धारावाहिक विशेष लेखमाला-5 - युग पुरुष पूज्य गुरुदेव पं. श्रीराम शर्मा आचार्य

April 1993

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“वैज्ञानिक अध्यात्मवाद के जन्मदाता उस एक श्रेष्ठ साधक के रूप में परिचय देने वाले चार विवरणों के बाद इस अंक में हम दे रहे हैं गुरुसत्ता के अंतःकरण की करुणामयी सत्ता के विवेचन का पूर्वार्ध। उन्हीं की विभिन्न उक्तियों के माध्यम से यह बताने का प्रयास किया गया है कि एक करुण-ममत्व लुटाने वाले-एक विराट परिवार के संरक्षक के रूप में उनका जीवन वृक्ष कैसे विकसित हुआ। एक एक पंक्ति प्राणवान है एवं इसमें साधना की पराकाष्ठा-अतः की संवेदना का मूल मर्म छिपा पड़ा है। अगले अंक में पढ़ेंगे उस करुणामयी सत्ता के जीवन से जुड़े कुछ व्यावहारिक प्रसंग जो हम सबके लिए प्रेरणा के स्रोत बन सकते हैं।”

कहते हैं-दो अंजलि में महर्षि अगस्त्य ने समूचा समुद्र पी डाला था। यदि हम-आप भी पू. गुरुदेव के व्यक्तित्व महासागर को दो शब्दों में समेटना-आत्मसात् करना चाहें, तो वे दो शब्द होंगे- प्रेम व करुणा। यही उनका वास्तविक परिचय है। करुणा, प्रेम, छलकती संवेदना, उफनती भावना ही उनके व्यक्तित्व के उपयुक्त पर्यायवाची शब्द हैं। इन्हीं के सहारे उनके जीवन का चित्राँकन कर सकना संभव है।

संसार उन्हें लेखक, मनीषी, समाज-सुधारक, ऋषि, तपस्वी, ज्ञानी योगी जैसे न जाने कितने रूपों में देखता पहचानता है। लेकिन वह स्वयं अपने को किस रूप में अनुभव करते थे? अच्छा हो इसे उन्हीं के शब्दों में पढ़े-”कोई अपनी चमड़ी उखाड़ कर भीतर का अंतरंग परखने लगे तो उसे माँस और हड्डियों में एक तत्व उफनता दृष्टिगोचर होगा, वह है असीम प्रेम। हमने जीवन में एक ही उपार्जन किया है प्रेम। एक ही संपदा कमाई है-प्रेम। एक ही रस हमने चखा है वह है प्रेम का।”

यह उपार्जन उतना सरल नहीं हैं, जितना देखने सुनने में समझ पड़ता है। बोल-चाल की भाषा में अपने को ‘प्रेम’ तत्व का जानकार कहने-समझने वाले हजारों लाखों की संख्या में मिल जायेंगे। पर जरा गहरी छान-बीन की हिम्मत जुटायें तो मिलने वाले तथ्यों से उजागर होता है कि उनमें से ज्यादातर मोह-वासना अथवा किसी न किसी आशक्ति के बंधनों में फँसे-बँधे हैं। इन्हीं बंधनों को भ्रमवश उन्होंने प्रेम का दर्जा दे रखा है। अपने भ्रम में वे काँच को हीरा समझकर सँजोने की भूल कर बैठे हैं।

प्रेम का स्वाद पाकर औरों को भी करा देना अपने में गहरी कठिन और दुःसाध्य साधना का अंतिम परिणाम है। सामान्य व्यक्तियों की बात तो बहुत दूर महामानवों में से भी बहुत कम ही इस अंतिम सीढ़ी पर चढ़ सकने में सफल होते हैं। अन्यथा बहुतों को बीच में ही कहीं न कहीं रुक जाना पड़ता है। सूक्ष्म व गहरी दृष्टि के अभाव में महामानवों के जीवन इतिहास के विद्यार्थी इस रहस्य को जानने से वंचित रह जाते हैं। प्रेम तत्व का बीच किस तरह से अंकुरित होता, फूलता-फलता और महावट का रूप धारण करता है इसे गुरुदेव के जीवनक्रम में अनुभव किया जा सकता है।

आमतौर पर देखने में आता है कि हर इंसान में थोड़ी बहुत भावुकता दबी-छुपी पड़ी रहती है। जो कभी-कभी आँसुओं का ज्वार बन कर उभरती, आवेग बनकर प्रकट होती और गायब हो जाती है। यह उभरना प्रकट होती और गायब हो जाती है। यह उभरना प्रकट होना और कुछ नहीं, मानवी आत्मा की चीत्कार है, जो लोभ-लिप्सा, वासना-तृष्णा के बंधनों को तोड़ फेंकने के लिए आतुर-आकुल है। यह प्रेम बीज का अंकुरण है, जो जड़ता के अँधेरे से उबरकर ईश्वरीय प्रकाश को पाना चाहता है। लेकिन इन कोशिशों को सामान्यक्रम में ज्यादातर निष्ठुरता के पत्थरों से दबाकर कुचल-मसल दिया जाता है।

पर गुरुदेव की समूची जिंदगी इसके विकास की दुष्कर तप-साधना बन गई। भावुकता का हर आवेग जीवात्मा के बंधनों को तोड़ता-फेंकता चला गया। भाव बीज का अंकुरण बचपन से ही उन्हें असहाय बूढ़ी, कुष्ठ रोग पीड़ित मेहतरानी की सेवा करने, कमाई के हाथ पड़ी गाय की जीवन रक्षा करने के लिए विवश करने लगा। धीरे-धीरे जीवन की हर चेष्टा, संवेदना की कसक बन गई। संवेदना-भावुकता की विकसित अवस्था है। भावुकता की दशा में आत्मा की कसक भरी पुकार उभरती और विलीन होती रहती है। लेकिन संवेदना बनकर इस स्थायित्व मिल जाता है। संवेदनशील अन्तःकरण हर किसी की पीर को अनुभव करता और प्रतिपल इसे दूर करने के लिए बेचैन रहता है।

अपनी चरम स्थिति में कैसी होगी यह बेचैनी? इसे गुरुदेव की अनुभूति में घुलकर अनुभव करें-”हमारी कितनी रातें सिसकते बीती हैं-कितनी बार हम बालकों की तरह बिलख-बिलख कर फूट-फूट कर रोये हैं इसे कोई कहाँ जानता है? लोग हमें संत, सिद्ध, ज्ञानी मानते हैं, कोई लेखक, विद्वान, वक्ता, नेता, समझते हैं पर किसने हमारा अन्तःकरण खोलकर पढ़ा समझा है। कोई उसे देख सका होता तो उसे मानवीय व्यथा वेदना की अनुभूतियों से करुण कराह से हाहाकार करती एक उद्विग्न आत्मा भर इस हड्डियों के ढाँचे में बैठी बिलखती दिखाई पड़ती।” (अखण्ड ज्योति मार्च 1971)

संवेदना उपजी, इसकी पहचान है संकीर्णता बिखरी। मैं-पन विलीन हुआ। अपनी ठाट-बाट की उमंगे-आवश्यकताएँ, जरूरतें भी गायब हुई। फिर तो गुरुदेव के स्वरों में अन्तरात्मा पुकार उठेगी- अपने को क्या कुछ इष्ट या अभाव है उसे सोचने को फुरसत ही कब मिली? अपने क्या सुख साधन चाहिए इसका ध्यान ही कब आया है। ध्यान आये भी कैसे? वे जिस अन्तःकरण को लेकर जिए हैं, वह सारे जीवन यही करता रहा-”अपने सुख साधन की फुरसत किसे है? विलासिता की सामग्री जहर-सी लगती है, विनोद और आराम के साधन जुटाने की बात कभी सामने आयी तो आत्मग्लानि से उस क्षुद्रता को धिक्कारा जो मरणासन्न रोगियों के प्राण बचा सकने में समर्थ पानी के एक गिलास को अपने पैर धोने की विडम्बना में बिखेरने के लिए ललचाती है। भूख से तड़प कर प्राण त्यागने की स्थिति में पड़े हुए बालकों के मुख में जाने वाला ग्रास छीनकर कैसे अपना भरा पेट और भरे? दर्द से कराहते बालक से मुँह मोड़ कर पिता कैसे शतरंज का साज सजाए?”

संवेदना का जागरण-दो शक्तियों-विभूतियों का वरदान मनुष्य को दे डालता है। पहली विभूति और शक्ति है-

सर्वस्व उत्सर्ग का साहस। सामान्यतया आदमी निष्ठुर जोंक की तरह दूसरों का खून चूस-चूस कर साधन संपत्ति बटोरते और क्रुद्ध नाग की तरह उनकी रक्षा करने में जिंदगी खपा देता है। त्याग, उत्सर्ग, बलिदान की सामर्थ्य उसमें कहाँ? यह तो उसी संवेदनशील हृदय से संभव है- जिसमें उत्सर्ग का साहस उभरा है। फिर तो उसमें भी गुरुदेव के शब्द सक्रिय हो उठेंगे “जो पाया उसका एक-एक कण हमने उसी प्रयोजन के लिए खर्चा किया जिससे शोक संताप की व्यापकता हटाने और संतोष की साँस ले सकने की स्थिति में थोड़ा योगदान मिल सके।” यही क्यों वह तो अपना उदाहरण सामने रखते हुए हम- आपको भी निर्देश देते हैं-”नव निर्माण की लाल मशाल में हमने अपने सर्वस्व का तेल टपका कर उसे प्रकाशमान रखा है अब परिजनों की जिम्मेदारी है कि वे उसे जलती रखने के लिए अपने अस्तित्व के सार तत्व को टपकाएँ।”

दूसरी विभूति के रूप में मिलती है सहिष्णुता। उपद्रवों, व्यंग–कटाक्षों को मुसकराते हुए सुन लेना-सहलेना और अपने लक्ष्य में निरत रहना। सुनें अपनी अनुभूति-”वृक्ष जैसा उदार, सहिष्णु और शाँत जीवन जीने की शिक्षा हमपे वसश्ी। उन्हीं जैसा जीवनक्रम लोग अपना सके तो बहुत है। हमारी प्रवृत्ति, जीवन विद्या और मनोभूमि का परिचय वृक्षों से अधिक और कोई नहीं दे सकता।” संवेदना और क्रोधोन्माद का कोई संबंध है भी नहीं। क्रोध की फुफकार तो अहं पर चोट लगने से उठती है। अहं विसर्जन में तत्पर, संवेदनशील, क्रोधी बनने से रहा। वह तो सतत् अपने लक्ष्य की पूर्ति में, आदर्शों को साकार करने में स्वयं को खपाता रहता है।

संवेदनशीलता अपने विकसित रूप में भावना बन जाती है। कसक के स्थायित्व के साथ इसमें एक नयी चीज आती है- की संबंधों का शारीरिक धरातल से ऊपर उठकर जीवात्मा के स्तर पर विकसित हो जाना। भौतिक दूरियों का कोई मूल्य नहीं रह जाता। ऐसी स्थिति में माँ की ममता जन्म लेती है। दुलार करते अघाती नहीं। आशीर्वाद देते जिसका जी नहीं भरता। कोशिशें सिर्फ पीड़ा निवारण तक सीमित नहीं रहती हैं। आत्मिक उत्कर्ष के लिए प्रयत्न शुरू हो जाते हैं। माँ का ममत्व स्नेहित ज्वार हृदय में निरन्तर घुमड़ता रहता है। क्या दे? क्या करें? सोचते-सोचते मन नहीं भरता।

इसे अनुभव करने के लिए हम अपने हृदय में संपादित अपने आराध्य के दिल की धड़कनों को सुन सकते हैं-”पुरुष की तरह हमारी आकृति ही बनायी है। कोई चमड़ी उघाड़ कर देखे तो भीतर माता का हृदय मिलेगा। जो करुणा ममता, स्नेह और आत्मीयता से हिमालय की तरह निरंतर गलते रहकर गंगा-यमुना बहाता रहता है।” उनके अस्तित्व में हमारे, आपके लिए कैसी भावनाएँ घुमड़ती रहती थी? इसे जानने के लिए जैसे ही हम अपने हृदय के द्वार खेलेंगे उनके शब्द प्रवेश करने लगेंगे-”कोई माता विवशता से अकेली जाती है तो चलते-समय अपने बच्चों को दुलार करती बार-बार चूमती, लौट-लौट कर देखती और ममता से भरी गीली आंखें आँचल से पोछती आगे बढ़ती है। ऐसा ही कुछ उपक्रम अपना भी बन रहा है। सोचते है जिन्हें अधूरा प्यार किया है अब उन्हें भरपूर प्यार कर लें। जिन्हें छाती से नहीं लगाया जिन्हें गोदी में नहीं खिलाया, जिन्हें पुचकारा-दुलारा नहीं उस कमी को पूरी कर लें।” (जून 1971 विदाई से पूर्व)

इन भावनाओं को काल-पाश बाँध नहीं सकता। मौत इनकी छाया तक को छिपाने में असहाय है। अमृत पुत्रो! वे भावनाएँ ही कैसी जिन्हें दूरी थका डाले, मृत्यु डरा दे शरीर बाँध ले समय समेट ले। आज भी अपना और अपने आराध्य के बीच भावनात्मक प्रवाह यथावत है और तब तक बना रहेगा जब तक कालजयी आत्मचेतना का अस्तित्व है। विश्वास न हो रहा हो तो सुनें उनकी वाणी-”लोगों की आँखों से हम दूर हो सकते हैं पर हमारी आँखों से कोई दूर न होगा। जिनकी आँखों में हमारे प्रति स्नेह और हृदय में भावनाएँ हैं उन सबकी तस्वीरें हम अपने कलेजे में छिपाकर ले जायेंगे और उन देव प्रतिमाओं पर निरंतर आँसुओं का अर्घ्य चढ़ाया करेंगे। कह नहीं सकते उऋण होने के लिए प्रत्युपकार का कुछ अवसर मिलेगा या नहीं। पर यदि मिला तो अपनी इन देवप्रतिमाओं को अलंकृत और सुसज्जित करने में कुछ उठा न रखेंगे। लोग हमें भूल सकते हैं, पर हम अपने किसी स्नेही को भूलेंगे नहीं।

ऐसा क्यों न हो? भावना ममता बनकर पनपती और कृतज्ञता बनकर उफनती रहती है। जिसके अन्तःकरण में भावना जितनी विकसित होगी, ममता उतना ही सर्वस्व लुटा डालने को आतुर हो उठेगी। सब कुछ लुटा डालने के बावजूद उसका कृतज्ञ अंतर्मन नतमस्तक बना रहेगा। इन क्षणोँ में भी उनके अस्तित्व में कैसे उफान उठ रहा है सुनना चाहें तो कानों में उनकी अमृतवाणी जाने दें-”जिनने समय-समय पर ममता भरा प्यार हमें दिया है। हमारी तुच्छता को भुलाकर जो आदर, सम्मान श्रद्धा सद्भाव स्नेह एवं अपनत्व प्रदान किया है उनके लिए क्या कुछ किया जाय समझ में नहीं आता। इच्छा प्रबल है कि अपना हृदय कोई बादल जैसा बना दे और उसमें प्यार का इतना जल भर दे कि जहाँ से एक बूँद स्नेह की मिली हो वहाँ एक प्रहर की वर्षा कर सकने का सुअवसर मिल जाय। यदि संभव हो सके तो हमारी अभिव्यक्ति उन सभी तक पहुँचे जिनकी सद्भावना किसी रूप में प्राप्त हुई हो। वे उदार सज्जन अनुभव करें कि उनके प्यार को भुलाया नहीं गया। बदला न चुकाया जा सका तो भी अपरिमित कृतज्ञता की भावना लेकर विदा हो रहे हैं। यह कृतज्ञता की भावना लेकर विदा हो रहे हैं। यह कृतज्ञता का ऋणभार तब तक सिर पर उठाए रहेंगे जब तक हमारी सत्ता कहीं बनी रहेगी। प्रत्युपकार प्रतिदान न बन सका हो तो प्रेमी परिजन समझें कि उनकी उदारता को कृतघ्नतापूर्वक भुलाया नहीं गया। हमारा कृतज्ञ मस्तक उनके चरणों में सदा विनम्र और विनयावत रहेगा जिन्होंने हमारे दोष-दुर्गुणों के प्रति घृणा न करके केवल हमारे सद्गुण देखे और सद्भावनापूर्ण स्नेह सम्मान प्रदान किया।”

भावना का विस्तार जब समष्टि में हो जाता है तब वह करुणा में बदल जाती है। करुणा किसी व्यक्ति विशेष, समूह विशेष के प्रति नहीं, सबके प्रति होती है की नहीं जाती, होती है। इसे ऐसे समझा जा सकता हो या भिखारी वही उसकी खुशबू प्रेमिल मुसकान से विभोर होता चला जाता है। कोई ने आए तो भी वह अपनी सुरभि को अनंत में फैलाता रहता है। सुरभि बिखेरना, मुसकान लुटाना उसकी स्वाभाविक अवस्था है। ऐसे ही करुणा उस व्यक्ति के अन्तःकरण की स्वाभाविक अवस्था है जो बुद्ध बन गया है। इसके नीचे यह विकसित नहीं होती। यह ‘आत्मवत् सर्वभूतेषु’ की भावना का प्रकाश है।

युगऋषि अपनी इस उपलब्धि का शब्दांकन करते हैं-”आत्मवत् सर्वभूतेषु की भावना जैसे ही प्रखर हुई, निष्ठुरता उसी में गलकर नष्ट हो गई। जी में केवल करुणा शेष रह गई। वही अब तक जीवन के अंतिम अध्याय तक यथावत बनी हुई है। उसमें कमी रत्ती भर भी नहीं हुई वरन् दिन-दिन बढ़ोत्तरी ही होती गई।” इस उपलब्धि को सँजोये उनका अन्तःकरण पुकार उठा “जब तक व्यथा-वेदना का अस्तित्व इस जगती में बना रहे, जब तक प्राणियों को क्लेश और कष्ट की आग में जलना पड़े, तब तक इसमें भी चैन से बैठने की इच्छा न हो। जब भी प्रार्थना का समय आया तब भगवान से यही निवेदन किया। हमें चैन नहीं वह करुणा चाहिए जो पीड़ितों की व्यथा को अपनी व्यथा समझने की अनुभूति करा सके। हमें समृद्धि नहीं वह शक्ति चाहिए जो आँखों के आँसू पोछ सकने की अपनी सार्थकता सिद्ध कर सके। बस इतना ही अनुदान-वरदान भगवान से माँग और लगा कि द्रौपदी को वस्त्र की अनन्त संवेदनाओं से ओत-प्रोत करते चले जाते हैं।”

यह अवस्था जब अपनी व्यापकता में सघन शाँति, अविराम प्रसन्नता, गहरी एकात्मकता, जो जन्म देती है तब उसे “प्रेम” कहते हैं प्रेम का विकास भाव विकास का चरमोत्कर्ष है। रामकृष्ण कहा करते थे सबको इसकी उपलब्धि नहीं होती। उनके अनुसार तीन अतिमानव ही इसके रस को चख पाए। इनमें प्रथम है राधा-दूसरे चैतन्य-तीसरे स्वयं श्रीरामकृष्ण। वर्तमान युग में पुनः श्री रामकृष्ण ने स्वयं ‘श्रीराम’ के रूप में आकर पुनः एक बार घोषित किया “हमने एक ही रस चखा है वह है प्रेम का।”

प्रेम आन्तरिक सद्गुणों के विकास का केन्द्र है। इसकी हलचलें समस्त गुणों को प्रभावित करती रहती है। गुरुदेव के शब्दों में-”आन्तरिक सद्गुण किसी अभ्यास प्रयोग से पाये बढ़ाये नहीं जा सकते वरन् प्रेम तत्व की स्थिति के जुड़े होने के कारण उसी अनुपात में घटते-बढ़ते हैं, जैसे कि प्रेम भावना का उत्कर्ष अपकर्ष होता है। प्रेम तत्व अन्तःकरण में जितना होगा, उसी अनुपात में सद्गुणों का विकास होगा और इसी विकास से आत्मबल की मात्रा नापी जा सकती है।”

कहना न होगा इन शब्दों में उनकी आत्मानुभूति है। जिसे और अधिक स्पष्ट करते हैं-”प्रेम ही परमात्मा है। किसी व्यक्ति के कलेवर में परमात्मा ने कितने अंशों में प्रवेश किया, उसकी परख करनी हो तो यह देखना होगा कि उसके अन्तःकरण में प्रेम तत्व की

मात्रा के अनुरूप समझा जाता है।”

तनिक आगे बढ़ चलें तो पाते हैं उनकी आत्माभिव्यक्ति-”एक प्रेमी अनेक प्रेमिकायें यह आश्चर्य अध्यात्म जगत में ही संभव है। प्रेम से भरी आत्मा को अगणित सत्प्रवृत्तियाँ असीम प्यार करती हैं। उत्कृष्ट प्रेम और उसके आधार पर एकत्रित सत्प्रवृत्तियाँ जीवन को आनन्द-उल्लास से भरा पूरा बना देती हैं। द्वैत की अद्वैत में परिणति, अहंता का समर्पण में विलय, इसी का नाम मुक्ति है। सच्चिदानन्द की उपलब्धि का यही मर्म स्थल है। हमारी अनुभूति और उपलब्धियों का यही निष्कर्ष है।”

प्रेममय हो संव्याप्त परमात्मा कहीं किसी लोक का वासी नहीं बल्कि कण-कण में समाया है। पर सबसे अधिक जहाँ उन्होंने परमात्मा की घनिष्ठता अनुभव की इसे उन्हीं के शब्दों में कहें तो-”परिजन हमारे लिए भगवान की प्रतिकृति हैं और उनसे अधिकाधिक गहरा प्रेम प्रसंग बनाए रखने की उत्कंठा उमड़ती रहती है। इस वेदना के पीछे भी एक ऐसा दिव्य आनन्द झाँकता है इसे भक्तियोग के मर्मज्ञ ही जान सकते हैं।”

हो सकता है इस मर्म को कोई और भी जानना चाहे। शायद किसी के मन में हुलस उठे, काश! हम भी चख सकते प्रेम-रस। तो अधीर न हों द्वार अभी भी खुला है बस प्रवेश करने के लिए वैसा ही कुछ करना होगा, जो उन्होंने किया। क्या? तो सुनिए उन्हीं के भावों में-”ईश्वर भक्ति का अभ्यास हमने गुरु भक्ति की प्रयोगशाला में व्यायामशाला में आरंभ किया और क्रमिक विकास करते हुए प्रभु प्रेम के दंगल में जा पहुँचे। गुरुदेव पर आरोपित हमारी प्रेम साधना प्रकारांतर से चमत्कारी वरदान बनकर लौटी है।” इस चमत्कारी वरदान को पाने के अवसर हमारे आपके सामने भी हैं। बस करुणा व प्रेम से लबालब भरा अंतःकरण चाहिए तथा गुरु के प्रति अनन्य भक्ति।


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