मंत्रशक्ति को सबल-प्राणवान बनाती है, श्रद्धा-संवेदना

April 1993

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मंत्रजप एक प्रकार से शब्द विज्ञान की एक शाखा है तो भी भौतिक विज्ञान उसका उपयोग नहीं कर पाता। उसका कारण और कुछ नहीं श्रद्धा-संवेदना का वैज्ञानिक विश्लेषण न कर पाना है। अध्यात्म विज्ञान की बात करते समय इसी तथ्य को यह कहकर प्रकट किया जाता है कि साधक की श्रद्धा इष्ट में जितनी अधिक होगी, उपास्य के प्रति उसका विश्वास जितना अधिक होगी, उपास्य के प्रति उसका विश्वास जितना प्रगाढ़ होगा, परमात्मा से मिलन की छटपटाहट-भक्ति जितनी तीव्रतर होगी, मंत्र का प्रभाव-प्रतिफल उतनी ही जल्दी उपलब्ध होगा। कभी-कभी अनायास ही किसी के मुख से निकले शब्द सच हो जाते है, शाप, वरदान फलित हो जाते हैं। उसमें भी उस व्यक्ति की उस क्षण की भावसंवेदना ही प्रमुख होती है। जब भाव संवेदनायें अपनी चरम अवस्था में उमड़ रहीं हों, उस समय मंत्र सिद्धि द्वारा कभी भी किसी भी समय किसी को भी लाभ पहुँचाया और सहायता की जा सकती है।

साधारणतया शब्द की शक्ति बहुत धीमी होती है। आकाश में बिजली चमकती है तो ध्वनि पहले होती है। प्रकाश पीछे प्रस्फुटित होता है। किन्तु दूरस्थ व्यक्ति को पहले चमक दिखाई देती है और गरज पीछे सुनाई पड़ती है। इसका प्रमुख कारण यह है कि प्रकाश की गति एक सेकेंड में एक लाख 86 हजार मील या 3108 मीटर है। ध्वनि की गति मंद होती है और यह एक सेकेंड में 1120 फुट या 330 मीटर जितनी छोटी दूरी की तय कर पाती है। इतनी स्वल्प क्षमता वाली ध्वनि कोई चमत्कार कैसे पैदा कर सकती है? यह विचारणीय प्रश्न है।

रेडियो, टेलीविजन आज घर-घर पहुँच गये हैं। बी.बी.सी. लन्दन, वी.ओ.ए. न्यूयार्क, रूस, जापान आदि के प्रसारण एक सेकेंड में इतनी दूर बैठे भारतवासी सुन लेते हैं। ऐसा क्यों होता है, जबकि ध्वनि की गति मात्र 330 मीटर प्रति सेकेंड है।

भौतिक शास्त्र के विद्यार्थी जानते हैं कि रेडियो प्रसारण जिस स्टेशन से होता है वहाँ एक बड़ी क्षमता वाला विद्युत जेनरेटर जुड़ा रहता है। यह विद्युतशक्ति चुम्बकीय क्षेत्र से गुजारी जाती है। जिससे उसकी सामर्थ्य भी कई गुना अधिक तरंगित हो जाती है। इन विद्युत चुम्बकीय तरंगों के जहाज पर ही शब्दों के यात्री बैठा दिये जाने हैं जिससे उनकी गति 330 मीटर प्रति सेकेंड से बढ़कर 3+108 मीटर प्रति सेकेंड हो जाती है। इस क्रिया को ‘सुपर इम्पोज्ड रिकार्डेड साउण्ड’ कहते हैं। इस शक्ति से न केवल रेडियो प्रसारण ही संभव हुए हैं, वरन् अंतर्ग्रही राकेटों की उड़ान के समय उन्हें दिशा निर्देश देने, उनकी यान्त्रिक खराबी को दूर करने का भी कार्य इस शक्ति से किया जाने लगा है। सोनोग्राफी से लेकर साउण्ड थेरेपी तक के कितने ही चिकित्सकीय कार्य सम्पन्न होने लगे हैं।

अब शक्ति के एक नये स्रोत “लेसर” की जानकारी वैज्ञानिकों को हस्तगत हुई है जिसकी गति प्रकाश या विद्युत चुम्बकीय तरंगों की अपेक्षा बहुत अधिक है। अनुमान है कि यदि शब्द को इस शक्ति के ऊपर चढ़ा दिया जाय तो व्यक्ति ब्रह्मांड के दूसरे छोर से बैठ कर पृथ्वी के किसी घने जंगल में किसी गुफा के अन्दर बैठे हुए व्यक्ति से उसी प्रकार बात कर सकता है जैसे दो साथ बैठे व्यक्ति कर लेते हैं। यह किरणें इतनी शक्तिशाली होती है कि एक फुट मोटी इस्पात की चादर में सेकेंड के अरबवें हिस्से में ही छेद कर सकती हैं। आँख की पुतली में इसके लाखवें हिस्से में आपरेशन करना हो तो यह किरणें यह कार्य कुशलता पूर्वक संपन्न कर सकती हैं। लेसर किरणों को भविष्य की चिकित्सा का चमत्कार माना जा रहा है। एक दिन वह आ सकता है जब क्षय तथा कैंसर जैसे असाध्य रोगियों को एक पंक्ति में लगाकर रेल की टिकटें बेचने जितने समय में चंगा करके भेजा जाया करेगा। मंत्र से भी ऐसी ही अपेक्षायें की जाती हैं। मंत्र की शक्ति सामर्थ्य असीम है, वह लेसर किरणों से कम नहीं, वरन् अधिक ही है।

मंत्र जप-प्रक्रिया में भी इसी तरह की शक्ति तरंगों का उत्पादन और समन्वय होता है। पर उसका प्रभाव साधक की अस्त−व्यस्त मनःस्थिति के कारण दिखाई नहीं देता। “योगः चित्तवृत्तिश्चनिरोधाः” अर्थात् चित्त वृत्तियों को एकाग्र करना ही योग साधना का उद्देश्य है। पातंजलि योग दर्शन का एक सूत्र बताता है कि मंत्र जप के साथ मन की बिखरी हुई शक्तियों को समेटना आवश्यक है। इसी से जप ‘शक्तिशाली बनता हैं। यह शक्ति विद्युत चुम्बकीय क्षमता की तरह है और प्रारंभिक है। अन्तिम अवस्था तो मंत्र के साथ-साथ भाव संवेदना का ही जुड़ना है।

भावनाओं की शक्ति मन की शक्ति से अनेक गुना अधिक है। परामनोविज्ञान के अनुसंधानकर्ताओं को ऐसे अनेक उदाहरण मिले हैं जिन्हें ‘टेलीपैथी’ या दूर संप्रेषण के नाम से जाना जाता है। इस संदर्भ में ‘साइको काइनोसिस’ नामक एक स्वतंत्र विज्ञान ही विकसित कर लिया गया है जिसमें मनुष्य की भाव संवेदनाओं से लेकर अतीन्द्रिय क्षमताओं तक की विज्ञान सम्मत जानकारियाँ सम्मिलित हैं। पाया गया है कि अब अत्यधिक संवेदना की स्थिति में पृथ्वी के किसी वायरलैस-टेलीफोन के संदेश पहुँचाया जा सकता है। जबकि टेक्नोलॉजी में आज तक शब्द तरंगों को नियंत्रित किये बिना कभी भी यह संभव नहीं होता। यही कारण है कि रेडियो स्टेशन के प्रसारण रेडियो से तो सुने जा सकते हैं, पर रेडियो वाला स्वयं रेडियो स्टेशन वाले को कुछ नहीं कह सकता। मंत्र जप और भाव संवेदना की यह विशेषता उसे भौतिक उपार्जन से अधिक महत्वपूर्ण बनाती है। मन्त्रशक्ति केवल, वरन् साधक के व्यक्तित्व में भी प्रकंपन पैदा करती है। उससे उसका व्यक्तित्व भी प्रखर प्रकाशवान बनता चला जाता है।

मदन मोहन मालवीय जी के जीवन की एक घटना है। वे तब इलाहाबाद में थे और उनकी माँ वाराणसी में थी। माँ एक दिन दुर्घटनावश आग से बुरी तरह जल गयीं। उसी समय उन्होंने सम्पूर्ण हृदय से मालवीय जी को याद किया। उसकी प्रतिक्रिया तुरन्त मालवीय जी को तीव्र जलन के रूप में हुई। उनके अंतःकरण ने तुरन्त अनुभव किया कि माँ जल गई है। वे तत्काल बनारस पहुँचे और वस्तुस्थिति को सत्य पाया। जगत् गुरु आद्य शंकराचार्य के संबंध में भी ऐसा ही एक प्रसंग है। उन्होंने बचपन में अपनी माँ को उनका दाह संस्कार स्वयं अपने हाथों से करने का वचन दिया था। उनकी मृत्यु के समय वे उत्तर भारत की यात्रा में थे, जहाँ उन्हें माँ की अभ्यंतर वाणी सुनाई दी और वे मध्य यात्रा से ही घर लौट पड़े और ठीक समय पर पहुँच कर माँ का अन्तिम संस्कार संपन्न किया। संत ज्ञानेश्वर एवं रामकृष्ण परमहंस के बारे में प्रसिद्ध है कि उन्हें मानवेत्तर प्राणियों की भावसंवेदनाओं भी अपनी मर्मांतक पीड़ा से अवगत करा देती थी। निरीह प्राणियों के शरीरों पर पहुँचने वाले कष्ट स्वयं उनकी काया पर उभर आते थे।

भावनाओं का विज्ञान समझ में न आता हो, यह अलग बात है, पर उनके अस्तित्व से कोई इनकार नहीं कर सकता। वह किन प्रकाश परमाणुओं का उपादान है, संभव है भविष्य में उसका पता चल सके, पर उनकी शक्ति सामर्थ्य दैनिक जीवन-व्यापार में हर कोई देखता है। भावनाओं के आधार पर ही सृष्टि की क्रीड़ा चलती रहती है। भावविहीन वातावरण सुनसान मरघट की तरह जान पड़ता है।

मंत्र में यह भावनायें ही-श्रद्धा−विश्वास भक्ति माध्यम से ही कार्य करती है। उन्हें जितना अधिक प्रखर और पवित्र बनाया जाता है, मंत्रशक्ति उतनी ही शीघ्र फल देने लगती है। आधे-अधूरे मन से जपा गया मंत्र फल तो देता है, पर उसमें थोड़ी देर लगती है। मंत्रशक्ति को प्रभावशाली बनाने में अन्तःश्रद्धा की प्रगाढ़ता ही प्रमुख भूमिका निभाती है। यही वह शक्ति है जो मंत्र को जीवन्त और सद्यः फलदायी बनाती है।


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