शाश्वत-सनातन मुक्ति का राजमार्ग

April 1993

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

आये दिन धर्मतंत्र के धुरंधरों द्वारा स्वर्ग-मुक्ति की चर्चा होती ही रहती है और वे भोले-भावुकों को इसकी प्राप्ति हेतु एकान्त सेवन करने, अपने दायित्वों का सर्वथा त्याग करके गुफा-कन्दराओं में रहने एवं वन-उपवनों में निवास करने के लिए प्रेरित प्रोत्साहित करते व उकसाते देखे जाते हैं।

यहाँ कइयों के मन में यह प्रश्न उठ सकता है कि क्या यही मुक्ति है? उत्तर सर्वथा ‘ना’ में दिया जा सकता है। जिनमें तनिक भी विवेक बुद्धि है, वे यह सहज ही अनुमान लगा सकते हैं कि यदि ऐसी बात रही होती, तो भगवान न इतनी सुन्दर सृष्टि नहीं बनायी होती। यदि उनका ध्येय मनुष्य को मृत्यु की ओर ले जाना होता, तो फिर जीवन का उद्देश्य ही क्या रह जाता? फिर तो सभी को वे एक साथ काल के गाल में धकेल कर मुक्त कर देते, पर व्यावहारिक जीवन में ऐसा होता कहाँ दिखाई पड़ता है? जो कुछ दीखता है, वह सब इसके बिल्कुल विपरीत जान पड़ता है। एटमबम, अस्त्र-शस्त्र गरम-शीत विश्व युद्धों तथा गृह युद्धों के रूप में सर्वत्र चलते ही रहते हैं, पर दूसरी ओर स्रष्टा नया जीवन उत्पन्न करता ही चलता है। हम दुगुनी गति में विश्व के संहार का सरंजाम जुटा रहे हैं, तो वह नियामक सत्ता चौगुनी गति से जीवन को अक्षुण्ण बनाये रखने का प्रयत्न-पुरुषार्थ करती स्पष्ट प्रतीत होती है। इससे यही विदित होता है कि ईश्वर मृत्युपर्यंत मोक्ष का पक्षधर नहीं है, वरन् वह जीवन में ही मुक्ति जैसी स्थिति उत्पन्न करना चाहता है। वह जीवन का प्रेमी है, किन्तु उसके एजेण्ट तथाकथित धर्म के नाम पर उलटी पट्टी पढ़ाने वाले इसके घोर दुश्मन और आज की अधिसंख्यक आबादी इन्हीं के चंगुल में है, इसलिए वह उसे पलायनवाद की ओर, मृत्यु की ओर ले जा रहे हैं। उनका विश्वास शरीर को गलाने-जलाने में है, जीवन को संवारने-सुधारने में नहीं। इसी कारण आज का धर्म आत्मघाती होता जा रहा है, जीवन विरोधी लाइफ-निगेटिव बनता जा रहा है, जबकि होना चाहिए उसे लाइफ-अफरमेटिव, जीवनदाता।

धर्म, जीवन की परिपूर्ण का नाम है न कि पलायनवाद का पर्याय। इसी आशय का मन्तव्य प्रकट करते हुए मूर्धन्य मनीषी काँलिन विल्सन अपनी पुस्तक “सैल्वेन-दि अटमोस्ट गोल ऑफ दि ह्यूमन-लाइफ” में लिखते हैं कि इन दिनों हमारी स्थिति ऐसी है, जिसमें हम निस्सार में सार की तलाश करते हैं और जो सारयुक्त है, उसे मृगमरीचिका समझकर उसका परित्याग करते हैं। वस्तुतः धर्म जीवन का पर्याय है, वह हमें जीवन जीने की कला सिखाता है। उसका प्रयोजन जीवन जीने की कला सिखाता है। उसका प्रयोजन जीवन की पूर्ण अनुभूति कराना है, न कि स्वर्ग-मुक्ति का सब्जबाग दिखाना और जिस दिन मनुष्य को धर्म का यह मर्म समझ में आ जायेगा, उसी दिन से उसकी दिशा बदल जायेगी वे आगे लिखते हैं कि इस प्रकार धर्म की यह परिभाषा समझने के पश्चात जब मनुष्य की दिशा परिवर्तित होगी, तो फिर उसके जीवन का लक्ष्य स्वयं जीवन की पूर्ण अनुभूति करना हो जायेगा और जिस दिन जीवन की सम्पूर्ण अनुभूति होगी, उसी पल उसे स्वर्ग-मुक्ति का आनन्द उपलब्ध हो जायेगा।

“पाराडाँइज आँर इनफरनो-दि दू वेज ऑफ थिंकिंग“ नामक पुस्तक के लेखक एवं प्रसिद्ध दार्शनिक बर्नार्ड गिटल्सन अपनी उपरोक्त कृति में लिखते हैं कि स्वर्ग-मुक्ति वस्तुतः जीवन से परे की स्थिति नहीं है। लौकिक जीवन जीकर ही उसकी अनुभूति की जा सकती है। वास्तव में स्वर्ग-नरक जीवन की दो भिन्न चिन्तन धाराएँ हैं। जब हम स्वर्ग की किन्हीं अन्य लोकों में कल्पना कर उसकी प्राप्ति हेतु शरीर को बेतुके क्रिया-काण्डों में लगाकर इस बहुमूल्य जीवन को बरबाद करते और रीते हाथ रह जाते हैं, तो हमारी मनःस्थिति विक्षिप्तों जैसी हो जाती है। यही नरक है। धर्म इसी नरक से बचने बचाने का नाम है और व्यक्ति जब इससे बच जाता है, तो वही उसकी मुक्ति बन जाती है, वही उसका स्वर्ग है, किन्तु लेखक के अनुसार स्वर्ग-मुक्ति जीवन का लक्ष्य नहीं है। उसका चरम लक्ष्य तो जीवन की पूर्ण अनुभूति है। स्वर्ग-मुक्ति तो इस पथ में पड़ने वाली एक सराय के समान है, जो इस राह के सभी पथिकों को एक-न-एक दिन अवश्य मिलती है। जिस प्रकार तीर्थाटन करने वाले यात्रियों के लिए धर्मशाला उसका गन्तव्य नहीं होता, वह तो एक पड़ाव है, उसी प्रकार जीवन का लक्ष्य मुक्ति नहीं है। वह गौण है। प्रधान तो जीवन की पूर्ण अनुभूति करना है। जो इस राह पर निकल पड़ता है, मुक्ति का आनन्द अनायास उसे हस्तगत हो जाता है।

इस बिन्दु पर दोनों लेखकों के विचार मिलते प्रतीत होते हैं। दोनों ने ही इस बात को स्वीकारा है कि जीवन की पूर्ण अनुभूति का ही दूसरा नाम मोक्ष अथवा मुक्ति है और इस मुक्ति को सामाजिक जीवन से संसार से पलायन कर प्राप्त नहीं किया जा सकता, किन्तु आज सर्वत्र हो यही रहा है। हम मुक्ति को प्रमुख मान बैठे हैं, और जीवन जो सर्वाधिक महत्वपूर्ण और मूल है, उसे अप्रधान मानने लगे हैं। इस उलटबाँसी के फेर में व्यक्ति उसे भी गँवाता चलता है, जो उसके पास होता है, जिसके सहारे वह अपनी मनोवाँछा को प्राप्त कर सकता था, पर उस बुद्धि विपर्याय को क्या कहा जाय, जो चावल को गौण और भूसे को प्रमुख मानने लगे! किसान खेत में धान बोता है। धान होता है और उसके साथ भूसा भी मिल जाता है, किन्तु किसान का उद्देश्य भूसा पैदा करना कदापि नहीं होता। वह तो धान के साथ उत्पन्न हो जाता है। वह प्रमुख नहीं है। मुख्य तो चावल है। वर्तमान में लोग चावल को भूसा और भूसे को चावल मानने लगे हैं। यही समस्या की जड़ है। गड़बड़ी यहीं से पैदा होती है। बोया भूसे को जाता है और आशा चावल की की जाने लगती है। परिणाम यह होता है कि न भूसा पैदा होता है। तब वह धर्म को ढोंग-प्रपंच कहकर पुकारने लगता है। कहने लगता है धर्म बेकार की चीज है, वह मिथ्या है, झूठा है, जबकि यथार्थता इससे बिल्कुल भिन्न है।

लियो टॉलस्टाय की एक लघु कथा है कि एक आदमी से कहा गया कि एक दिन में तुम इस धरती की जितनी दूरी नाप सकोगे, वह सब तुम्हारी हो जायगी। बेचारा भूख-प्यास की परवा किये बिना दौड़ पड़ा। दौड़ता रहा। चिलचिलाती धूप में भी न रुका, भागता ही रहा, पर आखिर कब तक दौड़ता रह सकता था? एक स्थान पर गिरा और तड़पता हुआ शान्त हो गया। उसकी मृत्यु हो गई। एक समझदार आदमी उधर से गुजरा, तो उसकी मूर्खता पर हँस पड़ा। मन में विचारा कि इसे इतनी ही जमीन की तो आवश्यकता ही थी, अनावश्यक क्यों भागता फिरा?

प्रस्तुत प्रसंग आज के व्यक्तियों पर अक्षरशः लागू होता है। मुक्ति की खोज में हम जीवन से भाग रहे हैं, फलतः न मोक्ष मिल पाता है, न निश्चिन्तता का जीवन जी पाते हैं। सच्चाई तो यह है कि जीवन में ही मुक्ति दूध-पानी की तरह समायी हुई है। जब जीवन कर्तव्यों और उत्तरदायित्वों के साथ समग्र रूप में प्रकट होता है, तो सारी बाधाएँ सार कठिनाइयाँ समस्त बेड़ियाँ स्वतः टूट जाती हैं और आदमी मुक्त हो जाता है। अधूरा जीवन बन्धन है, पूर्ण जीवन मुक्ति हो जाता है। अधूरा जीवन ही मनुष्य का सदा से लक्ष्य रहा है। मुक्ति इसी से संभव है।

जो मुक्ति को जीवन का चरम लक्ष्य होने का नारा देते हैं, वे एक प्रकार से मनुष्य को मृत्यु की ओर धकेलते हैं। समाज को भ्रम-जंजालों में उलझाते और संसार को दिग्भ्रान्त करते हैं। इस प्रकार की मुक्ति निश्चय ही आत्मघाती है।

जो मुक्ति को जीवन का चरम लक्ष्य होने का नारा देते हैं, वे एक प्रकार से मनुष्य को मृत्यु की ओर धकेलते हैं। समाज को भ्रम-जंजालों में उलझाते और संसार को दिग्भ्रान्त करते हैं। इस प्रकार की मुक्ति निश्चय ही आत्मघाती है।


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:


Page Titles






Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118