अपने समय का सबसे बड़ा संकट व उसका निवारण

April 1993

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श्रुति वचन है “विहायाऽमूत मश्नुते।” अर्थात् विद्या से अमृत की प्राप्ति होती है। अमृत अर्थात् वह तत्व जिसे पाकर मरना न पड़े। क्या ऐसी अद्भुत वस्तु का प्राप्त हो सकना संभव है। उसका उत्तर हाँ में दिया जा सकता है और कहा जा सकता है कि जिसे यह तत्व उपलब्ध करना हो उसे “विद्या” की प्राप्ति करनी चाहिए।

यहाँ विद्या का तात्पर्य साक्षरता पर अवलंबित भौतिक जानकारियों तक सीमित नहीं है। उसे संसार के स्वरूप और व्यवहार तक भी सीमित नहीं किया जा सकता। उस स्तर की पढ़ाई स्कूलों में चलती है और उसे जानकर अध्यापक अपने छात्रों को सिखाते भी रहते हैं। “विद्या” उस तत्वदर्शन से अवगत कराती है जो व्यक्ति की चेतना परतों का स्वरूप समझाती और उन्हें परिष्कृत करने में सहायता करती है। संक्षेप में इसे इसे दृष्टिकोण का परिष्कार भी कह सकते हैं और जीवनचर्या का सर्वतोमुखी सुनियोजन भी। यही संजीवनी विद्या है। अमृत की चर्चा भी इसी प्रसंग में होती है। जिसने जीवन के अन्तराल को- अंतःकरण को उत्कृष्टता के साथ जोड़ने में सफलता प्राप्त कर ली, समझना चाहिए कि अमृतत्व का अदृश्य स्वरूप चेतना में समाविष्ट करने का सुयोग-सुअवसर मिल गया। दैवी अनुग्रह का ईश्वर दर्शन का ब्रह्म निर्माण का स्वरूप भी यही है। इसी को तत्ववेत्ताओं ने अनेक प्रकार के अलंकारों से सुसज्जित करके वर्णन-विवेचन किया है।

शरीर को संसार के प्राणियों और पदार्थों के साथ किस प्रकार रखना चाहिए। इसकी जानकारी करना-कराना शिक्षा का काम है। अध्यापक और शिक्षालय इसी आवश्यकता की पूर्ति करते हैं। आरंभिक पुष्टि से उसकी आवश्यकता भी है और उपयोगिता भी। किन्तु समझा जाना चाहिए कि लौकिक जानकारियों की अभिवृद्धि करने वाली शिक्षा शरीर यात्रा में एक सीमा तक प्रशिक्षित करने के काम ही आती है। इसीलिए उसे एक पक्षीय या अधूरी माना जाता है। वह प्रायः बहुज्ञ और अधिक उपार्जन में समर्थ बनाकर ही अपनी सीमा पूर्ण कर लेती है।

विद्या प्राप्त करना इसीलिए आवश्यक है कि चेतना को सुसंस्कृत बनाने में उसकी अनिवार्य आवश्यकता होती है। व्यक्ति वस्तुतः आत्मा है। अन्तःकरण उसका क्षेत्र है। इसके उच्चस्तरीय बनाने पर ही चिन्तन, चरित्र और व्यवहार में शालीनता का समावेश होता है। चिन्तन, चरित्र और व्यवहार को देवोपम बनाने में विद्या का प्रभाव और दबाव ही काम आता है। यदि इस लाभ से लाभान्वित हुआ जा सके तो व्यक्तित्व का वह स्वरूप निखर कर सामने आता है जिसके प्रभाव से अन्तरंग और बहिरंग क्षेत्रों में आनन्द एवं उल्लास बखेरने वाले प्रकाश को प्रज्वलित हुआ देखा जा सके।

वैभव का अपना महत्व है। इसलिए उसका पथ प्रशस्त करने वाली शिक्षा को भी आवश्यक माना गया है पर इतने से ही यह संभव नहीं कि आत्मा के साथ जुड़ी हुई विभूतियों को भी उपलब्ध किया जा सके। उन्हें प्रसुप्त स्थिति से जगाकर जागरूक और पुरुषार्थ परायण बनाया जा सके। इसके लिए उस उच्चस्तरीय विवेक को जाग्रत करना होता है जिसे विद्या के नाम से जाना, सहारा और अमृतोपम कहकर उसके साथ जुड़ी संभावनाओं से अवगत कराया जाता है।

शिक्षा की तरह विद्या की प्राप्ति में भी शिक्षार्थी की उत्कंठा और आस्था तो आवश्यक है ही पर जरूरत इस बात की भी है कि उस प्रयोजन के लिए सही मार्गदर्शक मिल सके। उनका प्रायः अभाव ही पाया जाता है। कारण कि वह कार्य मात्र परामर्श से बन नहीं पड़ता। उसके लिए ऐसे प्रशिक्षक चाहिए जिनने उस प्रसंग का स्वयं अभ्यास किया हो जिसका दूसरों को हृदयंगम कराया जाना है। संगीत पढ़ाने वाला और स्वयं गाना-बजाना न जानता हो और मात्र उसका वर्णन विवेचन भर प्रस्तुत करें, संभव नहीं हो सकता। जानकारियों को तो अध्ययन-परामर्श के माध्यम से भी उपलब्ध किया जा सकता है पर जहाँ तक स्वभाव अभ्यास का सम्बन्ध है वहाँ तक उसके लिए अनुकरण की आवश्यकता पड़ती है। साँचे के अनुरूप ही उपकरण, औजार, खिलौने आदि ढाले जाते हैं। जीवनचर्या में उत्कृष्टता का समावेश ऐसा कार्य है जिसे उन्हीं के द्वारा सीखा जा सकता है। जो उस तरह का प्रयोग-परीक्षण अपने जीवनक्रम में सफलतापूर्वक उतार चुके हैं। अखाड़े में अभ्यास करने वाले युवकों को पहलवान बना सकना मात्र दांव-पेंच जानने वाले उस्ताद के लिए ही संभव होता है। अन्यान्य प्रकार के शिल्प–कौशल भी प्रवीण अध्यापक ही नये छात्रों को सिखा सकने में समर्थ होते हैं।

पतन का मार्ग सरल है। किसी वस्तु को ऊपर से नीचे घसीट लेने का कार्य पृथ्वी की गुरुत्वाकर्षण शक्ति ही निरन्तर करती रहती है। पानी ढलान की ओर सहज स्वाभाविक रूप से बहने लगता है। जन्म-जन्मान्तरों के संचित कुसंस्कार हर किसी को पाशविक प्रवृत्तियाँ अपनाने के लिए उकसाते रहते हैं। लोक प्रचलन भी ऐसा है जिसमें अवाँछनीयताओं का ही बाहुल्य पाया जाता है। उनका आकर्षण-उत्तेजन दुष्प्रवृत्तियों की दिशा में ही धकेलता है। यौन कर्म प्राणियों को प्रकृति प्रेरणा ही सिखा देती है। पर यदि आदर्शवादी सत्प्रवृत्तियों को स्वभाव में उतारना हो तो उसके लिए स्वाध्याय-सत्संग, चिन्तन-मनन ही नहीं उपयुक्त मार्गदर्शन और प्रत्यक्ष उदाहरण भी सामने होने चाहिए। इन्हें जुटा सकने वाले ही उत्कर्ष अभ्युदय की दिशा में बढ़ पाते हैं। चिरस्थाई, व्यापक और सर्वतोमुखी प्रगति के लिए इस सुयोग की व्यवस्था होनी ही चाहिए। इस प्रयास-अभ्यास को जीवन साधना के नाम से जाना जाता है। इसी समग्र मार्ग को अपना सकने पर व्यक्तित्व निखरता और प्रगति का पथ प्रशस्त होता है।

कठिनाई एक ही है कि इस प्रकार के अध्यापकों का इन दिनों बुरी तरह अभाव हो गया। जो उच्चस्तरीय सिद्धान्त और व्यवहार अपने आपे में समन्वित करने के उपरान्त दूसरों को भी अपने चुम्बकत्व से आकर्षित कर सकें। जलते हुए दीपक ही अपने निकटवर्ती बुझे दीपकों को प्रकाशवान बनाने में सफल-समर्थ हो सकते हैं।

दूसरों को ऊँची बातें कहना अति सरल है। पुस्तकों में से खोजबीन कर ऐसे प्रवचन आसानी से किये जा सकते हैं। किसी के कथन को नोट करके उसे दुहराते रहने का काम ऐसा है जिसे रटंत के अभ्यासी तोते भी कर सकते हैं। प्रवचनों की-भाषण-परामर्श की कला तो अब असंख्यों का व्यवसाय बन गई है। स्कूल-कालेजों में “लेक्चरारों” की नियुक्ति होती रही है। साइंस योग्यता के प्रशिक्षित अनेकों नौकरी की तलाश में रहते हैं। मजमा लगाकर अपने वाक्-चातुर्य के आधार पर भीड़ जमा कर लेने और घेरा बनाकर खड़े हुए लोगों की जेब से पैसा निकाल लेने वाले बाजीगर गली-चौराहों पर अपना कौशल दिखाते और आजीविका कमाते देख जाते हैं। वकालत के पेशे में तो वाचालता ही प्रमुख है। दलाली के धंधे में ऐसे ही लोग सफल होते हैं। दुकानों में काम करने वाले सेल्समेनों मैन को, बीमा एजेंटों को इस कुशलता के आधार पर अच्छे वेतन मिलते हैं। ऐसा ही कुछ धार्मिक, सामाजिक, राजनीतिक क्षेत्र में भी देखा जाता है। मुखर अभ्यस्त व्यक्ति भी अच्छे भाषणकर्ता-कथावाचक बन सकते हैं। इतने पर भी उनके द्वारा उस प्रयोजन की सिद्धि नहीं हो सकती जिसकी कि आशा-अपेक्षा की जाती है। वक्ताओं और लेखकों से यदि लोगों के व्यक्तित्व ऊँचे उठ गये होते और उनके द्वारा कब का उपयुक्त वातावरण बन सकना संभव हो गया होता, पर ऐसा होता कहाँ है?

आदर्शवादी प्रतिपादनों को सुनने और पढ़ने में भी आज लोग उपेक्षा दिखाने लगे हैं। कहते हैं- ‘‘थोथा चना बाजे घना।” जोर-जोर से बजने वाले ढोल भीतर से पोले होते हैं। “पर उपदेश कुशल होना” एक प्रकार का व्यंग है। मंच पर उचकते-मचकते रहने वाले नेताओं को “अभिनेताओं” की उपमा दी जाती है। इस प्रकार लेखनी और वाणी की अजस्र समझी जाने वाली शक्ति भी अब एक प्रकार से निरर्थक-निष्फल ही सिद्ध होती रहती है। उसे कौतुक-कौतूहल मान समझकर उपेक्षा करते और ऐसे समारोहों में अनुपस्थित रहते ही पाये जाते हैं। अब तो जुलूसों में, रैलियों में, प्रदर्शनों में, सभा-समारोहों में विचारशील जनता को एकत्रित कर सकना प्रायः अति कठिन होता जाता है। ठाली बैठे लोग ही प्रायः ऐसे आयोजनों में इकट्ठे होते-देखे जाते हैं। या फिर उन्हें सफल बनाने के लिए कोई बड़ा-सा कौतुक-कौतूहल खड़ा करने में प्रचुर धन व्यय करना पड़ता है। यही है आज के प्रवचन परामर्श क्षेत्र की वास्तविकता।

लेखन के संबंध में भी यही बात है। सिद्धान्त समर्थक पुस्तकों की बाजार में सबसे कम बिक्री है। इस प्रकार के साहित्य संदर्भ में जनसाधारण की उपेक्षा ही बढ़ती जाती है। कारण एक है कि लेखनी और वाणी के माध्यम से मार्गदर्शन करने वालों की नियत पर सर्वत्र संदेह किया जाता है। उसकी कथनी और करनी में अन्तर पाया जाता है। इस अन्तर को देखते ही सर्वसाधारण के मन में अश्रद्धा उत्पन्न होती है। वे अनुमान लगाते हैं कि यदि प्रतिपादन उपयोगी और व्यवहारिक रहा होता तो उसे यह प्रतिपादन कर्त्ता स्वयं अपने जीवनक्रम में क्यों न उतारते? यदि वह लाभदायक था तो इसे स्वयं कर देखने में चूक क्यों करते? यही एक कारण है जिसने संजीवनी विद्या के क्षेत्र में कारगर अध्यापन कर सकने वालों की एक प्रकार से शून्य स्तर की अभावग्रस्तता सामने आ खड़ी हुई है। उसके अभाव ने जनमानस में संकीर्ण स्वार्थपरता ने बुरी तरह अड्डा जमा लिया है। लोग चतुरता, चालाकी को ही सफलता का बड़ा आधार मानने लगे हैं। धर्मोपदेशकों को उपहासास्पद बनते और क्रिया–कुशलों को सफल संपन्न होते देखकर यही अनुमान लगाया जाता है कि स्वार्थ सिद्धि ही व्यावहारिक है। भले ही वह छल प्रपंच का आश्रय लेकर ही हस्तगत क्यों न की गई हो।

आज का सबसे बड़ा संकट यही आस्था संकट है। जिसके चक्रव्यूह में फँसकर जन समुदाय का स्तर क्रमशः नीचे की ओर ही गिरता-धंसकता जाता है। एक दूसरे को ठगने की प्रवृत्ति ने समूचा वातावरण ही नैतिक प्रदूषण से भर दिया है। नजर पसारने पर बौने और ओछे लोग ही सर्वत्र भरे दीखते हैं। इसका जो परिणाम होना चाहिए वह भी सामने है। फूटे घड़े में पानी भरने की तरह लोगों की बढ़ी-चढ़ी कमाई भी कुछ काम नहीं आ रही है। नीतिमत्ता का अभाव रहने के कारण बढ़ता वैभव दुर्व्यसनों की, दुर्गुणों की प्रदर्शनरत अहंकार की ही बाढ़ उत्पन्न करता है। संपन्नता की अभिवृद्धि के साथ-साथ लोग यदि सभ्य-सुसंस्कृत भी बन सके होते तो कम से कम लोगों का ध्यान वैभव उपार्जन में तो विश्वासपूर्वक लगा होता। पर यह भी बन नहीं पा रहा है। फिर अभावग्रस्तों का तो कहना ही क्या? भूखा यदि उठाईगिरी पर उतारू हो तो बात समझ में आती है। अशिक्षा को अज्ञान की जननी बताकर उसे कोसा भी जा सकता है। पर जब सुशिक्षित और सुसंपन्न भी हेय आचरण में संलग्न दीख पड़े तो आँखों के सामने अँधेरा छा जाता है। समाधान न सूझ पड़ने पर अवरोध अड़ जाता है और व्यक्ति कि किंकर्तव्य विमूढ़ होकर नास्तिक स्तर का अनास्थावादी बनने लगता है। निरंकुश, लक्ष्य रहित व्यक्ति अनुशासन की उपेक्षा करके जो मन आये वो करने लगे तो एक प्रकार की अराजकता का ही बोलबाला हो चलेगा, हो भी रहा है।

परिस्थितियों की विपन्नता पर जितनी गंभीरतापूर्वक विचार किया जाता है और कारण खोजा जाता है तो एक ही निष्कर्ष पर पहुँचना पड़ता है कि चेतना का परिष्कृत कर सकने में समर्थ उस सद्ज्ञान की उपलब्धि का द्वार ही बंद हो गया है, जिसे विचाराधन एवं व्यक्तित्व का उच्चस्तरीय उत्कर्ष कहा जा सकता है। अवरोध इसीलिए अड़ा कि उसके लिए उपयुक्त अध्यापकों की कमी ही नहीं पड़ी समाप्त होने जैसी स्थिति भी आ गई। अपने समय का यही सबसे बड़ा संकट है। निवारण निराकरण इसी का होना चाहिए।


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