तप तितिक्षाएँ, जो व्यक्तित्व को प्रखर बनाती हैं

April 1993

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

अभ्यस्त ढर्रा अचेतन की गहराई तक उतर कर स्वभाव का अंग बन जाता है। उसे बदलने या छोड़ने में असाधारण साहस और संकल्प के प्रयोग करने की आवश्यकता पड़ती है। सुधार परिष्कार का प्रयोजन पूरा करने के लिए इस प्रकार का साहस अपनाये बिना काम नहीं चलता। हलके-फुलके ढंग से कोई आदर्शवादी शिक्षा पढ़ी या सुनी तो जा सकती है, पर यह आवश्यक नहीं कि उतने भर से ही परिवर्तन बन पड़े। तर्क, तथ्य और प्रमाण प्रस्तुत करने पर अनौचित्य को बौद्धिक क्षेत्र में अस्वीकार तो किया जा सकता है, पर इतने भर से यह आशा नहीं की जा सकती कि सहमत हुआ व्यक्ति उस प्रकार का आचरण भी करने लगेगा। अभ्यस्त कुसंस्कार परित्याग करने में भी तत्पर हो जायेगा।

देखा गया है कि नशेबाजी के अभ्यस्त समझदारों को समझाने बुझाने पर निरुत्तर तो हो जाते हैं, पर जब भी संचित कुसंस्कार जोर मारते हैं, तभी उस पुरानी आदत के अनुसार जोर मारते हैं, तभी उस पुरानी आदत के अनुसार कार्य करने लगते हैं। जिन्दगी भर यही ढर्रा चलता है। मुँह से लगी आदत छूटती ही नहीं। हर आदर्शवादी परिवर्तन पर यही बात लागू होती है। अनौचित्य का समर्थन कोई खुल आम साहसपूर्वक नहीं करता, क्योंकि वह जानता है कि मर्यादाएँ उत्कृष्टता का ही समर्थन करेंगी। उसमें अपनी आदत और मान्यता का प्रभावशाली समर्थन करते न बन पड़ेगा। इतने पर भी बात जहाँ की तहाँ रहती है। पतनोन्मुख दुष्प्रवृत्तियाँ बड़ी हठीली होती हैं। उनकी जड़े भीतर तक चली जाती हैं। हलके, फुलके मन से उनकी रोकथाम करने पर भी कुछ समय में अपना प्रभाव फिर दिखाने लगती हैं। इस व्यथा से पूरी तरह छुटकारा पाने के लिए लगातार अभ्यास एवं प्रतिरोध की आवश्यकता पड़ती है। इसी सुधार को लक्ष्य मानता पड़ता है और प्रयास को संकल्पयुक्त बनाना पड़ता है, भले ही वह उपक्रम धीमी गति से ही क्यों न चले।

साधन क्षेत्र में आगे बढ़ने वालों को सप्ताह में एक दिन विशेष साधना के लिए इसीलिए रखना चाहिए। आम तौर से रविवार या गुरुवार का दिन इसके लिए अधिक उपयुक्त माना जाता है रविवार प्रखरता पाप नाशक वृत्ति के संवर्धन की दृष्टि से तथा गुरुवार पवित्रता संवर्धन, गुरुभक्ति के अभिवर्धन की दृष्टि से पर यदि असुविधा हो, तो कोई अन्य दिन भी नियत किया जा सकता है। गाँधी जी के मौन का दिवस मंगलवार था। कभी अनिवार्य व्यवधान आ जाता था, तो वे मंगल से पहले या बाद का दिन इस के लिए रख लेते थे। अनिवार्य कारण होने पर दूसरे और भी दिन नियत कर सकते हैं और उस दिन विशेष कठिनाई आ जाने पर उसकी पूर्ति जल्दी ही अगले दिन कर सकते हैं।

इस साप्ताहिक विशेष व्रत में उपवास, ब्रह्मचर्य, मौन स्वाध्याय-यह चार साधनाएँ प्रमुख मानी गई हैं। उपवास जिस स्तर का सध सके, उतना सधना चाहिए। अच्छा तो यह है कि पूरे दिन जल पीकर रहा जाय। आवश्यकतानुसार उसमें नीबू शहद जैसा कुछ मिला लिया जाय। इतना न बन पड़ने पर दूध छाछ, रस, रसा आदि प्रवाह पदार्थ लेकर काम लिया जा सकता है। उतना भी न बन पड़े तो अस्वाद व्रत तो रखना ही चाहिए। बिना नमक शकर का आहार लिया जाय। दोनों समय भोजन न करके एक समय से काम चलाया जाय। यह साप्ताहिक व्रतशीलता का प्रथम चरण है।

जिह्वा का संयम प्रथम संयम है। स्वास्थ के बिगड़ने का प्रमुख कारण यही है। स्वाद लोलुपता में मनुष्य महंगे और पकाने में बहुत झंझट वाले पदार्थ आवश्यकता से अधिक मात्रा में खाते रहते हैं। इसके अतिरिक्त “जैसा खाए अन्न वैसा बने मन” वाली उक्ति भी अक्षरशः चरितार्थ होती है। रजोगुणी तमोगुणी आहार चिंतन और चरित्र को प्रभावित करता है और व्यक्तित्व के स्तर को गिराता है। इसलिए अध्यात्म मार्ग पर पदार्पण करते हुए प्रथम प्रयास यह पूरा करना होता है कि इन्द्रियों में प्रधान मानी जाने वाली जिह्वा की ललक लिप्सा को नियोजित किया जाय। इतना बन पड़ने पर अन्य इन्द्रियाँ भी कुमार्ग अपनाना छोड़ती चली जाती हैं। सप्ताह में एक दिन स्वस्थता को सुरक्षित रखने वाला प्रथम नियम है। इससे मनोनिग्रह में भी सरलता बन पड़ता है।

जिह्वा का दूसरा संयम है-मौन। उसे सप्ताह में एक बार तो अपनाना ही चाहिए। भले ही वह अधिक समय न बन पड़ने पर न्यूनतम दो घण्टे जितनी ही क्यों न हो। उस समय संकेतों से वार्तालाप करना भी निषिद्ध है। प्रयत्न यह करना चाहिए कि मौन वाला समय एकान्त में ही बीते। पूर्ण एकान्त न बन पड़ने पर साथियों को यह बता देना चाहिए कि वे उस समय छेड़खानी न करें। शोर शराबा करके ध्यान न बटायें। इस मौन काल में अपने वार्तालाप में बन पड़ने वाली अशिष्टता की, अनैतिकता की समीक्षा की जाय और जो दोष बन पड़ते हैं उन्हें रोकने की योजना बननी चाहिए। सार्थक सही, सद्भावों की समर्थक चर्चा ही वाणी को मधुर परिवर्तन आवश्यक हो उसके लिए इस मौन काल में ही योजना बनाते रहा जाय।

इसी अवधि में अभक्ष्य भक्षण की आदत से उत्पन्न होने वाले दुष्परिणामों पर भी विचार करना चाहिए। साथ ही यह निश्चय भी करना चाहिए कि आहार में सात्विकता का समावेश करने के लिए किन नियमों निर्धारणों को बनाया-अपनाया जाना चाहिए। संयम के लाभ और उच्छृंखलता के दुष्परिणामों पर विस्तृत विचार करते रहा जाय। उसके कल्पना चित्रों को चेतना के सम्मुख लाया जाता रहे तो विचारों से विचार काटने के सिद्धान्त की पूर्ति बन पड़ती है।

उपाय यह है कि उनकी प्रतिरोधी विचारधारा को चिन्तन-क्षेत्र में उभारने और संयमशील अपनाने के लाभों पर गंभीरतापूर्वक देर तक विचार करते रहा जाय। इस प्रकार अनौचित्य की आदतों एवं मान्यताओं से छुटकारा पाने की पृष्ठभूमि बनती है। संयम को तप कहा गया है। सर्वप्रथम यह तपश्चर्या जिह्वा संयम से आरंभ होनी चाहिए। भक्षण और वचन दोनों में ही सात्विकता के अधिकाधिक समावेश की योजना बनानी और चेष्टा करनी चाहिए। उपवास और मौन वाला समय इसी प्रकार के चिन्तन की बहुलता से बिताना चाहिए।

तीसरा तप है-ब्रह्मचर्य। साप्ताहिक तपश्चर्या के दिन यौनाचार से सर्वथा विरत रहा जाय। साथ ही कामुक विचारणा और कुदृष्टि की चंचलता पर भी प्रतिबंध लगाना चाहिए। सभी जानते हैं कि ब्रह्मचर्य मानसिक सशक्तता और सद्भावना बढ़ाने के लिए अचूक उपाय है। जीवन रस को जो जितना अधिक निचोड़ता है वह उतना ही अधिक खोखला बनता है। दाम्पत्य जीवन का अर्थ एक दूसरे की स्वास्थ संतुलन पर आक्रमण करते रहने की छूट नहीं है। स्नेह, सद्भाव और सहकार के आधार पर दाम्पत्य जीवन को सहज ही सरस, सुदृढ़ और भाव संपन्न बनाया जा सकता है। इस तथ्य को गहराई तक हृदयंगम करते रहने के लिए शारीरिक ब्रह्मचर्य का पालन किया जाता है। क्रिया और विचारणा के बीच समुचित तालमेल रहना चाहिए।

यहाँ कामुक चिन्तन और कुदृष्टि की भयंकरता भी समझने ही योग्य है। मानसिक पाप भी आधे पाप होते हैं। अचिन्त्य चिन्तन से भी व्यक्ति अपराधी बनता है भले ही वह सरकारी कानूनों की पकड़ से बच जाता है। इसलिए माता-पुत्र की, बहिन-भाई की, पिता-पुत्री की, धर्मपत्नी और धर्मपति की भावना ही नर नारी एक दूसरे के प्रति विकसित करें। दृष्टि में भी इसी प्रकार की पवित्रता आती जाय तभी वास्तविक ब्रह्मचर्य सधता है अन्यथा “मुख में राम बगल में छुरी” रहने की तरह पाखंडी प्रवंचना ही बन पड़ती है। साप्ताहिक ब्रह्मचर्य में कायिक ही नहीं, मानसिक चिन्तन की पवित्रता का भी समावेश रहना चाहिए और उसे एक दिन की चिन्ह पूजा न मान कर भावी जीवन की एक सुरक्षित रीति-नीति बना लेने का प्रयास करना चाहिए। दाम्पत्य जीवन में भी यथा संभव इस व्रतशीलता का अधिकाधिक लम्बे समय का अनुबन्ध करना चाहिए। इस वर्जना के परित्याग से दोनों ही पक्षों की असाधारण हानि है। यह तथ्य गहराई से समझ लेने पर दृष्टि की भावना और शरीर की संयमशीलता निभाती रहने में सरलता पड़ती है। साप्ताहिक ब्रह्मचर्य वाले दिन मानसिक चिन्तन में भी अधिकाधिक सात्विकता के समावेश करने का विचार चलते रहना चाहिए।

चौथा सरल तप है-स्वाध्याय। स्वाध्याय अपने संबंध में निरीक्षण-परीक्षण करते रहने और सुधार परिष्कार की योजनायें बनाते रहने को भी कहते हैं। वह तप निजी चिन्तन-मनन से भी बन पड़ता है। वैसे मोटे तौर से जीवन समस्याओं के आदर्शवादी समाधान का पक्षधर अध्ययन विचार-विनिमय भी इसी प्रयोजन की पूर्ति करता है। सद्ग्रन्थों का पठन और मुनि मनीषियों के सत्संग से भी वह प्रयोजन पूरा होता है। इन में से जो भी जिससे जिस प्रकार बन पड़े, उसके लिए समय निकालना चाहिए।

स्वाध्याय को आत्मिक आहार माना गया है। उसकी भी पेट भरने के लिए भोजन के प्रबन्ध करने की तरह ही आवश्यकता है। साधना, स्वाध्याय, संयम और सेवा इन चारों को आध्यात्मिक जीवन का अविच्छिन्न अंग माना गया है। इनमें अधिक सरल और अधिक आवश्यक है-स्वाध्याय इसे बीजारोपण की संज्ञा दी गई है। जीवन को महामानव स्तर का कल्पवृक्ष बनाने में सफलता इसी आधार पर बनती है। इसलिए प्रयत्न तो यह चाहिए कि स्वाध्याय को भी योगाभ्यास का एक महत्वपूर्ण अंग मानते हुए उसे दिनचर्या का एक अंग माना जाय। कम से कम इतना तो अनिवार्य ही होना चाहिए कि सप्ताह में एक दिन इस प्रयोजन के लिए सुनिश्चित रखा जाय। उसमें जितना अधिक समय मनोयोगपूर्वक लगे उसे लगाने के लिए अधिकाधिक समय निकालना चाहिए।

साधना प्रसंग में अनेक तप तितिक्षाओं का वर्णन है। तपाने से धातुएँ शुद्ध होती हैं। कच्ची मिट्टी पक्की बनती है। तपाने से धातुओं की गलाई-ढलाई होती रहती है। गरम करने से ही भोजन पकता है। इन उदाहरणों की तरह जीवन सत्ता को संयम और सेवा की अग्नि में पकाया जाता है। सोने के खरे खोटे होने की जानकारी कसौटी पर कसने और आग पर तपाने से ही संभव होती है। ठीक इसी प्रकार व्यक्ति की बलिष्ठता, साहसिकता एवं उत्कृष्टता तप तितिक्षा का आश्रय लेने पर ही प्रखर होती है। तपस्वी, ओजस्वी, तेजस्वी, मनस्वी बनते हैं। इसलिए शारीरिक, मानसिक और आत्मिक तपों में से जिनसे जो बन पड़े, सध सके, उन्हें उनके लिए प्रयत्नरत रहना चाहिए। साधना, स्वाध्याय, संयम इसलिए नियमित किया गया है।

ऊपर शारीरिक और मानसिक तपश्चर्याओं का ही समावेश है। पांचवीं तितिक्षा सेवा-धर्म अपनाने की उदारता का, परमार्थ-परायणता का परिचय देने की है। उसे दानशीलता भी कह सकते हैं। श्रमदान-समयदान की तरह अंशदान भी पुण्य परमार्थ परायणों में गिने जाते हैं। होना तो यह चाहिए कि दैनिक आय का एक अंश नित्य सत्प्रवृत्ति सम्वर्धन के लिए निकालने के लिए सतत् प्रयत्नशील रहा जाय पर इतना न बन पड़े तो इतना तो करना ही चाहिए कि सप्ताह में एक दिन की आमदनी या जितना न्यूनाधिक बन पड़े उतना धन सद्ज्ञान सम्वर्धन के लिए निकालते रहना चाहिए। संकटग्रस्तों की सामयिक सहायता भी आवश्यक होती है, पर सब से बड़ा पुण्य परमार्थ ज्ञानयज्ञ ही माना गया है। उसका स्वरूप प्रत्यक्ष न दीख पड़ने और परिणाम तत्काल सामने न आने पर भी उसकी गरिमा हर दृष्टि से उच्चस्तरीय ही मानी जाती रही है। धनदान भी सेवा क्षेत्र में श्रमदान की तरह महत्वपूर्ण है। साप्ताहिक अंशदान को योग साधना का पांचवां व एक प्रमुख पक्ष माना जाता है। यह शारीरिक मानसिक के अतिरिक्त साधन क्षेत्र की पांचवीं तपश्चर्या है। इन सभी को समान महत्व मिलना चाहिए, तभी व्यक्ति की आत्मिक प्रगति का पथ प्रशस्त होता है।


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:


Page Titles






Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118