प्राकृतिक चिकित्सालय चलाना अन्य विकल्पों से आयुर्वेद से महंगा पड़ता था। लोग खर्च की अधिकता से उसमें सम्मिलित होने को तैयार न होते।
डॉक्टर भारत के कैलाश मैत्रा ने एक अनोखा प्रयोग किया। उनने रोगियों को थोड़ा-थोड़ा श्रम करते रहने के लिये सहमत कर लिया। इस पुण्य कार्य के लिए जमीन भी मिल गई। मरीजों ने थोड़ा-थोड़ा श्रम देकर झोंपड़े खड़े कर लिये।
उसी भूमि में शाक सब्जी लगाये। गायें पाली। इसी से रोगियों का निर्वाह चल जाता था। जो अच्छे होकर लौटते वे प्रायः एक गौदान आश्रम को दे जाते थे,
इससे उनकी संख्या और पर्याप्त हो गई थी। संचालक की उदारता से प्रेरित होकर भाव चिकित्सा के आधार पर रोगी भी अधिक अच्छे होते थे।