सब चले जांय, पर धर्म साथ न छोड़े

April 1993

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वे पुण्य और पुरुषार्थ के प्रतीक माने जाते थे। कर्म-ज्ञान व गुणों की दृष्टि से ब्राह्मणत्व उनमें पूरी तरह प्रकाशित था। तपः तेज से दीप्त मुख मण्डल पर सदा-सर्वदा छायी रहने वाली प्रसन्नता संतोष और शान्ति का परिचय देने के लिए पर्याप्त थी। उनके धर्मशील जीवन में किसी तरह का कोई अभाव न था।

कठोर परिश्रम उनके यहाँ सौभाग्य लक्ष्मी बनकर विराजमान था। चरित्र उनके जीवन का आधार था इसलिए यश-लक्ष्मी भी उनके स्वभावतया आ गई थी। वह अपनी पत्नी कन्या-पुत्र-पुत्रवधू सबको भगवान के प्रतिबिंब मानकर उनका यथोचित आदर-सत्कार और सेवा करते थे। फलस्वरूप घर के सभी लोग भी नेक, ईमानदार और आकर्षित होकर कुल लक्ष्मी ने भी उनके यहाँ वास किया था। उनके जीवन का प्रवाह आनन्द की तरंगें बिखेरता बह रहा था।

पाप की विरोधी शक्तियों ने उनके दुर्भेद पुण्य दुर्ग को भेदने की अनेकों कोशिशें की। अपने सारे गुणों को लेकर इस सुखी परिवार के आस-पास चक्कर लगाता रहा। पर उसे घर में घुसने के लिए कोई छिद्र न मिला। एक-एक परिजन के मस्तिष्क इन्द्रियों, इच्छाओं को उसने उकसाया व भ्रमित करने की कोशिशें की। पर उसके प्रहार ऐसे नष्ट होते गए जैसे धधकती ज्वाला में सूखा काठ गिर कर जल जाता है। पाप सिर धुनता-पछताता घर वापस लौट गया।

उसे दुःखी देखकर एक दिन उसकी भार्या अलक्ष्मी ने कहा-स्वामी! कई दिन से कुछ दुःख दिख रहें हैं। क्या आपकी सहचरी आपका दुःख बँटा सकती है? कहा गया है-”जो स्त्री केवल सुख में ही पति के साथ दे और दुःख में उससे दूर रहे-वह हतभागिनी होती है। आप अपनी समस्या बतायें तो शायद उसका कुछ निराकरण हो सके।”

पाप और अलक्ष्मी (दरिद्रता) दोनों रात भर कूट मंत्रणा करते रहे। पाप ने अपने दुःख का कारण बताया और अलक्ष्मी ने वह योजना जिसके द्वारा उन्हें जीता जा सकता था। प्रातःकाल दोनों बहुत प्रसन्न थे। बढ़ी-चढ़ी सफलताओं के स्वप्न देखकर प्रसन्न होने वाले कुविचारी लोगों की तरह पाप और अलक्ष्मी भी उस दिन फूले नहीं समा रहे थे।

शाम होने तक दोनों उनके पास जा पहुँचे। पाप बूढ़े ब्राह्मण के वेश में और अलक्ष्मी सौंदर्य विभूषिता कन्या के रूप में। जो उन्हें पहचानते थे वे हँस रहे थे कि देखें पाप कितना चतुर है, लोगों को फँसाने के लिए वह कैसे-कैसे आकर्षक रूप रचता है। पाप के माया जाल से वे किस तरह बचते हैं यह देखने के लिए लोग चुप रहे। किसी ने इशारा तक नहीं किया कि तुम्हारे दरवाजे पर पाप और अलक्ष्मी छद्मवेश में आ गए हैं।

ब्राह्मण वेशधारी पाप ने उन्हें पुकारते हुए कहा-”तपस्वियों में श्रेष्ठ पुरन्ध्र। मुझे आज रात ही गाँव पहुँचाना है। राम होने को है ऐसे में मैं अपनी युवती कन्या को साथ नहीं ले जा सकता। मार्ग में चोर-डाकुओं का भय, नदी-नालों और हिंसक जानवरों से खतरा है। मेरे वापस लौटने तक आप इसे अपने घर में रख लें। मुझे मालूम है आप महान धर्म परायण है। आप पर अविश्वास करने का तो कोई कारण भी नहीं है।”

द्वार पर आए हुए अतिथि की बात न मानना भी धार्मिक मर्यादा के प्रतिकूल होगा। इस विचार से पुरन्ध्र ने ब्राह्मण कन्या के रूप में आयी हुई अलक्ष्मी को अपने घर में आश्रय दे दिया। पाप वहाँ से विदा हो गया। उसे प्रसन्नता था अब मुझे इस घर में प्रवेश मिल जाएगा।

ब्राह्मण कन्या के रूप में आयी हुई अलक्ष्मी ने उन्हें अपने साथ अटकाये रखना प्रारम्भ किया। वह सबसे पहले उठती। उनके लिए शौच के लिए जल से लेकर स्नान पूजन तक सब सामान स्वयं अपने हाथों चुनती। इनसे निवृत्त होते ही वह मीठी-मीठी बातें करने बैठ जाती। उनका बहुत-सा समय यों ही बातों में बीतने लगा। अब वे पहले की तरह श्रम नहीं कर पाते थे। उन्हें आलस्य घेरने लगा। स्वाभाविक था कि आय के स्रोत टूटते। संपन्नता निर्धनता में बदलने लगी।

एक दिन वह सो रहे थे। तभी किसी दिव्य ज्योति युक्त स्त्री ने उन्हें जगाया और कहा-”पुरन्ध्र! अब मैं तुम्हारे घर से जा रही हूँ।”“ लेकिन तुम कौन हो और क्यों जा रही हो?” कथन में विकलता टपक रही थी। देवी ने उसी गम्भीर भाव से बताया-”मैं तुम्हारी सौभाग्य लक्ष्मी हूँ। तुमने अलक्ष्मी को आश्रय दिया है सो तुम्हें छोड़कर जा रही हूँ। अब मैं यहाँ नहीं रह सकती।” यह कहकर सौभाग्य लक्ष्मी चल दी। वह बोले कुछ नहीं निर्निमेष नेत्रों से उसका जाना देखते रहे।

सौभाग्य छिन जाने से पास-पड़ोस से तरह-तरह की बातें चल पड़ी। कोई कहता पुरन्ध्र ने ब्राह्मण कन्या से अवैध सम्बन्ध जोड़ लिया है। कोई कहता पुरन्ध्र अब पापी हो गया है। जितने मुँह उतनी बातें। पर उन्हें मानों इन सबसे कोई प्रयोजन ही न था। वह अब भी संध्या और नैमित्तिक कर्म उसी प्रकार करते थे जैसे पहले। अलक्ष्मी के कूट जाल को वह समझते थे। पर वह उनकी कन्या की तरह धरोहर थी। उनके नेत्रों में एक क्षण के लिए भी दूषण उदय नहीं हुआ। लेकिन लोगों को समझाया तो नहीं जा सकता था क्योंकि अलक्ष्मी अब भी अधिक पास रहने लगी थी। उनकी पत्नी को भी उतना समय न मिलता था। अलक्ष्मी के पास रहते हुए उनके व्यवहार में पिता-पुत्र के निश्छल वात्सल्य से भरी पवित्रता थी।

एक रात उन्हें फिर एक ज्योति पुंज स्त्री ने दर्शन दिया। और कहा-”मैं तुम्हारी यश लक्ष्मी तुम्हें छोड़ कर जा रही हूँ।” यश लक्ष्मी चली गई। पुरंध्र के नेत्र नीर उमड़ पड़े। पर उनका खारी जल भीतर ही भीतर बह कर रह गया।

यश छिन गया तो घर में बेटे-बेटियाँ और पत्नी ने भी साथ छोड़ दिया। अपने-अपने घर बनाकर वे लोग अलग-अलग रहने लगे। उनके साथ अलक्ष्मी के अलावा अब कोई नहीं रह गया। कुल लक्ष्मी भी रूठ कर चली गई। वे ब्राह्मण की बाट जोहते रहे, पर वह नहीं आया। चली अलक्ष्मी की भी नहीं वह पुरन्ध्र की पुत्री ही बनी रही। लेकिन किसी के अन्तःकरण की सच्चाई को कौन देखता? सब लोग पुरन्ध्र और अलक्ष्मी को दिन−रात कोसने लगे।

उस रात घना अंधकार छाया हुआ था। हाथ को हाथ नहीं सूझता था। कभी-कभी बादलों की चमक में ही कुछ दिखाई दे जाता था और फिर उसके बाद डरा देने वाली बादलों की गर्जना उस वातावरण को और भी वीभत्स बना रही थी। अलक्ष्मी पास ही सोई हुई थी। पुरन्ध्र को नींद आ रही थी। यकायक उन्होंने देखा, एक दिव्य ज्योति फूटी और कोई देवपुरुष सम्मुख आ खड़ा हुआ।

वह उठ बैठे। उन्हें प्रणाम करते हुए कहा-”भगवान्! आप कौन हैं? क्या आपके आगमन का कारण जान सकता हूँ।”

इस प्रकार प्रश्न करने पर वह दिव्य देहधारी पुरुष कहने लगा-”मैं धर्म हूँ। तुम्हारे घर से सौभाग्य यश और कुल सब चले गये। अब मैं यहाँ रहकर क्या करूंगा? मैं भी जा रहा हूँ।

यह कहकर धर्म ने जैसे ही पीठ फेरी पुरन्ध्र ने उनका हाथ पकड़ लिया और पूछा-”देव। बुरा न माने मैंने आज तक जो कुछ भी किया वह आपकी ही मर्यादा के लिए-आपकी मर्यादा को निभाने के लिए मैंने अलक्ष्मी को अपने पास रखा फिर क्या आप भी मुझे पापी ठहरायेंगे? मैंने भावनाओं को पाला वासनाओं को नहीं। फिर क्या आपका यों ठुकराकर जाना अधर्म न होगा?”

धर्म राम कुछ उत्तर दे सकें- उनमें इतनी भी हिम्मत न थी। वह चुपचाप पीछे लौटे और पुरन्ध्र की देह में अन्तःलीन हो गए। धर्म को जाना न देख सौभाग्य, यश और कुल लक्ष्मी सब नई-नई प्रसन्नता लेकर लौट आई। इस हलचल में अलक्ष्मी की नींद टूट गई। उसने सोचा जहाँ धर्म में इतनी गहरी आस्था है। वहाँ मेरा रहना निरर्थक है। अपने कुचक्र को असफल हुआ देख पाप और अलक्ष्मी ने पलायन किया। दृढ़व्रती पुरन्ध्र पुनः पहले की तरह लक्ष्मी, कीर्ति, सौभाग्य की विभूतियों से विभूषित हो गए।


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