प्रवास पर भेजा (kahani)

April 1993

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एक राजा बहुत प्रसिद्धि प्रिय था। वह आये दिन कुछ न कुछ ऐसे काम करता रहता जिससे उसके नाम की चर्चा होती रहे। सभी उसे दयालु मानते रहें।

एक पर्व पर उसने आदेश निकाला कि वह पकड़े हुए पक्षी खरीदेगा और उन्हें मुक्त करने का पुण्य लाभ करेगा। यह क्रम पूरे एक वर्ष चलेगा।

प्रजाजनों को एक सस्ता धंधा मिल गया उनने बहेलिये की चतुरता सीख ली। हर व्यक्ति रोज दर्जनों पक्षी जाल में फँसा लेता और राजा से उनकी अच्छी खासी कीमत वसूल कर ले जाता। सवेरे से शाम तक राजदरबार में हजारों पक्षी खरीदे और छोड़े जाते। कुछ ही महीने में सारा राजकोष खाली हो गया।

बुद्धिमान मंत्री ने राजा को समझाया कि इस सस्ती वाहवाही में राज्यकोष समाप्त हो रहा है।

जनसाधारण को बहेलिये का धंधा अपनाने का स्वभाव पड़ रहा है। पक्षी त्रास पा रहे है। ऐसी झूठी दयालुता के कोई लाभ नहीं जिसका परिणाम न सोचा जाय।

बुद्धत्व को प्राप्त कर लेने के उपरान्त बुद्ध स्वयं भिक्षा के लिए जाने लगे। जन संपर्क से लोगों की उदारता जगाना और घर पहुँचे सद्ज्ञान का लाभ उठाना यह तीनों ही प्रयोजन भिक्षा से पूरे होते थे। लोकसेवा का निर्वाह भी इस माध्यम से चल जाता था।

भ्रमण प्रवास में बुद्ध एक दिन अपने जन्मभूमि वाले स्थान में पहुँच गये। अन्य घरों में भिक्षा माँगते हुए अपने घर भी पहुँचे। पत्नी यशोधरा दरवाजे पर प्रतीक्षा में खड़ी थी। बुद्ध ने उन्हें माता के शब्द से संबोधित किया और भिक्षा माँगी।

यशोधरा के एक ही संतान थी राहुल। उसे उन्होंने पति के चरणों में समर्पित कर दिया और कहा मेरे पास इतनी ही निजी संपदा है। इसे स्वीकार करें।

बुद्ध अपने पुत्र राहुल को ले गये और उसे भी धर्मचक्र प्रवर्तन के योग्य बनाकर जन मानस को जगाने के लिए प्रवास पर भेजा।


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