स्वाध्याय का मूल प्रयोजन आत्मा का शिक्षण

April 1993

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शास्त्र की तीन प्रमुख अनुज्ञाएँ हैं। सत्यम् वद, धर्मचर तथा स्वाध्यायान्मा प्रमदः अर्थात्- सत्य बोलें धर्माचरण करें और स्वाध्याय में प्रसाद न करें। इस निर्धारण के अनुसार सत्य और धर्म के ही समकक्ष स्वाध्याय को भी प्रमुखता दी गई है।

एक दूसरी गणना पवित्रता क्रम की है। मन वचन और कर्म तीनों को अधिकाधिक पवित्र रखा जाना चाहिए इस निर्धारण में मन की पवित्रता को प्रमुख माना गया है। इसके बाद वचन की पवित्रता सत्य से और कर्म का वर्चस्व धर्म से निखरता है।

सत्य और धर्म की महत्ता के संबंध में सभी जानते हैं। भले ही उनका परिपालन न करते हों। किन्तु स्वाध्याय के संबंध में कम लोग ही यह अनुभव करते हैं कि उसकी महत्ता भी सत्य और धर्म के परिपालन से किसी भी प्रकार कम नहीं है। उसकी उपेक्षा करने पर इतनी बड़ी हानि होती है जितनी कि सत्य और धर्म के संबंध में उदासीन रहने पर।

जिन दिनों इस धरती पर देव मानवों का बाहुल्य था। उन दिनों सत्य और धर्म का तो ध्यान रखा ही जाता था। पर स्वाध्याय को भी कम महत्व का नहीं माना जाता था। उसके लिए प्रत्येक विचारशील अपनी तत्परता बनाए रहता था।

स्वाध्याय का शब्दार्थ है अपने आप का अध्ययन। यह कार्य शिक्षितों के लिए शास्त्रों के नियमित अध्ययन द्वारा संपन्न होता है। शास्त्र उन ग्रंथों को कहते हैं जो आत्मसत्ता और उसकी महत्ता का बोध कराएँ। कर्तव्य-पथ की जानकारी एवं प्रेरणा प्रदान करें। शास्त्रों के नाम पर आजकल उन कथा पुराणों को भी सम्मिलित कर लिया गया है जिनमें किसी काल की घटनाओं का विवरण है, अथवा मिथकों का समुच्चय भरा पड़ा है। यों प्रकारान्तर से किसी प्रकार उनकी व्याख्या विवेचना करते हुए ही आत्म विकास के संदर्भ में कुछ निष्कर्ष निकाले जा सकते हैं। पर वह टेढ़ा मार्ग है। हर किसी के समझने समझाने का नहीं। कोई विलक्षण बुद्धि वाले ही उस विशाल समुद्र को मथकर रत्नों को निकाल सकते हैं और जिज्ञासाओं के लिए ग्रहण करने योग्य सामग्री प्रदान कर सकते हैं।

शास्त्र के अर्थ में श्रुति, स्मृति, उपनिषद् आरण्यक जैसे तत्व ज्ञान की विवेचना करने वाले ग्रंथ ही मूल प्रयोजन की पूर्ति कर सकते हैं। उन्हीं के आधार पर स्वाध्याय करने से उस विस्मृति को स्मृति के रूप में परिणत किया जा सकता है। जो आम तौर से उपेक्षित बनी रहती है। शरीर प्रत्यक्ष है। वही हमारे विभिन्न प्रयोजनों की पूर्ति करता है। इन्द्रिय संवेदनाओं के आधार पर रसास्वादन भी वही करता है। मानापमान, हानि लाभ भी उसी के अनुभव में आते हैं। रूप-सौंदर्य और श्रृंगार और श्रृंगार-सज्जा भी उसी की होती रहती है। नाम रूप भी उसी का देखने सुनने को मिलता रहता है। इसलिए सामान्य स्तर की चेतना यही स्वीकार कर लेती है कि वह शरीर मात्र है उसी की प्रसन्नता के लिए मर्यादाओं को तोड़ा भी जाता है और वर्जनाओं की अवहेलना भी होती रहती है। ऐसे अवसरों पर यह स्मरण ही नहीं रहता कि शरीर के पीछे कोई चेतना आत्मा भी है और उसकी भी कुछ आवश्यकताएँ है। उसे भी सन्तोष एवं उल्लास चाहिए। इस विस्मृति का परिणाम यह होता है कि आत्मसत्ता शरीर तक ही सीमित परिलक्षित होने लगी है। उसी के निमित्त स्वार्थ साधन के छोटे बड़े प्रयत्न चलते रहते हैं। समूची जीवनी शक्ति प्रायः उसी के लिए उत्सर्ग हो जाती है। यह एकाँगी दृष्टिकोण आत्म कल्याण के लिए, चेतनात्मक उत्कर्ष के लिए भी कुछ करना है। उसका स्मरण ही नहीं आने देता। यह एक बहुत बड़ा व्यवधान है और अनर्थ करता, दुःख भोगता और भविष्य को अंधकारमय बनाता रहता है।

इस विडम्बना से बचने का एक मात्र उपाय यही है कि स्वाध्याय के सहारे आत्मचेतना की स्वतंत्र महत्ता और उसके लिए प्रगति क्रम की समग्र जानकारी प्रतिदिन स्मृति पटल पर अंकित की जाती रहे। शरीर तो अपनी आवश्यकताएँ पूरी कराता रहता है। पर आत्मा के लिए कोई ऐसा क्रियात्मक व्यवहार सामने नहीं रहता जिसके आधार पर आत्म विस्मृति को सजग स्मृति में बदला जा सके। यह कार्य स्वाध्याय द्वारा ही संपन्न होता है। इसके अतिरिक्त और कोई उपाय है ही नहीं। मनुष्य की स्मृति क्षणिक है वह घटना क्रम बदलते ही विस्मृति में बदल जाती है। ऐसा आत्म क्षेत्र में न होने पाए इसलिए स्वाध्याय से हर दिन उसे सींचना और हरा भरा रखना पड़ता है।

आमतौर से शास्त्रों का पठन-पाठन ही स्वाध्याय में गिना जाता है। पर अब वह स्थिति नहीं रही जिसमें जीवन का सीमित और छोटा स्वरूप था और उसकी समस्याओं का समाधान श्रद्धालु जन शास्त्र वचनों के आधार पर पूरा कर लिया करते है। अब चिन्तन का क्षेत्र पहले की अपेक्षा कहीं बड़ा हो गया है। विश्व के अनेकानेक दर्शनों के आपस में गूंथने और आदान-प्रदान करने का अवसर मिला है। तर्क, तथ्य, प्रमाण और उदाहरण हर संदर्भ में माँगे जा रहे हैं। बढ़ते हुए भौतिकवाद की प्रतिक्रिया भी प्रत्यक्षवाद को सामने लाई है। ऐसी दशा में शास्त्र वचन श्रद्धालुओं के ही काम के रह गए हैं। बुद्धिवादी उतने भर से संतुष्ट नहीं होते। उनके लिए विशद और सशक्त समाधान चाहिए यह कार्य अपने युग की आत्म चेतना पर गहरा प्रकाश डालने वाले मनीषियों ने किसी सीमा तक पूरा किया है। इसका आश्रय लिए बिना जिज्ञासा की अतृप्ति मिटती नहीं। इसलिए आज के लिए शास्त्र शब्द की विस्तृत व्याख्या करते हुए उसमें वह सारा बौद्धिक प्रतिपादन सम्मिलित करना पड़ेगा। जो चेतना के लिए समाधान और मार्गदर्शन प्रस्तुत करें। आत्म क्षेत्र को तथ्यों के आधार पर विनिर्मित तत्व ज्ञान का सहारा मिल सके। अब ऐसे ही साहित्य को स्वाध्याय प्रयोजनों के लिए चयन करना समीचीन होगा।

एक और बड़ा प्रश्न है आकाँक्षा का। संसार भर में प्रायः एक चौथाई से भी कम संख्या तो निरक्षरों की है। जो साक्षर नहीं है वे शास्त्र या साहित्य कैसे पढ़े? यदि सुनने सुनाने की बात सोची जाय तो ऐसा सत्संग भी कहाँ उपलब्ध है जो सुनने वालों की मनोभूमि को देखते हैं। आत्मकल्याण के लिए आवश्यक दूरदर्शी विवेकशीलता का पथ प्रस्तुत कर सके। सत्संग के नाम पर तो आजकल जहाँ तहाँ मनोविनोद ही चलता रहता है। उसका श्रवण भ्रान्तियों को घटाता नहीं, उलटा बढ़ता है। सो भी इस व्यस्तता के समय में वह दुर्लभ ही है। सो भी इस व्यस्तता के समय में वह दुर्लभ ही है। ऐसे ज्ञानी जन कहाँ हैं जो परमार्थ भावना से उच्चस्तरीय तत्वज्ञान को सर्वसाधारण के लिए सुलभ बनाने में नियमित रूप से अपना समय लगाते रहें।

ऐसी दशा में स्वाध्याय की एकाकी आवश्यकता मनन और चिन्तन से पूरी हो सकती है। सुविधानुसार एकान्त में बैठकर एकाग्र चित्त से आत्मस्थिति की समीक्षा की जा सकती है। आदर्शवाद की निर्धारणाओं में अपना जीवन क्रम कितना पीछे है, इन त्रुटियों को निष्पक्ष भाव से पैनी दृष्टि से स्वयं खोज निकालना मनन है। इस आत्म समीक्षा के लिए हर कोई दिन भर में कोई न कोई समय निकाल ही सकता है। उस कमियों को खोज ही समता है जो उसे उत्कृष्टता की दृष्टि से पिछड़ा हुआ बनाए हुए हैं। त्रुटियाँ ध्यान आती रहें और उन्हें सुधारने का अनवरत प्रयत्न चलता रहे तो मनन को सार्थक स्तर का समझा जा सकता है।

मनन का दूसरा पक्ष है चिन्तन। चिन्तन अर्थात् दुष्प्रवृत्तियों के उन्मूलन एवं सत्प्रवृत्तियों के संवर्द्धन के लिए उपाय-उपचारों का निर्धारण। योजना इस प्रकार बनती रहनी चाहिए कि दिनचर्या में दोषों की कटौती और सद्गुणों की बढ़ोत्तरी का क्रम व्यावहारिक रूप में कार्यान्वित होता रहे। नित्य राई-राई भर दोष घटाने और नित्य तिल-तिल भर सद्गुणों के बढ़ाने से भी एक समय ऐसा आ सकता है जिसमें शरीर सेवा की तरह आत्म साधना भी भली प्रकार बन सके और स्वाध्याय का वास्तविक प्रयोजन पूरा हो सके।


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