पल-क्षण, रात्रि-दिवस, मास-आयन वर्ष के रूप में समय की आँख मिचौनी चलती रही। कभी साधनों का अभाव, कभी आजीविका का, कभी ज्ञान का अभाव, कभी विवेक का कभी शक्ति का अभाव, कभी सामर्थ्य का। सब मिलकर इतने जीवन में कण्व को न कहीं शान्ति मिली न सन्तोष। उन्हें मनुष्य जीवन में सर्वत्र अपूर्णता ही अपूर्णता दिखाई दी। शरीर भी न अपनी इच्छा से मिलता है, न स्वेच्छा से, अन्त होता है, न जाने किन बंधनों में बँधा पड़ा हूँ, ऐसी अशान्ति बार-बार उठती रही। अतएव उनने निश्चय किया वे पूर्णता की प्राप्ति करके रहेंगे।
प्रातः बेला में जब शीतल समीर के सुगंधित झोंकों में सारा नगर निद्रामग्न हो रहा था, कण्व उठे और एक ओर जंगल की तरफ चल पड़े। चलते ही गए, शाम होने को आयी। उन्होंने विशाल शैल श्रृंखला देखी जिसकी एक बाहु दक्षिण के हृदय में प्रवेश कर रही थी, दूसरी उत्तर के अन्तस्तल में। सूर्यदेव अपनी पीतवर्णी आभा के साथ इस अंचल में ही अस्त होते जा रहे थे। उनके लिए वह अलौकिक दृश्य था, आखिर अभी वे बालक ही तो थे। सोच अपनी गोद में भगवान सूर्य को शयन कराने वाले यह पर्वतराज ही पूर्ण हैं। वे वहीं टिक गए और पूर्णता के लिए पर्वत की उपासना करने लगे। इसी पर्वत पर एक और महात्मा रहा करते थे।
पारस्परिक वार्तालाप से पता चला कि इस बालक ने पर्वत की ऊँचाई में ही पूर्णता देखी सो उन्हें हँसी आ गई। उन्होंने हलके से मुसकराते हुए कहा-”रे कण्व! तूने समुद्र देखा होता तो पर्वत की ऊँचाई को कभी भी पूर्ण नहीं मानता।
गाय जिस तरह हरित तृण की खोज में वन-वन भटकती है, उसी तरह वह भी पूर्णता की खोज में भटकने लगे। उन्हें अपनी भूल पर विस्मय हुआ और ज्ञान की लघुता पर दुःख भी। किन्तु एक निश्चय “मुझे पूर्णता प्राप्त करनी चाहिए” का बल उनके साथ था। चल पड़े वह और कई दिनों की यात्रा के बाद वे समुद्र तट पर जा पहुँचे।
विशाल जल राशि अनन्त जीवों को अन्तस्तल में आश्रय दिए अनन्त दूरी तक फैले समुद्र को देखकर उनका मस्तक श्रद्धावनत हो गया। उन्होंने कहा-”धन्य हो प्रभु! तुम्हारी गहराई ही पूर्णता है। सूर्य पर्वत में डूबता दिखाई दिया, वह तो भ्रम मात्र था। अब मुझे पता चला पूर्व एवं पश्चिम दोनों तुम्हारे ही बाहु हैं, एक से सूर्य भगवान निकलते और दूसरे में समा जाते हैं। क्षमा करना प्रभु! हम मनुष्यों की दृष्टि और ज्ञान बहुत सीमित है, इसलिए यह भूल हुई। आगे ऐसी भूल नहीं होगी।”
बाल सुलभ वाणी सुनकर सिन्धुराज अपनी हँसी नहीं रोक सके। उन्होंने कण्व को अपने एक ज्वार की शीतलता का स्पर्श कराते हुए कहा-”वत्स! ऊँचाई और गहराई में पूर्णता नहीं होती। तुम मन्दराचल पर तप कर रहे-तपस्वी वेण के पास जाओ तुम देखोगे उनका तप हिमगिरि के समान उत्तुंग और साधना में मुझ सागर से भी बढ़कर गहराई है। निश्चय ही उनके पास जाकर तुम पूर्णता की प्राप्ति कर सकोगे।”
किसी तरह बीहड़ों-जंगलों को पार करते वे महात्मा वेण के पास पहुँचे और उनके चरणों में अपनी श्रद्धा समर्पित करते हुए भोले बालक ने अभ्यर्थना की-”भगवान्! पूर्णता के लिए भटक रहा हूँ, कहीं शान्ति नहीं मिलती, मुझे अपनी शरण में ले लें और मेरा उद्धार करें।”
बालक की अचल श्रद्धा व भक्ति देखकर तपस्वी का हृदय भर आया। उन्होंने आशीर्वाद दिया “वत्स! यश से आत्मा मुक्त थोड़े ही होती है।” कण्व ने कोमल किन्तु दृढ़ स्वर में प्रार्थना की।
तपस्वी ने एक क्षण बालक की ओर देखा और वे सहसा गम्भीर होते हुए, उन्होंने कहा-”तात! पूर्णता के लिए गहराई और ऊँचाई ही पर्याप्त नहीं, तप से भी कुछ काम नहीं चलता, उसके लिए गति चाहिए। मुझे भी मुक्ति की कामना है, इसलिए मैंने सामाजिक बन्धन तोड़ डाले है, अब मैं केवल अपने लिए स्थिर हूँ। तुम जो कुछ चाहते हो वह मेरे पास कहाँ है? अच्छा हो तुम शुद्धायतन के पास चले जाओ जो काम-क्रोध, लोभ, मोह और यश के प्रलोभनों के बीच भी अपने लक्ष्य के लिए पर्वत के समान अटल और अडिग हैं। उन्होंने गति को तपश्चर्या माना है। वे रात-दिन, बन्धु-बान्धवों पड़ोस और समाज के लिए राष्ट्रीय और अन्तर्राष्ट्रीय सुख-शान्ति के लिए घुला करते हैं। वे मुझ से श्रेष्ठ हैं, उनके पास जाने से तुम्हें अभीष्ट की प्राप्ति हो सकेगी।”
वह उनके पास भी हारे-थके पहुँचे। लगातार की भाग दौड़ में उनका मुख ग्लान हो गया था, होंठ सूख रहे थे। तपस्वी शुद्धायतन ने जल और भोजन से उनका सत्कार करते हुए अपने पास आने का कारण पूछा। कारण मालूम होने पर वह सौम्य स्वर में बोले-”कण्व! इस संसार में ऊँचाई-गहराई, तप और कर्मठता के साथ ज्ञान का होना भी आवश्यक है। तुमको मैं ऐसे ज्ञानी सद्गृहस्थ विरुध का परिचय देता हूँ। वहाँ चले जाने से तुम पूर्णता की प्राप्ति कर सकोगे।
कण्व का शरीर भले इस भटकन से थक गया हो, पर मन में अभीप्सा की ज्वाला धधक रही थी। बिना एक पल रुके वे चल पड़े और कुछ ही दिनों में विरुध के पास पहुँचकर उन्होंने विनीत भाव से अपने आने का उद्देश्य कह सुनाया। विरुध ने उत्तर दिया-”वत्स! मानता हूँ मुझे ज्ञान के कुछ कण मिले हैं। उसने मेरे व्यक्तित्व को सीमित कर दिया है। अहंकार मनुष्य के संसार को छोटा कर देता है। उसके रहते पूर्णता की कल्पना कहाँ की जा सकती है। जीवन का वास्तविक तत्व संवेदना है। भावुकता-संवेदनशीलता-भावना के क्रम में जिसने अपने अन्तःकरण को विकसित कर ईश्वरीय प्रेम को पा लिया है वही पूर्ण है। समर्पण और प्रेम के मर्म को जानने वाले भक्त देवदास के पास तुम चले जाओ। आशा है, तुम्हें अपने लक्ष्य की पूर्ति का साधन वहाँ मिल जाएगा।
अब तक वे बहुत थक चुके थे। इतने दिनों तक यदि वे किसी एकान्त में बैठकर तप करते तो शायद पूर्णता का प्रकाश पा लेते। पर यहाँ तो अभी तक भटकने के अतिरिक्त कुछ हाथ न लगा। पर यह तो हमारी सोच है। कण्व तो ब्रह्म जिज्ञासा की अनन्त प्यास लेकर भटक रहे थे। उसका बुझना तो लक्ष्य प्राप्ति के साथ ही सम्भव था।
उनके कदम आगे बढ़ते गए और भक्त देवदास की शरण में जा पहुँचे। उन्होंने कहा-”भगवन्! मुझे भक्ति के दर्शन कराइए। मैंने सुना है, भक्ति से पूर्णता की प्राप्ति होती है।”
भक्त देवदास मुस्कुराए और कहने लगे-”तात! मैंने अपने कर्ताभाव को भगवान के चरणों में समर्पित करने की कोशिश की। तो भी जब कभी मुझे मोक्ष की कल्पना उठती है। इन क्षणों में मुझे अनुभव होता है कि मेरा कर्तापन पूर्णतया नष्ट नहीं हुआ। जब तक मैं अपनी सीमा मर्यादा में बँधा हूँ और सृष्टि के अणु-अणु में व्याप्त आत्मा के साथ एकरस नहीं हो जाता तब तक पूर्णता कहाँ। तुम वशिष्ठ के पास जाओ, वहाँ सम्भव है तुम्हें कोई उचित मार्ग मिल सके।”
कण्व वशिष्ठ के आश्रम में पहुँचे। आश्रम परिसर से वेद मन्त्रों की मधुर गूँज उठ रही थी। प्रवेश करने पर पाया महर्षि कुछ छात्रों से घिरे बैठे हैं। वह भी जाकर एक कोने में चुपचाप बैठ गए। ऋषि व्यक्तित्व के मर्म को समझाते हुए कह रहे थे-”जीवन का तत्व संवेदना है। ईश्वरीय प्रेम के रूप में यह परिणत हो सका इसकी एक ही कसौटी है-सेवा। सेवा का अर्थ किसी की शारीरिक सहायता भर नहीं, वैचारिक सहायता भी है। उसके आत्मोत्कर्ष के प्रयास भी इसी में समाहित हैं। जिसने स्वयं को इसके लिए पूर्णतया समर्पित कर दिया वह पूर्ण हो गया।”
पाठ समाप्त ही होने को था इतने में एक अन्तेवासी किसी व्यक्ति को सहारा देकर लाए। उसके कपड़े पूरी तरह भीगे हुए थे। वह अर्ध बेहोशी जैसी स्थिति में था। महर्षि स्वयं उसकी सुश्रूषा में जुट गए। विद्यार्थी उनकी सहायता कर रहे थे। होश में आने पर उस व्यक्ति ने बताया कि जीवन से उकताकर उसने सरयू नदी में कूदकर आत्म हत्या की कोशिश की। परन्तु बचा लिए जाने के कारण वह अपने प्रयास में सफल नहीं हो पाया। महर्षि बड़े प्रेम से उसकी समस्याओं को पूछते और निराकरण सुझाते थे। इसे महर्षि का तप प्राण कहें या हृदय की प्रेम सामर्थ्य आगन्तुक में जीवन की उमंग जीवित हो उठी। सद्विचारों की जीवंतता लिए वह अपने घर की ओर लौट पड़ा। इस कार्य में शाम हो गयी थी। परिचर्या से निवृत्त होने पर ब्रह्मर्षि वशिष्ठ ने कण्व के कन्धे पर अपना स्नेह भरा हाथ रखते हुए कहा “किस कारण आए वत्स?” कण्व अपनी आँखों में भाव बिन्दु सँजोये बोले “भगवान्! पूर्णता के लिए भटक रहा था। आपके चरणों में आकर पूर्णता का मर्म पा लिया।”