बंगाल के प्रसिद्ध नेता और वायसराय की कौंसिल के सम्मानित सदस्य श्री कृष्णदास पाल बड़े ही सादे व्यक्ति थे। बाहरी आडम्बर उनको छू तक न गया था। किन्तु उनके पिता तो सादगी और सरलता की साक्षात् प्रतिमा ही थे।
एक बार एक अंग्रेज किसी कार्य से श्री कृष्णदास पाल से मिलने उनके बंगले पर गया। वह घोड़े पर सवार था। लान में जाकर उसने एक साधारण सी धोती पहने एक वृद्ध को फूल पौधों की संभाल करते देखा। अंग्रेज ने समझा कि यह पाल महोदय का नौकर होगा। बूढ़े को घोड़े की लगाम थमाकर उसने पूछा क्या पाल महोदय अन्दर हैं? इतने में पाल महाशय अन्दर से आये और वृद्ध के हाथ से घोड़े की लगाम लेकर आगन्तुक अंग्रेज से बोले- ‘इनसे मिलिये, ये हमारे पूज्य पिताजी हैं।’
अंग्रेज को अपने व्यवहार पर बड़ी लज्जा आयी। उसने तपाक से श्री कृष्णदास पाल के पिता से हाथ मिलाया और अपने व्यवहार के लिए क्षमा माँगते हुए कहा- ‘आप भारतीय लोग बड़े सरल और सादे होते हैं। मुझे अपने व्यवहार के लिए खेद है। किन्तु मैंने अपनी इस गलती से यह शिक्षा ग्रहण कर ली कि बिना परिचय के किसी की वेश भूषा देखकर ही उसका मूल्याँकन नहीं करना चाहिए।