व्यक्ति और परिवेश दोनों ही परस्पर गहनता से जुड़े हुए हैं। प्रथम के क्रिया−कलाप द्वितीय को प्रभावित करते हैं, द्वितीय की हलचलें प्रथम में उद्वेलन उत्पन्न करने वाली होती हैं। मनीषियों ने व्यक्ति के क्रिया–कलापों को द्विविध रूपों में स्पष्ट किया है। प्रथम जिनका केन्द्र उसका स्व का अन्तःकरण होता है जब कि परिधि में समूचा परिवेश समाहित होता है ऐसे क्रिया–कलापों को व्यवहार में अंतर्गत परिभाषित किया गया है।
श्री अरविन्द इन द्विविध स्वत्त्रुपों का सम्मिलित स्पष्टीकरण करते हुए अपनी कृति “सिन्थेसिस ऑफ योग“ में कहते हैं कि “मानव वैयक्तिक और सामाजिक जगत तथा विश्व में आत्माभिव्यक्ति के लिए मन, जीवन और शरीर को प्रयोग करने वाली एक आत्मसत्ता है।” महर्षि अपनी प्रमुख दार्शनिक कृति “द लाइफ डिवाइन” के प्रथम भाग में व्यक्ति एवं परिवेश के संबंधों को समझाते हुए कहते हैं कि “सृष्टि के दृष्टिकोण से व्यक्ति चेतना शक्ति का केन्द्र बिन्दु है। वह समस्त विश्वमय चेतना का केन्द्र है।”
यह केन्द्र और परिधि दोनों ही परस्पर घनीभूत संबद्ध हैं। परिधि की विकृति केन्द्र च्युति का कारण बन सकती है एवं केन्द्र च्युति परिधि में गड़बड़ियों का। यदि इसी अवास्तविक स्थिति को वास्तविक मान लिया जाय तो गड़बड़ियों का सिलसिला लगातार चलता रहेगा। श्री अरविन्द बताते हैं कि शरीर मन व आत्मा के त्रिआयामी व्यक्तित्व में केन्द्रीय आयाम आत्मा है यही वास्तविक केन्द्र भी है। किन्तु आत्मा भी वास्तविक एवं प्रच्छन्न है। यह प्रच्छन्न आत्मा जिसे वह कामनामय आत्मा (Desore Soul) कहते हैं, हमारी प्रेरणात्मक वासनाओं, उद्वेगों सौंदर्य की अनुभूतियों के पीछे है। यह हमारी अहंकारात्मक सत्ता का आधार है जबकि यथार्थ आत्मा चैतन्य सत्ता है। केन्द्र च्युति की स्थिति में हमारा जीवन इसी उपरोक्त अहंकार सत्ता से संचालित होता है।
व्यक्ति का यह अन्तराल बड़ा गहन है। मन का भीतरी भाग जिसे फ्रायड अचेतन कहते हैं मानव में बर्बर बालक-पशु का प्रतिनिधि बताते हैं। जुंग की खोजों के अनुरूप यह व्यक्तिगत भी है और सामूहिक भी। व्यक्तिगत अचेतन में फ्रायड के अधोचेतन व अचेतन सम्मिलित हैं। उसमें वे अनुभव हैं जो भूले और दमित किये जा चुके हैं। सामूहिक अचेतन में भूल प्रवृत्तियाँ आदिम विचार और प्रतीक आते हैं।
फ्रायड व जुंग के इस अचेतन को श्री अरविन्द, अवचेतन कहते हैं। उनके अनुसार यह स्तर सभी परिवर्तनों का विरोध करने के साथ आलस्य, दुर्बलता, अस्पष्टता एवं अज्ञान को सतत् स्थिर रहना चाहता है। इसी के कारण यथार्थ वस्तुओं के आधार अतिचेतन का प्रवाह रुका रहता है।
व्यक्ति के व्यवहार, सामाजिक संरचना, परिवेश के प्रभाव के अध्ययन की दृष्टि से जुंग के सामूहिक अचेतन की खोज अत्यन्त उपादेय है। परिवेश से प्राप्त उद्दीपनों से व्यक्ति का मानस प्रभावित होता है। यदि ये उद्दीपन अवचेतन के पाशविक संस्कारों को उत्तेजित करते हैं तो व्यवहार भी तदनुरूप होना स्वाभाविक है। यदि इन उद्दीपनों ने अतिचेतन को उद्दीप्त किया है तो मानव जीवन की उच्चतर प्रक्रियाओं, कला, धर्म, साहित्य आदि के रूप में व्यवहार की अभिव्यक्ति होती है।
चिन्तन और व्यवहार की गति अपने आगोश में सबको समेटती जाती है। विगत इतिहास के उन कालों में जिन्हें स्वर्णिम युग कहा गया है, इन्हीं अतिचेतन की प्रक्रियाओं द्वारा जीवन का संचालन रहा है जबकि नरसंहार के काल में अवचेतन का पशु प्रतिनिधि प्रभावी रहा है। मनोविज्ञान की नवविद्या “हिस्टाँरिका साइकोलॉजी” में समूचे इतिहास की घटनाओं का अध्ययन करने के बाद प्रतिपादित किया गया है कि ये घटनाएँ कुछ व्यक्तियों के प्रभावी अवचेतन का ही परिणाम थी।
वर्तमान के परिप्रेक्ष्य में किया गया अध्ययन स्पष्ट करता है कि सामाजिक परिवेश से मिलने वाले उद्दीपन व्यक्ति में इन्हीं अवचेतन के संस्कारों को भड़काने वाले सिद्ध हो रहे हैं। सिनेमा में नग्न नर्तन की भरमार ब्लू फिल्मों का पकड़ता जोर अश्लील विज्ञापन व्यक्ति के अतिचेतन के प्रवाह को रोककर उसे मनुष्य से पुनः पशु में परिवर्तन कर रहे हैं। ‘मनुष्य रूपेण मृगाश्चरंति’ की उक्ति अपनी सार्थकता की अभिवृद्धि करती जा रही है।
मनुष्य अपनी स्वार्थ परता संकीर्णता की श्रृंखला से आबद्ध होता जा रहा है। इसी आबद्धता ने ही सब कुछ एक साथ प्राप्त कर लेने की प्रवृत्ति जाग्रत की है जो अपनी अभिव्यक्ति भारी भरकम उद्योगों-उत्खनन केन्द्रों, वनों के नाश आदि के रूप में कर रही है। स्वाभाविक ही इससे केन्द्रीकरण हुआ है। यह केन्द्रीकरण प्रत्येक क्षेत्र में है। मनुष्य शहरों में केन्द्रित हो रहे हैं। धन कुछ थोड़े से धनिकों की तिजोरियों में केन्द्रित हो रहा है।
केन्द्रीकरण की इस च्युति ने सामाजिक परिवेश की ध्वंसता के साथ पर्यावरण को भी ध्वस्त किया है। वायु, जल, ध्वनि, प्रदूषण की बात सर्वत्र सुनी जा रही है। सर्वत्र प्रदूषण की ही अभिवृद्धि है। प्रदूषण की वृद्धि व्यक्ति के चेतन मन में तनाव तथा अचेतन के अवशेषी संस्कारों में उद्दीपन उत्पन्न कर रही है। अचेतन के सामूहिक होने से यह महामारी सरलता से एक दूसरे में फैलती जा रही है। फलस्वरूप समाज में हिंसा, मानसिक स्थिति पर्यावरण को और भी अधिक विकृत कर रही है। इस तरह व्यक्ति, समाज और पर्यावरण के मध्य अभिक्रियाएँ अपनी गति पकड़ती जा रही हैं।
व्यक्ति समाज और परिवेश की पारस्परिक सम्बद्धता की उपेक्षा किये जाने के कारण किए जा रहे शान्ति प्रयास अस्थाई व कमजोर सिद्ध होते जा रहे हैं। जनमानस को परिवर्तित करने के लिए आवश्यक अवचेतन के उद्दीपनों को बहिष्कृत करना जरूरी है, जिसकी मानव समाज एक इकाई है। पर्यावरण की ईकाई मनुष्य परिकर है तथा इसकी इकाई व्यक्ति है।
इस संबद्धों की अभिन्नता को समझने तथा मानव मन की जटिलता को समझ अतिचेतन रुके प्रवाह को प्रवाहित करने से दिशा बदल सकती है। क्योंकि जिस प्रकार अचेतन सामूहिक है उसी तरह अतिचेतन भी। यह बदली हुई दिशा मनुष्य व समाज को अवगति से प्रगति की ओर ले जाने वाली होगी।