः उनका कर्तव्य और उत्तरदायित्व समाज, राष्ट्र और विश्व की सुविस्तृत सीमाओं का स्पर्श करता है। सूर्य पृथ्वी का पोषण करता है पर उतने तक सीमित नहीं है। वह अन्य ग्रहों-उपग्रहों को भी अपने अनुदान देता है। और अनन्त आकाश को अपनी सामर्थ्य से प्रभावित-प्रकाशित करता है। यही बात पृथ्वी की भी है वह सूर्य की अनुचरी तो है। पर अपने ज्येष्ठ बालक चन्द्रमा सहित सुविस्तृत प्रभाव क्षेत्र में अपने अनुदान बिखेर कर ब्रह्मांडव्यापी आदान-प्रदान के निर्वाह का पूरी तरह ध्यान रखती है, न सूर्य न पृथ्वी, कोई किसी के लिए सीमित नहीं होते। कर्तव्य पालन में भी किसी तरह की त्रुटि नहीं रहने देते।

जिस तरह धरती का वायुमंडल सैकड़ों मील तक फैला हुआ है। उसी तरह सूर्य का वायवीय कवच लाखोँ मील तक फैला हुआ हैं। सूर्य का पीलापन लिए जो प्रभामण्डल दूरबीनों से दीख पड़ता है वह उसके इर्द-गिर्द का 6000 मील का आवरण मण्डल है। इसके बाद एक और क्षीण आलोक है। यह एक लाख मील विस्तार का है, उसे सूर्य किरीट कहते हैं। इस किरीट आवरण की हलचलें और आगे बढ़कर लाखों मील तक देखी गई हैं।

सूर्य के वर्ण मण्डल से अलग स्वतंत्र रूप से उड़ती और शून्य में विलीन होती देखी जाती हैं। वे जिधर भी जाती होगी उधर अन्य ग्रहों से संबंधित प्लाज्मा को प्रभावित करती होंगी।

विकरण मेखलाओं का क्षेत्र इतना विशाल है कि उसकी व्याख्या मीलों की परिधि में नहीं की जा सकती और न उन्हें किसी ग्रह विशेष की संपदा माना जा सकता है। यह समस्त ब्रह्मांड का संयुक्त वैभव है, जिसमें सभी ग्रह-उपग्रह सम्मिलित हैं। सूर्य-मंडल का “कॉमनवेल्थ” तो निश्चित रूप से इस श्रृंखला में मजबूती के साथ बँधा हुआ है ही।

सूर्य को प्रसन्नता होती होगी कि उसकी संतानों की माँ निखिल ब्रह्मांड को अपनी सत्ता से प्रभावित करती है और स्वतंत्र-स्वावलम्बी बनाकर अपने प्रखर एवं परिपक्व अस्तित्व का परिचय देती है। पिता को इतना ही उदार होना चाहिए। अपनी पोषित संतानों और संतानों की माँ को अपने उपभोग के लिए ही सीमाबद्ध नहीं करना चाहिए। क्षेत्र की व्यापकता होने से भी उनके परस्पर प्रेम और आकर्षण में किसी प्रकार की कमी नहीं आती।

पति अपना सारा उपार्जन-अनुदान पत्नी को ही दे और अन्यान्य कर्तव्यों का पालन करने के लिए कुछ भी शेष न रखे यह आवश्यक नहीं। आवश्यकता के अनुरूप आदान-प्रदान कही उचित है। समूचा आधिपत्य-अधिकार तो संकीर्ण होना और संकीर्ण बनाना ही कहा जाएगा। पृथ्वी और सूर्य में से कोई भी ऐसा अनुदार नहीं है।

सूर्य की गर्मी और रोशनी जो ब्रह्मांड में चारों ओर बिखरती रहती है। उसका दो करोड़वाँ भाग ही पृथ्वी को मिलता है। यह थोड़ी-सी संपदा ही पृथ्वी को जीवन प्रदान करती है। यदि इस थोड़ी-सी संपदा में थोड़ी-सी भी कमीवेशी पड़ जाय तो लेने के देने पड़ जांय। गर्मी बढ़ते ही धरती की परत झुलस जाय और थोड़ी कमी पड़ जाय तो सब कुछ शीत से अकड़ कर ठंडा हो जाय। ग्रहण और प्रदान में औचित्य का ध्यान रखा ही जाता है।

पृथ्वी के पास एक से एक बड़ी-चढ़ी शक्तियाँ हैं। उनमें एक अति महत्वपूर्ण है-गुरुत्वाकर्षण। इसी के आधार पर वह सौर परिवार के साथ अपना संबंध-संतुलन बनाए हुए है। इसी के कारण उस पर रखे पदार्थ और प्राणी उछल कर अनंत आकाश में उड़ जाने से बचे रह सकते हैं। यह गुरुत्वाकर्षण पृथ्वी को सूर्य से मिला स्नेह, सौजन्य, सद्भाव ही कहा जाएगा। परमात्मा से आत्मा को भी ऐसी ही संपत्ति मिली है यदि वह उसका सही उपभोग कर सके तो पृथ्वी के समान ही अपने सुविस्तृत संपर्क क्षेत्र को संतुलित बनाए रह सकता है।

न्यूटन द्वारा प्रतिपादित आकर्षण नियम की अभी ठीक व्याख्या नहीं हो सकी है। उसका एक अंश ही जाना जा सका है। गुरुत्वाकर्षण क्यों है? क्या है? किस तरह है? जैसे सवालों का जवाब देने में न्यूटन ने अपनी अनभिज्ञता प्रकट की और अभी वे प्रश्न जहाँ के तहाँ हैं। इस बीच कुछ नयी खोजें जमा हुई हैं। समान आवेश वाले कणों का परस्पर धकेला जाना और विपरीत आवेश वाले कणों का आपस में खिंचना यह विद्युत चुम्बकीय बल है। आइन्स्टीन ने इस बल को “फोटान” नामक अणु अंश द्वारा निस्सृत सिद्ध किया है। जर्मन खगोल वेत्ता मिलिगेट और अँग्रेज विज्ञानी पाँल डिराँफ ने यह संभावना व्यक्त की कि हो न हो, गुरुत्वाकर्षण इसी विद्युत चुम्बकीय बल का स्थूल रूप हो। इन्हीं चालीस वर्षों में परमाणु की भीतर एक सौ से भी अधिक सूक्ष्मकण खोजे जा चुके हैं। उन्हें परस्पर बाँधे रहने की क्षमता संपन्न एक नया नाभिकीय बल खोजा गया है। अनुमान यह लगाया गया है कि विद्युत चुम्बकीय बल का केन्द्र यह नाभिकीय सत्ता है जो विकसित एवं विस्तृत होकर गुरुत्वाकर्षण का रूप धारण करती है।

अनेक शोध निष्कर्षों का निर्णय यह कि गुरुत्वाकर्षण पृथ्वी का अपना उपार्जन नहीं है। यह सूर्य का ही अजस्र अनुदान है। जो पृथ्वी ने अपने भीतर मजबूती के साथ गहराई तक जकड़ पकड़ लिया है।

ऐसी और भी अनेक शक्तियाँ हैं। धरती पर बिखरा पड़ा जीवन भी सूर्य का ही अनुदान है। अदृश्य आकाश में वायु, विद्युत, रेडियो, विकिरण आदि न जाने क्या-क्या भरा पड़ा है। चुम्बकत्व और प्रकाश को भी इसी प्रकार के सूर्य द्वारा पृथ्वी को दिए गए उपहार कहा जा सकता है।

इस संसार में तीन प्रकार की चुम्बकीय शक्तियाँ काम कर रही हैं (1) प्राणि चुम्बक (2) धातु चुम्बक (3) पृथ्वी चुम्बक। इन तीनों की त्रिविध शक्तियाँ इस संसार में विभिन्न प्रकार की हलचलों को जन्म देतीं और उनमें रूपांतरण प्रस्तुत करती हैं।

प्राणि चुम्बक वह है जिसके आधार पर प्राणी अपनी भौतिक एवं आत्मिक विशेषताओं का एक दूसरे के साथ आदान-प्रदान करता है। संगति प्रभाव से लेकर प्रजनन प्रक्रिया तक में इसका चमत्कार देखा जा सकता है। इसके अंतर्गत मनोबल, साहस, शौर्य, पराक्रम, तेजस्विता, ओजस, आत्मबल जैसी विशेषताएँ आती हैं। रूप-सौंदर्य के आकर्षण भी इससे जुड़े हुए हैं। एक दूसरे के निकट आने और दूर हटने की अविज्ञात हलचलें भी इसी आधार पर होती रहती हैं। शाप वरदान सिद्धि, चमत्कार और अतीन्द्रिय चेतना को भी इसी परिधि में लिया जा सकता है।

उत्तरी और दक्षिणी ध्रुव चुम्बक के केन्द्र माने जाते हैं। वहाँ से निकलने वाली विद्युत धाराएँ धातुओं को प्रभावित करती है। उस प्रभाव का शक्ति रूप में प्रयोग होता है। यह शक्ति रासायनिक पदार्थों के रूप में परस्पर सम्मिश्रण के द्वारा नवीन यौगिकों का सृजन करती है। अणुओं को उनके अवयवों के साथ सटाये रहती है। अणुओं को उनके अवयवों के साथ सटाये रहती है। बिजली की उत्पत्ति का केन्द्र भी यही है। खदानें इसी आधार पर जमा होती हैं और भी बहुत कुछ इसके द्वारा होता है। कपास की सुई का सिरा सदा उत्तर की ओर रखने में यही धातु चुम्बक ही काम करता है।

धरती को सूर्य से मिलने वाला एक उपहार है प्रकाश। इसकी अनेकों धाराएँ हैं-जो धरती को ऊर्जा का भरपूर अनुदान देती रहती हैं। इन धाराओं में एक का नाम है ‘लेजर’। इसकी खोज कुछ ही समय पहले हुई है। वैज्ञानिक इसके आधार पर बड़ी-बड़ी आशाएँ लगा रहे हैं और उसे अणु शक्ति हाइड्रोजन शक्ति से भी बड़ी मानकर करतलगत करने की कोशिश में जुटे हैं।

‘लेसर’ अपने ढंग का अनोखा प्रकाश है। उसकी सभी तरंग एक ही आवृत्ति की होती हैं। प्रत्येक तरंग एक ही आवृत्ति की होती है। प्रत्येक तरंग एक दूसरे के समानान्तर चलती है। उनमें तनिक भी कालान्तर नहीं रहता। साधारण प्रकाश चारों ओर फैलाता है। किन्तु लेसर एक दिशा में चलती है। यही वह विशेषता है जिसके कारण वह अन्य प्रकाशों की तुलना में अत्याधिक शक्तिशाली सिद्ध हो सका।

लेसर की सभी किरणें एक दूसरे का साथ देती हैं। फलस्वरूप उनकी शक्ति भी उसी अनुपात से बढ़ती जाती है। एक सेण्टीमीटर के दस हजारवें भाग जितनी छोटी जगह पर लेसर किरणें इकट्ठी की गई तो उनकी गर्मी एवं चमक सूर्य को भी मात देने वाली बन गई। कई सालों पहले धरती से ढाई लाख मील दूरी पर घूमने वाले चन्द्रमा पर लेसर प्रकाश की टार्च फेंकी गई थी। उसने एक सेकेण्ड में इतनी लम्बी यात्रा पूरी कर ली और दो मील क्षेत्र को प्रकाश से भर दिया। इसकी सहायता से घने अहंकार में आवश्यक चित्र लिए जा सकते हैं और अधिक से अधिक छोटी दूरी तक उसे भेजा जा सकता है। देखते-देखते एक फुट मोटी लोहे की चद्दर में छेद किया जा सकता है।

ये तो धरती और सूर्य के भावात्मक आदान-प्रदान की यत्किंचित् चर्चा हुई। सूर्य से धरती के लिए आने वाले उपहारों की संख्या और श्रृंखला इतनी लम्बी है-जो देखते-देखते अनन्तता की सीमा छू ले। तभी तो सूर्य को नारायण कहा गया, सृष्टि का पिता माना गया। धरती सृष्टि की माँ है ही। आज धरती का लाड़ला बेटा मनुष्य अपने प्रयास- पुरुषार्थ से उपार्जित ऊर्जा को आवश्यकता से कम अनुभव कर रहा है। उसे नए शक्ति स्रोतों की जरूरत पड़ रही है। इसके लिए उसे पिता सूर्य के आगे हाथ पसारना पड़ेगा। वह अपनी संतानों और संतानों की माँ का पोषण-संरक्षण करने में उपेक्षा बरतने वाला नहीं। सूर्य की साधना का उद्देश्य भी यही है कि हम उस अजस्र शक्ति के भांडागार से अनुदान लेकर उन अभावों को पूरा करें, जिनके माध्यम से प्रगतिशील, संपन्न, प्रतिभाशाली बना जा सकता है।


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