मनुष्य ईश्वर की श्रेष्ठतम कृति

April 1993

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

अनादिकाल से ही मनुष्य को जब से अपनी विशिष्टता, वरिष्ठता और पृथक अस्तित्व का बोध हुआ, विचार करता रहा है। विश्व के प्रायः सभी धर्मों में प्राणियों के आविर्भाव और मानव के उद्भव एवं विकास पर प्रकाश डालने वाली कथायें प्रचलित हैं। धर्मशास्त्रों में सामान्यतया यही प्रतिपादित किया गया है कि स्रष्टा ने सब प्राणियों की समकालीन, किन्तु अलग-अलग विकसित रूपों में सृष्टि की थी, बाद में उनकी ही वंशानुवंश परम्परा चलती रही। इस सिद्धान्त के अनुसार मनुष्य सभी प्राणियों से सर्वथा पृथक और श्रेष्ठ है। वेद, उपनिषदों ने ‘अमृतस्य पुत्राः’ कहकर उसे स्वयं अपने भाग्य का निर्माता बताया है। उद्भव काल से लेकर अब तक कार्य=संचालन में भले ही कुछ विशेष परिवर्तन दृष्टिगोचर न हुए हों, परन्तु चेतनात्मक दृष्टि से मनुष्य उत्तरोत्तर विकसित होता हुआ देवत्व की ओर अग्रसर है।

वैज्ञानिक मनीषी भी अब उक्त तथ्य की पुष्टि में अनुसंधानरत है। यद्यपि विज्ञान के क्षेत्र में अभी भी चार्ल्स डार्विन द्वारा प्रतिपादित विकासवाद का सिद्धान्त-”थ्योरी ऑफ इवोल्यूशन “ ही सर्वत्र मान्यता प्राप्त है, जो मनुष्य के आदि पूर्वज बन्दर को मानता है। विकासवाद का यह सिद्धान्त मानव के मूल गौरव, स्वरूप स्वभाव, स्तर और आधार पर जिस तरह चोट करता है, उससे मनुष्य प्रकृति के हाथ का एक खिलौना मात्र सिद्ध है। इसी तरह नृवंश-शास्त्रियों का मनुष्य, सुसंस्कृत, विकसित एवं अच्छी स्थिति में है। यह मान्यता हमें न केवल अहंकारी बनाती है, वरन् अपने पूर्वजों के प्रति अश्रद्धा एवं उपहास की भावना भी पैदा करती है।

रूस के सुप्रसिद्ध वैज्ञानिक मनीषी प्रिंस क्रोपाटकिन ने डार्विन की विकासवादी मान्यताओं का गंभीरतापूर्वक अध्ययन किया है और उसकी खामियों को अपनी कृति “म्युचुअल एड” में विस्तारपूर्वक प्रकाशित किया है। उनके अनुसार डार्विन के विकासवाद के पाँच तत्व हैं। इनमें से पहला है-’परिवर्तनों की सर्वत्र विद्यमानता।’ अर्थात् हर जगह परिवर्तन गति से जारी है। प्रत्येक वस्तु का आयु के हिसाब से परिवर्तन हो रहा है, जिसे ह्रास-वृद्धि तो कह सकते हैं, किन्तु ऐसा परिवर्तन नहीं, जिसमें समुद्र धीरे-धीरे पुच्छल तारा बने, कबूतर भालू और घोड़ा साँप बन जाय। विकासवादी मान्यता के अनुसार अमीबा से क्रमशः स्पंज, हाइड्रा और फिर विभिन्न सीढ़ियाँ पार करता हुआ मछली, मेंढक, साँप, छिपकली, चिड़िया, हाथी, बन्दर आदि से विकसित होता हुआ अन्त में मनुष्य बना। अर्थात् एककोशीय इन्द्रिय चेतना से रहित जीवन क्रम उलट-पलट करते-करते मनुष्य जैसे विकसित प्राणी का प्रादुर्भाव हुआ। यह सिद्धान्त हमें बताता है कि जीव का मूल स्वरूप ही नहीं, उसका स्तर, स्वभाव और आधार भी परिवर्तित होता आया है। विकासवाद की यह व्याख्या बुद्धि संगत नहीं जान पड़ती। इसे यदि मान भी लिया जाय तो प्रश्न उठता है कि वर्तमान प्राणी जिस स्थिति में है, वह कब तक बनी रहेगी? विकासवादी सिद्धान्त के अनुसार उनमें परिवर्तन होते-होते अन्ततः वे किस स्थिति में पहुँच जायेंगे और प्रगति की अनन्त प्रक्रिया प्राणियों को कौन-सा स्वरूप प्रदान करेगी? कहने का तात्पर्य यह है कि प्रकृति में जो कुछ भी परिवर्तन होता है, वह नियमित और मर्यादित होता है। उससे एक जाति की दूसरी जाति नहीं बन जाती है न परस्पर का सम्बन्ध ही टूटता है।

दूसरी बात है अत्युत्पादन की। अत्युत्पादन और उत्पादन में बड़ा अंतर है। अत्युत्पादन नैमित्तिक अर्थात् मानुषीय है और उत्पादन नैसर्गिक। जब तक प्राणियों में अकाल मृत्यु नहीं होती, तब तक ईश्वरीय नियमित उत्पादन होता रहता है, पर जब हिंसा, भूख, युद्ध और प्राकृतिक आपदाओं से जीवों की अकाल मृत्यु होती है, तभी से अत्युत्पादन प्रारंभ होता है। जब से मनुष्यों ने स्वाभाविक जीवन निर्वाह करना छोड़ दिया है, तब से सृष्टि में वंशवृद्धि और अकारण मृत्यु का सिलसिला आरंभ हुआ है, अर्थात् मानव ने मनुष्य, पशु−पक्षी, कीट-पतंग, वृक्ष-वनस्पति आदि सभी को अस्वाभाविक स्थिति में डाल दिया, जिससे प्राणि मात्र अल्पायु हो गये।

विकासवाद का तीसरा तत्व है-”स्ट्रगकल फॉर एग्जिस्टेन्स,” अर्थात् अस्तित्व बनाये रखने के लिए सतत् संघर्ष। डार्विन जिसे प्रगति के लिए अनिवार्य बताते हैं, उसे ही उनके निकट अनुयायी सुप्रसिद्ध वैज्ञानिक प्रो.केसलर इस नियम को अपवाद रूप में मानते हैं। उनके अनुसार जीवन संघर्ष का नियम तो प्रकृति में दिखाई देता है, किन्तु वह अपवाद है। उसका कहना है जीवन संघर्ष की व्याख्या ही गलत ढंग से की गयी है। पारस्परिक संघर्ष की तुलना में पारस्परिक सहयोग के द्वारा प्राणि जगत और मानव जाति का कहीं अधिक विकास होता है। अपनी कृति “ओरीजिन ऑफ स्पेशीज” में डार्विन ने स्वयं लिखा है कि प्राणियों का अस्तित्व एक दूसरे के सहयोग पर निर्भर है। अपनी दूसरी पुस्तक ‘द डीसेन्ट ऑफ मैन’ में उन्होंने बताया है कि असंख्य प्राणि समुदायों में पृथक-पृथक प्राणियों का आपसी संघर्ष समाप्त हो जाता है और संघर्ष का स्थान सहयोग ले लेता है। फलस्वरूप उनका बौद्धिक एवं नैतिक विकास होता है।

चौथा सिद्धान्त है-’नेचुरल सलेक्शन’ का अर्थात् प्रकृति योग्यतम का चुनावकर उनकी रक्षा करती है और अन्यों की उपेक्षा करती है, फलस्वरूप वे नष्ट हो जाते हैं। किन्तु गंभीरतापूर्वक सृष्टि में दृष्टिपात करने पर स्पष्ट हो जाता है कि योग्यों का चुनाव होता ही नहीं। अमीबा जीवों में सबसे छोटा और निर्बल है, पर है सबसे अधिक संख्या में जितने छोटे कीड़े हैं, वे सबके सब संख्या में जितने छोटे और निर्बल है, पर है सबसे सब संख्या में अधिक हैं। संख्या की दृष्टि से सर्वत्र बहुलता से छाये हुए हैं। मनुष्य को बलिष्ठता में हाथी, घोड़े, शेर आदि ने परास्त कर दिया है। दीर्घजीवन में कछुए बाजी मार ले गये और बुद्धि तथा कला-कौशल में चींटी सबसे आगे है। परिश्रम, संचय, व्यवस्था और कारीगरी में मधुमक्खी का प्रथम स्थान है। ये सभी प्राणी अपने उत्तरवर्ती योग्यों से जब अधिक समर्थ सिद्ध हो रहे हैं, तब कैसे कहा जा सकता है कि योग्यों का चुनाव होता है।

विकासवाद का पाँचवाँ सिद्धान्त है-कि उक्त योग्यता का संतति में संक्रमण होता है। विचारकों के अनुसार यह भी सही नहीं है, क्योंकि अयोग्यों की संख्या ही संसार में सबसे अधिक है। समूचे विश्व में निर्धन, निर्बल और निर्बुद्धि ही अधिक पाये जाते हैं। ज्ञानी-विद्वान के बच्चों में आप ही आप ज्ञान का संक्रमण नहीं हो जाता। मनुष्य यदि अपनी संतानों को अच्छा बनाने, सुसंस्कार डालने में सावधानी न बरते, तो उनमें अच्छे संस्कार उत्पन्न होना संभव नहीं। अतः यह कैसे कहा जा सकता कि योग्यों के चुनाव के साथ ही योग्यता का भी संतति में संक्रमण होता है।

प्रख्यात प्राणि विज्ञानी प्रोफेसर विलियम वाट्सन की अध्यक्षता में पिछले दिनों आस्ट्रेलिया में मूर्धन्य वैज्ञानिकों का एक सम्मेलन विकासवाद की सत्यता को परखने के लिए आयोजित किया गया। निष्कर्ष प्रस्तुत करते हुए विज्ञानवेत्ताओं ने कहा है डार्विन का विकासवाद तथ्यों से परे और विज्ञान के विरुद्ध है। वस्तुतः मनुष्य जैसा सृष्टि के आरंभिक काल में था, वैसा ही अब है। बन्दर और मनुष्य के बीच की आकृति का कुछ पता नहीं। अभी तक प्राप्त अस्थि अवशेषों से यह स्पष्ट हो गया है कि मनुष्य की रचना अपने पूर्वजों जैसी ही है। प्राणिवेत्ता सिडनी का स्रेट का तो यहाँ तक कहना है कि उन्नति करने के स्थान पर मनुष्य अब अवनति की ओर जा रहा है। उसकी आरंभिक दशा उन्नति थी और वह देवत्व के अधिक निकट था।

इस तथ्य की पुष्टि डॉ. वैलेस, प्रोफेसर सोलेस, डॉ. कीथशिम्पर, हेकल एवं डॉ. पर्थ जैसे सुविख्यात विज्ञानियों ने भी की है। इनका मत है कि ईश्वर ने हर प्राणी को अपनी स्वतंत्र सत्ता सृष्टि के आरंभ में ही दी है। अमीबा अभी भी अमीबा है, और बन्दर अभी भी बन्दर है जो परमशक्ति एक कोशीय अमीबा की रचना कर सकती है, वहीं शक्ति विविध प्रजाति के पशु-पक्षियों और मनुष्यों को अलग-अलग क्यों नहीं सृजित कर सकती? मनु की संतान मानव ने अपनी लम्बी यात्रा में कई उतार-चढ़ाव देखे होंगे, किन्तु वह और किसी रूप में इस धरती पर आया और आकृति में विकसित होता गया, यह असंभव है। मनुष्य की मूलसत्ता जिसे ईश्वर की सर्वश्रेष्ठ कलाकृति कहा जाता है, आरंभ से ही अपनी मौलिक विशेषताओं को साथ लेकर जन्मी है और अपनी चेतना का क्रमशः विकास करते हुए पूर्णता की ओर अग्रसर है।

“द ह्यूमन साइकल” नामक अपनी कृति में महर्षि अरविन्द ने कहा है कि अपने विकासक्रम में मनुष्य देवत्व की ओर बढ़ रहा है। वह जीव चेतना से ऊपर उठकर अर्ध देवता बन चुका है। बौद्धिक विकास के बाद अब आत्मिक प्रगति का युग आ रहा है। मानव जाति समान हितों के बाहरी कारणों को छोड़कर आध्यात्मिक विकास के फलस्वरूप आन्तरिक एकता का अनुभव करने लगी है। आर्थिक और बौद्धिक दृष्टिकोण के स्थान पर आध्यात्मिक भावना बढ़ती जा रही है। देवत्व ही मनुष्य जीवन का लक्ष्य है और वह उसे प्राप्त होकर रहेगा। क्रमिक विकास का यही सही स्वरूप है।


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:


Page Titles






Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118