जड़ प्रजा है तो चेतन राजा

April 1993

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जड़ एवं चेतन का समन्वय ही यह संसार है। पंचतत्वों की अणुसंरचना का वैषम्य ही विभिन्न पदार्थों के रूप में दृश्यमान होता है। अभिवर्द्धन, परिवर्तन, उद्भव, विकास की प्रक्रिया का संचालन करने वाली सत्ता अनेक स्तर के चित-विचित्र स्पन्द उत्पन्न करती रहती है। गतिमान चक्र अपने विविध कौतुक-कौतूहल उत्पन्न करता रहता है। प्रकृति की क्षमता का कोई आकलन कर पाना असंभव प्रायः है। उसका एक-एक कण अपने में अजस्र ऊर्जा की पिटारी है। आणविक विस्फोट से निकलने वाली ऊर्जा का प्रायः शताँश प्रभाव ही अभिव्यक्त हो पाता है। शेष अंतरिक्ष में ही तिरोहित हो जाता है।

प्रकृति की विविध परतों का अन्वेषण वैज्ञानिक आधार पर किया जाता है। पृथ्वी से उपज, पानी से सींचने, अग्नि से गर्मी प्राप्त करने एवं पकाने की क्रिया से लोग सहस्राब्दियों से परिचित हैं। पिछले दिनों शब्द, प्रकाश, विद्युत, चुम्बकत्व आदि के आधारों पर प्राप्त किये गये आविष्कारों की चमत्कारी परिणति सामने आयी है। इस आधार पर सुविधा साधन भी बढ़े हैं। निकट भविष्य में प्रकृति के अन्य रहस्य और परतें भी खुलेंगी ऐसा सोचा जा सकता है।

चेतना का रूप संसार का दूसरा पक्ष है। इसका अर्थ है-ज्ञान, अनुभव, कल्पना, संवेदना, आस्था आदि के रूप में स्वयं का परिचय देने वाली वह शक्ति जो जड़ जगत को उपयोगी बनाती और उपभोग करती है। वनस्पति, कृमि-कीटक, पशु-पक्षी एवं मनुष्य ऊपर से तो प्रकृत पदार्थों से विनिर्मित काय आवरण ओढ़े रहते हैं? पर उनके भीतर एक स्वतंत्र चेतना रहती है। इसकी इच्छा, आवश्यकता एवं प्रेरणा से काया को विविध क्रिया−कलाप करने पड़ते हैं। परिवर्तन प्रवाह में पदार्थ को उत्पत्ति-विसर्जन चक्र में भ्रमण करना पड़ता है। अतएव काया समयानुसार जराजीर्ण, रुग्ण एवं अशक्त होकर विघटित हो जाती है। फिर भी चेतना का अस्तित्व किसी रूप में बना रहता है और फिर वह नये रूप में अपनी सत्ता का परिचय देती है।

जड़ पदार्थों की भी अपनी विचित्रता है। उनकी क्षमता और विविधता को बारीकी से देखा जाय तो सृजेता की कलाकारिता को देख कर आश्चर्य चकित होना पड़ता है। जड़ पदार्थों द्वारा प्राणियों को जीवनयापन की सुविधा मिलती है यह सही है। पर यह भी तथ्य है कि चेतना के द्वारा ही अनगढ़ पदार्थ को सुन्दर व्यवस्थित एवं उपयोगी बनाया जाता है। जड़ पदार्थों द्वारा प्राणियों को जीवनयापन की सुविधा मिलती है यह सही है। पर यह भी तथ्य है कि चेतना के द्वारा ही अनगढ़ पदार्थ को सुन्दर व्यवस्थित एवं उपयोगी बनाया जाता है। जड़ को प्रजा और चेतन को राजा कहा जाय तो अत्युक्ति न होगी।

प्राचीन काल की तुलना में संसार का स्वरूप बदल गया है। इसे चेतना के कर्त्तव्य का चमत्कार ही कहा जा सकता है। चेतना ने न केवल प्रकृति संपदा को सुन्दर सुव्यवस्थित बनाया है, वरन् स्वयं को अपने हाथों प्रगति के क्रमिक मार्ग पर चलते हुए इस स्थित तक पहुँचाया है। मूर्धन्य मनीषी पी.अलेक्जेन्ड्रोव ने अपनी कृति “द ओरिजिन ऑफ ह्यूमन रेस” में कहा है कि आदिम काल के मनुष्य की तुलना में आज जो समझ, सूझबूझ एवं सृजनात्मक गतिविधियाँ दीख पड़ती हैं उसे चेतनात्मक क्षेत्र का आविष्कार ही कहा जा सकता है।

भौतिक क्षेत्र में वैज्ञानिक प्रगति का चक्र तेजी से घूमा है। अग्नि का प्रज्ज्वलन,पहिए का परिभ्रमण, धार वाले उपकरणों का उपयोग आज भले ही साधारण लगे, पर किसी समय ऐसी ही उपलब्धियों ने मानवी प्रगति का द्वार खोला था। कृषि शिक्षा, चिकित्सा आज स्वाभाविक बन गये हैं, पर किसी समय इन उपलब्धियों ने मानव के भाग्य का निर्माण किया था। ये भौतिक उपलब्धियाँ भी प्रकारान्तर से चेतना की उभरती हुई स्थिति की प्रतिक्रिया हैं, कहा जा सकता है।

स्वामी रंगनाथनंद ने अपने ग्रंथ-”इटरनल वैल्यू इन चेंजिग सोसाइटी” में लिखा है कि “वैज्ञानिक प्रगति भौतिक जगत में बहुत हुई है, पर उसका क्षेत्र वस्तु जगत से लाभान्वित करने के क्षेत्र में सीमाबद्ध होकर रह गया है। चेतना की अपनी निज की स्थिति भिन्न है। विकास के लिए वह क्षेत्र भी असीम विस्तार की संभावनाओं से भरा है। इस दिशा में अन्यमनस्कता दिखाने का परिणाम यह हुआ है कि चेतना की आत्मिक प्रगति की प्रक्रिया एक प्रकार से रुक गई है।” जिस प्रकार कई प्रकार के यंत्र-उपकरण भौतिक पदार्थों एवं क्षमताओं को उपयोगी स्थिति में प्रस्तुत करते हैं लगभग वैसा ही कार्य मनुष्य भी कर पाता है। किन्तु अब मनुष्य यंत्र मानव बनता जा रहा है, पदार्थ के लिए वह और उसके लिए पदार्थ लगता है, इसी कुचक्र में चेतना फँस गई हो और उसने निजी सत्ता का स्तर बढ़ाने में अरुचि दिखानी प्रारंभ कर दी है। जबकि उसका काम इसी स्तर की अभिवृद्धि से जुड़ा हुआ है।

कला, सौंदर्य, संवेदना, शालीनता, करुणा, मैत्री और उत्कृष्टता के प्रति आस्था जैसी सद्भावनाओं के बढ़ जाने से चेतना का स्तर उस स्थिति में जा पहुँचना चाहिए जिसे देव मानव कहते हैं। उपभोक्ता को पशु और उद्धतता को पिशाच कहते हैं। पदार्थ के साथ प्राणी जितना घनिष्ठ रहता है उसी आधार पर उसकी जड़ता बढ़ जाती है और यंत्र मानव जैसी स्थिति में उसे जीवन-यापन करना पड़ता है। चेतना का भावपक्ष विकसित हो जाने पर दृष्टिकोण में उत्कृष्टता का समावेश होता है और स्थिति कुछ दूसरी ही होती है। चेतना का स्तर ऊँचा होने से व्यक्तित्व सुगठित बन पड़ता है। उस समय ऐसी रीति-नीति अपनाई जाती है कि सम्पदायें एवं विभूतियाँ उत्कृष्ट प्रयोजनों के लिए प्रयुक्त हों। चेतना की अविकसित स्थिति उसे माना जाता है जो भावना की दृष्टि से बौनी है, जो संकीर्ण स्वार्थपरता का ताना बाना बुनने में तो कुशलता का परिचय देती है पर व्यापक परमार्थ-शीलता और उदार आत्मीयता भी बनी रहनी चाहिए, इस तथ्य को प्रायः भुला ही बैठती है।

चेतना की विकासमान स्थिति उदार और आदर्शवादी परम्पराएँ स्नेह सद्भाव को बनाये रहती हैं। सद्भाव एवं सत्प्रवृत्तियाँ ही व्यक्ति, समाज, राष्ट्र और विश्व को मानवी महानता के अनुरूप बनाती हैं। सृजन और सहयोग का वातावरण इसी आधार पर बनता है। संकीर्ण दृष्टिकोण के लोग ही अपहरण और आक्रमण की नीति अपनाते हैं और उनकी क्रिया-प्रतिक्रिया से सर्वत्र विषाक्तता फैलती है।

कृमि कीटकों की अविकसित चेतना हमें उपहासास्पद लगती है। ठीक उसी प्रकार सुविकसित देवमानव के लिए हमारी नरपशु जैसी स्थिति निराशाजनक है। महर्षि अरविन्द ने इस तथ्य को स्पष्ट करते हुए कहा है कि अतिमानव के समक्ष मनुष्य बन्दर जैसा लगेगा क्योंकि दुर्बल काया और अभावग्रस्त परिस्थितियों में भी देवमानव अपनी गरिमा के सहारे स्वयं खिलते और दूसरों को प्रेरणा देते हैं इसके विपरीत क्षुद्र दृष्टिकोण रहने पर सुसंपन्न लोग भी कृपणता और तुच्छता की कीचड़ों में पड़े रहते हैं। संपत्ति की शक्ति से सभी परिचित हैं, पर विभूतिवानों की सामर्थ्य कितनी बढ़ चढ़ी होती हैं इसका अनुभव विरले ही करते हैं। विभूतिवान स्वयं उठते हैं और अपने साथ-साथ प्रबल झंझावात के द्वारा धूलिकणों को आसमान तक पहुँचा देने की तरह असंख्यों को ऊँचा उठाते हैं। अपनी प्रतिभा से अंधकार एवं अवसाद की गई गुजरी परिस्थितियों को आलोक और ऊर्जा देकर परिवर्तित कर देते हैं।

भौतिक क्षेत्र में चेतना का विकसित क्रिया−कलाप आदिमकाल से आज तक की प्रगति का पर्यवेक्षण करते हुए जाना जा सकता है। यदि आत्मिकी के परिक्षेत्र में अंतरंग की विभूतियों के विकसित करने में यहाँ तत्परता नियोजित की जा सके तो अनगढ़पन एवं अस्त−व्यस्त स्थिति में पड़ा मनुष्य सहज ही देवमानव जैसी स्थिति में पहुँच सकता है।


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