बैकुण्ठ में ऋषियों का प्रसंग चल रहा था। विष्णु भगवान ने कहा “देवर्षीमं च नारद” देवर्षियों में नारद में हूँ। अपनी और नारद की उनने अभिन्नता जताई।
इस पर उपस्थित देवताओं और ऋषियों ने पूछा- देव! जप, तप तो हमारा ही अधिक है। कष्ट भी हमने ही अधिक किये और योगाभ्यासों में भी हमीं अधिक लगे रहे। फिर श्रेष्ठता का श्रेय नारद को कैसे मिला। भगवान ने कहा। तुम सब मेरा अनुग्रह आप करके अपने लिए विभूतियाँ पाने में लगे रहे। जबकि नारद को अपनेपन का ध्यान ही न आया। वे जन-जन में भक्ति भावना और धर्मधारणा जगाकर उन्हीं के कल्याण की बात सोचते रहे।
स्वार्थ और परमार्थ का अन्तर हो गया न। यही नारद की वरिष्ठता है।