मनुष्यों की आकृति एक प्रकृति चार

May 1986

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मनुष्य एक काय कलेवर है। जिसे घोंसले की उपमा दी जा सकती है। घोंसले की आकृतियों में थोड़ा बहुत अन्तर हो सकता है। किन्तु उसमें रहते पक्षी हैं। इन पक्षियों की आकृति एवं प्रकृति भी भिन्न-भिन्न प्रकार की होती है और उनके नाम भी अलग-अलग। फिर भी उनकी बिरादरी पक्षियों में ही गिनी जाती है।

मनुष्यों के शरीर प्रायः एक जैसे ही होते हैं। गोरे काले, लम्बे, ठिगने का अन्तर भले ही दीख पड़ता हो, पर उन सबको कहा मनुष्य ही जाता है। इतने पर भी उनकी प्रकृति में जमीन आसमान जैसा अन्तर पाया जाता है। उनमें से कुछ पशु प्रवृत्ति के होते हैं। मूर्ख, अनपढ़, कुसंस्कारी। इन्हें मात्र अपने पेट-प्रजनन से सम्बन्ध होता है। उन्हें किसी गरीब विधवा का खेत चर जाने में भी संकोच नहीं होता। माता, भगिनी, पुत्री के बीच कोई अन्तर प्रतीत नहीं होता। वे इनमें से जो भी वयस्क हो उसे पत्नी भाव से देखते हैं। समर्थों से डरकर जान बचाते हैं और असमर्थों का हक छीनने में उन्हें चोट पहुँचाने में कोई संकोच नहीं करते। अपने स्वार्थ के अतिरिक्त और किसी की परवा नहीं करते। यह पशु-प्रवृत्ति है।

इससे भी गई बीती एक श्रेणी पिशाचों की होती है। पिशाच वे जो डरते-डराते, जलते-जलाते जीवन व्यतीत करते हैं। उनके आनन्द विनोद का एक ही केन्द्र होता है- पर पीड़न। दूसरों को बिलखते, चीखते-चिल्लाते काँपते, प्राण छोड़ने देखकर जिनके आनन्द का ठिकाना नहीं रहता। जीवों की हिंसा करते हुए शिकार खेलने में, तड़पाने और जान लेने में जिन्हें अपना पौरुष पुरुषार्थ प्रतीत होता है। दो को लड़ा देने में, विग्रह खड़ा करने में उन्हें इसलिए मजा आता है कि दोनों पक्ष उनका लोहा मानें और किसी प्रकार वे उस झंझट से निकलने में अनुग्रह पूर्वक सहायता माँगें। दो में से जो जीतता है उसे अपनी सहायता बताते हैं और जो हारते हैं उनसे कहते हैं, “हमारी उपेक्षा की मजा देख लिया।” विवश और बाधित करके अनुचित लाभ उठाना। मनुष्यों में से कोई हाथ न पड़ रहा हो तो भैंसे, मेंढ़े, मुर्गे, तीतर आदि लड़ाकर उनके लहू-लुहान होकर मजा देखना। लोगों को किसी प्रकार ठगना और उस कमाई को दुर्व्यसनों में उलीचते रहना। यही होता है उनका दैनिक कृत्य। ऐसे ही, घिनौने कामों में अपना दर्प प्रदर्शित करते हुए जीवन बिता देते हैं। इसे पिशाच वर्ग कहा जा सकता है। यों होते वे भी मनुष्य आकृति के ही हैं।

बलगारिया के शोधकर्ता व्राम स्टोकर ने पाँच वर्ष पूर्व के नर पिशाच ड्रैकुला की नृशंसताओं का संकलन किया है और उसके द्वारा किये गये कृत्यों का रोमांचकारी वर्णन किया है। ड्रैकुला रूपानिया के बोरेसिया स्थान को राजधानी बनाकर शासन करता था। उसकी रक्त पिपासा ऐसी थी कि दोषी व निर्दोषों को आये दिन शूली पर चढ़वाया करता था। उसने विशाल सेना खड़ी की थी। पड़ौसी राज्यों पर अकस्मात ही चढ़ दौड़ता था और प्रजा का कत्लेआम करता हुआ राज्य कोष में जो कुछ होता ढोकर अपने यहाँ ले आता था। विशेष सैनिकों को छल बल से पकड़ कर उन्हें खम्भों में जड़ाता और अपने देश की सीमा के चारों ओर उन्हें बाड की तरह खड़ा कर देता ताकि पड़ौसी देशों के सिपाही उस पर प्रतिशोधात्मक हमला करने का साहस न करें। पकड़े हुए सैनिकों और प्रजाजनों को शिविर में बन्द करके वह आग लगवा देता और जीवित जलते हुए विशाल जन समुदाय की चीत्कारें सुन कर खुशी से चीख उठता।

कहते हैं कि उसने अपनी प्रौढ़ावस्था होने तक एक लाख से अधिक लोगों को अकारण मौत के घाट उतारा था। अपने लिए प्रायः दो हजार कमलों का एक विशाल भवन बनवाया। जिसमें वह अपने अंगरक्षकों के साथ अकेला रहता। जब मरा तो उसके नाक, कान, मुँह, आँख आदि सभी अंगों से खून की धार बहती रही। सियार, कुत्ते और गिद्ध उसकी मरणासन्न लाश के चारों ओर जमा हो गये और अपनी-अपनी बोली में भयंकर कर्णकटुनाद करते रहे। ताबूत दफना दिया गया तो उस पर चीलें और चमगादड़ें ही पर फैलाये बैठी रहतीं। बनाये मुहल्लों में बसने की घुसने की किसी की हिम्मत न पड़ती। उसमें चमगादड़े ही इकट्ठी हो गई थीं जो रात भर असामान्य कर्कश स्वर में बोलती थीं।

व्राम स्टोकर के उस इतिहास ग्रन्थ के आधार पर कई फिल्में बनाई गईं। वे जहाँ भी दिखाई गईं दर्शक काँपने लगते और सिसकियां भरने लगते फिर भी उन कुकृत्यों को देखने वालों की कमी नहीं रही। पाँच सौ वर्ष पुरानी उस वीभत्स घटना का महल देखने के लिए दुनिया भर के लोग पहुँचते हैं और उससे रूमानिया सरकार को दो करोड़ डालर की प्रतिवर्ष टिकट आमदनी होती है।

बात पुरानी हो गई पर जिन्होंने वह विवरण पुस्तकों में पढ़ा, फिल्मों में देखा है वे रात-रात बेचैन पाये जाते हैं और नींद खो बैठते हैं। इससे आगे पीछे भी अनेक नर पिशाच रक्त पिपाशु पैदा होते रहे। पर उनके कृत्य भुला दिये गये। ड्रैकुला का कथानक विज्ञापन की परिधि में आ गया इसलिए उसे सर्वविदित होने में देर न लगी। छोटे रूप में ऐसे ही ड्रैकुला अपने दुष्कृत्यों से आतंक उत्पन्न करते और मनुष्य जाति की गरिमा पर कलंक पोतते रहते हैं।

मनुष्यों में मनुष्य वे हैं जो सुयोग्य नागरिकों की तरह जीवनयापन करते हैं। अधिकारों को उपलब्ध करने के लिए संघर्ष करना जानते हैं और अपने कर्त्तव्यों को कभी भी नहीं भूलते। जो समझदारी से काम लेते हैं। ईमानदारी से निर्वाह करते हैं। जिम्मेदारी निबाहने में पीछे नहीं हटते और बहादुरी, हिम्मत और उदासी के प्रति जूझने की हिम्मत उनके रोम-रोम में भरी होती है।

मनुष्यों में ही एक और भी श्रेणी है- देव। उनके मन पर एक ही विचार छाया रहता है कि परमात्मा की इस सृष्टि को सुन्दर, सुविकसित और सुसंस्कृत बनाने के लिए अपने सर्वस्व का समर्पण किस प्रकार किया जा सकता है। धन न सही, साधन न सही। पर समय, श्रम, ज्ञान, प्रतिभा तो हर किसी के पास है। औसत नागरिक की तरह निर्वाह करने के उपरान्त जो कुछ बचता है उसे इस धरती को स्वर्गोपम बनाने के लिए अधिक से अधिक त्याग बलिदान किस प्रकार किया जा सकता है। यह कामना जितनी तृप्त होती है, कार्यान्वित बन पड़ती है, उतना ही वे प्रफुल्लित पुलकित होते हैं।

देव मानव वे हैं जिनकी जीवन गाथा में पिछड़ों को उठाने, उठतों को बढ़ाने और डूबतों को उबार कर कन्धे पर रखकर पार उतारने की गाथाएँ घटनाक्रम के रूप में पढ़ी और सुनी जाती हैं। जो कथन कम करते हैं, किन्तु अपने चरित्र का ऐसा आलीशान स्मारक छोड़ जाते हैं जिसे देखने वाले अनुकरण के लिए लालायित होते रहें और अभिनन्दनीय यश गाथाएँ कहते, सुनते आनन्द विभोर होते रहें।

दानव, पिशाच, मनुष्य और देव चारों ही प्रकृति के मनुष्य पाये जाते हैं। वे किसी और के बनाये हुए नहीं होते स्वेच्छापूर्वक ही मार्ग चुनते और जैसा बोते वैसा काटते हैं।


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