परम पूज्य गुरुदेव का एक सामयिक लेख- - क्या कहीं अर्जुन एवं हनुमान हैं?

April 1993

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(चैत्र नवरात्रि 1990 की पूर्वबेला में लिखा गया एक अप्रकाशित लेख)

महाभारत युद्ध चल रहा था। आवश्यकता थी कि पाँचों पाण्डवों में सर्वश्रेष्ठ धनुर्धर अर्जुन ऐसे में अपना पराक्रम दिखाए। किन्तु उस पर तो व्यामोह सवार था। वह कर्त्तव्य युद्ध में कटिबद्ध होने से कतरा रहा था। नाना प्रकार के बहाने गढ़ रहा था। श्रीकृष्ण ने उसकी बहाने-बाजी के मूल में छिपे चोर को पकड़ा और कहा- हे समर्थ परंतप! कमर कस, आँतरिक दुर्बलता को छोड़ और युद्ध में प्रवृत्त हो। बहानेबाजी पर करारी चोट करते हुए कहा-अनाड़ियों जैसा मानस न बता। जो तुझे पतन के गर्त्त में धकेल रहा है। इस उद्बोधन ने अर्जुन की मूर्च्छना जगाई, उसे झकझोर डाला एवं वह गाण्डीव उठाकर नयी मानसिकता के साथ रथ में जा बैठा। कृष्ण उसके सारथी बने वह वह प्रयोजन पूरा हुआ जो श्रीकृष्ण अर्जुन को निमित्त बनाकर पूरा करना चाहते थे।

ऐसा ही कुछ त्रेता के अन्त में हुआ था। उस समय दो कार्य पूरे होने थे-एक अवांछनीयता का उन्मूलन, दूसरा सतयुग की वापसी वाले उच्चस्तरीय वातावरण की रामराज्य के रूप में स्थापना। इस प्रयोजन को राम की अवतारी समर्थसत्ता और लक्ष्मण की पुरुषार्थ-परायणता मिलजुल कर एकनिष्ठ भाव से पूरा कर रही थीं। राम-रावण युद्ध चल रहा था, इसी बीच एक व्यक्तिक्रम आ गया। लक्ष्मण को प्राणघातिनी शक्ति लगी, वे मरे तो नहीं पर मूर्च्छित होकर गिर पड़े।

लक्ष्मण के बिना एक पक्षीय अर्धांग के पक्षाघात जैसी स्थिति से उद्देश्य पूर्ति में व्यवधान उत्पन्न होने जा रहा था। लक्ष्मण के बिना राम सर्वसमर्थ होते हुए भी अपने को असहाय अनुभव कर रहे थे। आवश्यकता यह गुहार मचा रही थी कि लक्ष्मण की मूर्च्छा किसी प्रकार दूर हो। संजीवनी बूटी कहीं से भी तुरंत लाया जाना अनिवार्य था, पर हिमालय जाये कौन? प्रश्न जटिल था किन्तु हनुमान की साहसिकता उभरी, बीड़ा उठाया और वे राम का नाम लेकर चल पड़े। प्राण हथेली पर रखकर जैसे भी बने पड़ा। ढूँढ़-खोज करते हुए संजीवनी बूटी लेकर वापस लौटे। संकट टल गया। दोनों भाई वह करने में जुट गए जिसके लिए उनका अवतरण हुआ था। अवाँछनीयता से पीछा छूटा एवं वह बन पड़ा जो सतयुग की वापसी के लिए अभीष्ट था।

दोनों उदाहरण आज भी आधुनिक संस्करण के रूप में देखे जा सकते है। युगान्तरीय चेतना का दिव्य आलोक देवी आकाँक्षा की पूर्ति में जुटा है। प्रज्ञापुत्रों की सामूहिक संगठन शक्ति और निर्धारित क्रिया–कलापों में जुटी तत्परता को लक्ष्मण स्तर की प्रतिभा कहा जा सकता है। दोनों की समन्वित शक्ति यदि ठीक तरह काम कर रही होती तो युगसंधि के विगत कुछ ही वर्षों में ही महत्वपूर्ण कार्य संपन्न हो गया होता। फिर किसी को इक्कीसवीं सदी के गंगावतरण में किसी प्रकार का संदेह करने की गुँजाइश नहीं रहती।

पर उस दुर्भाग्य का क्या किया जाय जो लक्ष्मणी रूपी परिजनों की संगठित शक्ति की तत्परता में मूर्च्छना की स्थिति में ले जा पहुँची। उसे उस मेघनाद रूपी विग्रह का मायाजाल भी कहा जा सकता है जो आड़े समय में उदासीनता-उपेक्षा के रूप में सामने आ खड़ा हुआ है। आपत्तिकाल की चुनौती सामने हो और परिजनों के समक्ष यह व्यामोह हो कि वे युगधर्म से कन्नी काट लें तो इस विडम्बना को क्या कहा जायेगा? इसे उज्ज्वल भविष्य के मार्ग आड़े आने वाला दुर्भाग्य भी कह सकते हैं एवं असुरता का आक्रमण भी। लक्ष्मण की साँसें तो चल रही हैं पर उनका धनुषबाण इन दिनों वह चमत्कार नहीं दिखा पा रहा है जिसकी महाकाल ने अपेक्षा की थी। लक्ष्मण की यह विपन्नता तपस्वी राम को खल रहा है इसका आकलन जीवन्तों की प्राण चेतना ही कर सकती है। लिप्सा-तृष्णाएँ तो केवल मूकदर्शक भर बने रहने का परामर्श दे सकती है। ऐसे में सबसे बड़ी आवश्यकता उस हनुमान स्तर की भाव चेतना की है जो अभीष्ट पुरुषार्थ प्रदर्शित करके बिगड़े काम को बनाने में संलग्न होकर अपनी वरिष्ठता और यशोगाथा को चिरकाल तक जन-जन की चर्चा का विषय बनाने। अनुकरण और अभिनंदनीय स्तर का पौरुष प्रदर्शन करने का ठीक यही समय है।

मिशन के समस्त दायित्व युगसंधि के साथ जुड़े है। इक्कीसवीं सदी के गंगावतरण को इस भगीरथ की आवश्यकता है जो सूखे पड़े विशाल क्षेत्र की प्यास बुझाने के लिए भाव तरंगित हों और राजपाट का व्यामोह छोड़कर तप−साधना का मार्ग अपनाने का साहस दिखा सके।

जिनका साहस उभरे उन्हें करना इतना भर है कि युगधर्म के परिपालन में वरिष्ठों को क्या करने के लिए बाधित होना पड़ता है, इसका स्वरूप उन्हें समझाते हुए उन्हें नये सिरे से नयी उमंगों का धनी बना सकने की स्थिति उत्पन्न कर सकें। अपने समर्थ, प्रबुद्ध एवं पच्चीस लाख व्यक्तियों के परिकर के लोग ही नवसृजन में जुट सकें तो असंख्यों अनेकों को अपना सहयोगी बनाने में निश्चित रूप से सफल हो सकते हैं। संयोगवश दैवी प्रवाह भी इसी दिशा में बह रहा है। उसके साथ जुड़कर रज, कण और तिनके, पत्ते भी आकाश चूमने में समर्थ हो सकते हैं। नवसृजन की, औचित्य की प्राणप्रतिष्ठा के लिए आकुल-व्याकुल युगान्तरीय चेतना अब तक के सभी महान् परिवर्तनों की तुलना में अधिक शक्तिशाली सिद्ध होगी, अगले दिनों हम उन्हीं चर्मचक्षुओं से ऐसी संरचना को सामने खड़ी देखेंगे।

प्रयोजन की पूर्ति के लिए इसी नवरात्रि से लेकर आगामी आश्विन नवरात्रि तक के प्रायः छः महीनों के लिए एक छोटी योजना सामयिक दृष्टि से बताई गई है। जिनके मनों में अनुरोधजन्य स्फुरणा उठे, उन्हें इतना छोटा निर्धारण तो पूरा कर लेना चाहिए जो इस प्रकार है-

अपने संपर्क क्षेत्र के प्रज्ञा परिजनों के घरों तक पहुँचने का योजनाबद्ध कार्यक्रम बनायें और उनसे कहें कि यह समय शिथिलता, उपेक्षा का है नहीं। अपने समय में से दो घण्टे नित्य तो युगधर्म के निर्वाह में लगना ही चाहिए। घर-घर दीपयज्ञ जन्मदिवसोत्सव मनाते हुए धर्मतंत्र से लोकशिक्षण की प्रक्रिया को आगे बढ़ाने का यह समय है।

समयदान को नियोजित करने के लिये दो कार्यक्रम चलाएँ (।) झोला पुस्तकालय-जिसके अंतर्गत अपने क्षेत्र के शिक्षितों से संपर्क साधकर उन्हें युगसाहित्य पढ़ने वापस लेने का सिलसिला जारी कर देना चाहिए। वह स्वाध्याय की प्रक्रिया है (॥) साप्ताहिक सत्संग-जिसमें सप्ताह में कम से कम एक दिन प्रस्तुत विचारधारा के समर्थक मिल बैठ लिया करें। सहगान कीर्तन, अभिनव संदेशों का प्रवचन तथा दीपयज्ञों का संक्षिप्त आयोजन कर लिया करें।

अखण्ड-ज्योति, युगनिर्माण योजना एवं युगशक्ति गायत्री पत्रिका के पाठकों की संख्या बढ़ाने के लिए प्रयत्नशील रहना। इसी के माध्यम से युग चेतना का संदेश जन-जन तक हर माह अपनी प्राण चेतना समेत जा पहुँचता है। जहाँ संभव हो वहाँ ज्ञानरथ स्वयं चलायें।

अपने समय की ज्ञानसत्ता को युगदेवता को गली-गली घुमाने घर-घर पहुँचाने का यह पुण्य उपक्रम है। अब तो इनमें टेपरिकार्डर, लाउडस्पीकर भी लगा दिये गये हैं जिनसे युगसंगीत भी सुनाया जा सकता है। यह कार्य नौकरों, फेरीवालों से न कराके स्वयं करें।

पुराने या नये प्रतिभावान परिजनों को शान्तिकुँज में निरन्तर चलने वाले शिक्षण सत्रों में से किन्हीं में इन्हीं दिनों सम्मिलित होने के लिए भेजना। यह बैटरीचार्ज कराने की प्रक्रिया है। युगनेतृत्व सँभालने के लिए उपयुक्त पात्रता इसी से उपलब्ध होगी। ये सत्र तारीख 1 से 9, 11 से 19, 21 से 30 में हर माह चलते हैं। किस सत्र में सम्मिलित होना है, इसका विवरण अपने विस्तृत परिचय के साथ भेजकर स्वीकृति की प्रतीक्षा करने को कहा जाय। जिनके लिये संभव हो, उन्हें हर वर्ष आने, नया संदेश, नया उत्साह प्राप्त करते रहने के लिये कहा जाय।

इन पाँचों कार्यों में किसने क्या प्रगति की, इसकी रिपोर्ट लेकर परिजन शरदपूर्णिमा किन्हीं सत्रों में शान्तिकुँज पहुँचे तथा मार्गदर्शन प्राप्त करें। इससे भावी नीति का निर्धारण करने में मदद मिलेगी।


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