उनके लिये जियें हम, जो मर-मर कर जीते हैं यह जीवन। गंध बनें उनके हित जो न जानते क्या होता है चन्दन॥
जिनको जहर वेदनाओं का पीना पड़ता नित्य यहाँ पर। जिनकी साँसों में बस गये रुदन के और सिसकियों के स्वर
उनके लिये खिलायें खुशियों एवं मुस्कानों का उपवन॥ जो गिर पड़े, हाथ उनको दें, आगे बढ़कर उन्हें उठाएँ।
जिनने दिशा गंवायी उनके हित हम ध्रुवतारा बन जाएँ चुक जाये पाथेय किसी का, उसे जुटाएं दें तन, मन, धन
उन्हें महत्व झरोखों का समझाएँ, जो दीवारें चुनते। उनको दे सुलझाव, मनो में जो विभ्रम का जाला बुनते
उनके घर के आगे स्वयं उगादें प्रेम प्यार का मधुवन॥ जिनका कोई नहीं जगत में उनका हम बन जायें सहारा।
अपने रहते कोई न कहने पाये- “मैं किस्मत का मारा”॥ ऐसे एकाकी हृदयों को बाँटे हम मधुमय अपनापन॥
प्यास बनी सहगामिनी जिनकी, उनके हित गंगा सरसायें। अंतर के छालों के ऊपर, संवेदन का लेप लगायें॥ अपने प्राण तत्व से गतिमय कर दें हर धीमी सी धड़कन॥
*समाप्त*