प्रकृति के हर कण में उपयोगिता भरी पड़ी है। उसमें विद्यमान क्षमताएं प्रत्यक्ष तो नहीं दीख पड़ती पर उनका बारीकी से पर्यवेक्षण किया जाय तो अनेकानेक क्षमताएँ ऐसी दीख पड़ती है जो अद्भुत और असाधारण प्रतीत होती हैं। भौतिक विज्ञान ने उन्हीं को असाधारण प्रतीत होती है। इसी आधार पर मनुष्य को प्रकृति शक्तियों का अधिष्ठाता बनने का अवसर मिला है। जितनी समर्थ प्रकृति है, उतना ही संपन्न मनुष्य भी हो गया है। यह बात दूसरी है कि इन क्षमताओं का सही तरीके से सही प्रयोजन के लिए सही रीति से उपयोग न बन पड़ा अन्यथा प्रकृति पुत्र अब तक उन शक्तियों का स्वामी बन गया होता जिन्हें देवोपम कह सकते थे।
प्रकृति की दूसरी विशिष्टता है उसकी सुन्दरता। नेत्रों का प्रत्यक्ष दर्शन और मनःसंस्थान का भाव संवेदन मिलकर उस सर्वत्र बिखरे पड़े सौंदर्य को मनोरम रूप में निखारते हैं। जमीन पर घास का बिछा हरा मखमली फर्श, वृक्षों की शोभा श्रृंखला, पुष्प उद्यानों का सौरभ, मेधमालाएँ प्रातः सांय की स्वर्णिम दशाएँ, निर्झर-सरोवर आदि एक से एक बढ़ कर अपनी सुन्दरता का दिग्दर्शन कराते हैं। मन का सौंदर्य से भर देता है और जिधर भी देखा जाय उधर ही गुदगुदाने वाली छटा का बिखराव दीख पड़ता है। नेत्र इसमें सहायक होते हैं यों उनके बिना भी कल्पना के सहारे बहुत कुछ काम चल जाता है। सूरदास जैसे अन्ध कवि विश्व में बिखरे सौंदर्य को इतनी गहराई से देख लेते हैं जितना कि कोई आँखों वाला मंदमति अनुभव न कर सके।
सौंदर्य में एक विलक्षण आकर्षण होता है। उसे पास रखने या उसके पास रहने को मन करता है। बच्चे चन्दा मामा के पास जाना चाहते हैं या उसे अपने पास बुलाना चाहते हैं। प्रभातकालीन ऊषा, मेघमाला का घटाटोप, जल प्रवाह, हरीतिमा आदि के भी निकट रहने को मन चलता है। अथवा उन्हें अपने घर, उद्यान, पार्क में किसी प्रकार स्थापित करके मन बहलाने का तरीका खोज निकाला जाता है। प्रकृति सौंदर्य की समीपता अतिशय लालायित करती है। देख कर आनन्द उठाने में तो कोई हर्ज नहीं पर खोट वहाँ से पैदा होती है जहाँ उन्हें बटोरने और अधिकार में रखने की चेष्टा आरंभ होती है।
लोग तोता-मैना आदि सुन्दर पक्षियों को उन्मुक्त आकाश में विचरण करते हुए देखने की अपेक्षा यह चाहते हैं कि उन्हें पिंजड़े में बन्द करके पास रखें। उनसे चाहे जो कहलावें। चाहे जिस मुद्रा में रहने करने के लिए विवश करें। यही सौंदर्य का दुरुपयोग है। बगीचे में खिले हुए फूलों को तोड़ कर टोकरी में भर लेना, गुलदस्ता या हार पहन लेना, इसी दुष्प्रवृत्ति का द्योतक है कि सौंदर्य को अपने स्थान पर रहकर सभी को प्रसन्नता प्रदान कराते रहने की स्थिति में न रखने दे कर उसे अपने अधिकार बंधन में बाँध लिया गया। इसका परिणाम यह होता है कि उद्यान की शोभा चली जाती है और फूल असमय ही कुम्हला जाते हैं। यह प्रकृति के साथ अनाचार है जिसमें आँखें लोलुप और मन चोर बन कर भ्रष्टता की संरचना रचते हैं।
मानवी काया भी सौंदर्य का प्रतीक है। उसे सौंदर्य बोध वाले मन से और कला पारखी मन से आत्मीयता के साथ देखा जाय तो कोई भी शरीर सुंदर लग सकता है। विशेषतया पुरुष को नारी का और नारी को पुरुष का। दोनों में अपनी-अपनी विशेषताएँ हैं। स्वाभाविक रूप से यह सहज सुगम भी है। माता और बच्चा दोनों विपरीत लिंग के होते हैं पर दोनों के बीच पटरी खूब बैठती है। बहन-भाई स्कूल साथ-साथ पढ़ने जाते हैं और हँसते बोलते भी जाते हैं। घर में चाची ताई, बुआ अपने-अपने ढंग से घर के छोटे बड़ों से व्यवहार वार्तालाप करती रहती हैं, देवर भावज की नोंक झोंक चलती रहती है। इस तरह नर-नारी की विभिन्नता का संपर्क सान्निध्य रहने से घर का वातावरण शोभा सुषमा से भर जाता है। यह प्रकृति का सौम्य अनुसरण है।
इसमें विकृति भरा अनौचित्य तब घुलता है, जब कामुकता की दृष्टि से सौंदर्य को निहारना आरंभ किया जाता है। इस आधार पर तो किसी भी पवित्रतम रिश्ते के उत्तेजक अंगों को लुक छिप कर देखा जा सकता है या उनकी कल्पना की जा सकती है। इतने भर से प्रदूषण आरंभ हो जाता है, और भोली–भाली सौम्य, सरल, महिला कामिनी, रमणी, नागिन, डाकिन बन जाती है। अनैतिक कल्पनाएँ उछाल भरने लगती हैं। इसके अनेकों दुष्परिणाम होते हैं। कुदृष्टि मनोरोग है। इसके कारण प्रत्यक्ष या परोक्ष व्यभिचार की योजना बनने लगती है। ऊर्ध्वगामी बुद्धि तंत्र, द्रवित होकर जननेन्द्रिय मार्ग से जाग्रत अथवा स्वप्न-प्रसुप्ति में गलित हो क्षरित होने लगता है। मानवी-गरिमा को अक्षुण्ण बनाए रखने वाली वर्जनाओं का निर्वाह जब टूटता है तो नहर के किनारे टूट जाने पर अमर्यादित रूप से खेतों में पानी बिखर जाने जैसी स्थिति बन जाती है। सौंदर्य अपने आप में आनन्द, उत्साह पुलकन का आधार है। पर इसके प्रति अनुपयुक्त दृष्टिकोण बना लेने का परिणाम ऐसा होता है, जिसे दुखदायक ही कह सकते हैं।
चर्चा इन्द्रिय-निग्रह प्रसंग में नेत्रों की कुमार्ग गामिता यानी कुदृष्टि पर हो रही है। दूसरों की वस्तुओं को हथिया लेने के लिए ईर्ष्या इसी आधार पर उपजती है। चोरी करने का अपहरण करने का मन इसी आधार पर चलता है असीम मात्रा में सुन्दर वस्तुएं भी कोई जमा नहीं कर सकता, उनका उपभोग संभव नहीं। ऐसी दशा में वह अनुचित संग्रह अपने आप में एक भार बनता है। कितने ही लोग सुन्दर वस्तुएँ भी कोई जमा करने के लिए घर का बड़ा भाग घेर लेते हैं। नई भूमि पर कब्जा करते हैं। नए मकान बनते हैं। सामंत अनेक पत्नियाँ, उपपत्नियाँ अन्तःपुरों में कैद कर रखते थे। इसके परिणाम स्वरूप उन कुकृत्यों से संबंधित सभी पक्ष रोष, आक्रोश से भरे रहते थे। और निरन्तर विद्वेष की ऐसी आग सुलगती थी जो कभी-कभी भयानक दुर्घटनाएँ देर सवेर में घटित कर देती थीं। अब भी वेश्यालयों से संबंध रखने वाले भड़ुए या दलाल चैन से नहीं बैठ पाते। इसी कुमार्ग पर चलते हुए उन्हें अनेकों दुर्व्यसन घेर लेते हैं। कुमार्गगामी की आँखें भी जलती रहती हैं और समय से पहले ही अपनी ज्योति एवं सूक्ष्म दर्शन विशेषता गवाँ बैठती हैं। शरीर तो खोखले हो ही जाते हैं। अनेकों को यौन रोगों का शिकार बनना पड़ता है। बदनामी फैलने से प्रमाणिकता चली जाती है। मन डावाँडोल रहने से हाथ के काम सही तरीके से बन नहीं पड़ते। इस जाल जंजाल में साज सज्जा-उपहार आदि में पैसा भी ढेरों ही खर्च होता है।
आँखों के सौंदर्य बोध का दुरुपयोग होने की तरह दूसरी प्रबल इन्द्रिय रसना की बारी आती है। भोजन में अनेक प्रकार के स्वादों के समावेश की आकाँक्षा विविध विधि व्यंजन उपलब्ध करने के लिए ललकती है। इसे जुटाने में ढेरों समय, पैसा खर्च होता है। चटोरी जीभ पेट का सत्यानाश कर देती है और अनेकानेक बीमारियों को जन्म देती है। व्यंजनों की अभिलाषा ललक-लोलुपता उत्पन्न करती है। ऐसी दशा में यह लोलुपता, साथियों की दृष्टि में मान-सम्मान गिराती है। खर्च बढ़ती है और कुछ न कुछ नया ढूँढ़ती है। हर समय मुँह चलाते रहने के लिए विवश करती है। जिह्वा को दो इन्द्रियों के बराबर माना गया है। एक खाने वाली-स्वादेन्द्रिय दूसरी बोलने वाली-वाणी। वाणी से ही व्यक्ति की शालीनता, सज्जनता, मान्यता, भावना, स्तर एवं प्रतिभा का पता चलता है। इसलिए जीभ को ही जहाँ चटोरी बनने से रोकना है वहाँ उसे इतनी सुसंस्कृत भी बनाना है कि वार्तालाप में दूसरों पर उत्कृष्टता भरा प्रभाव छोड़ सके। इन्द्रिय संयम तब बन पड़ता है जब नेत्र, जननेन्द्रिय और जिह्वा को नियंत्रण में रख उन्हें सुसंस्कृत बनाया जाता है।