भविष्य गढ़ने में प्रसन्नता की भूमिका

May 1986

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फूल अपनी सुगन्ध और शोभा निरन्तर बाँटते रहते हैं। उनके क्षेत्र से निकलने वाला कोई भी व्यक्ति इसका आनन्द लिये बिना नहीं जाता। चन्दन वन अनायास ही अपने परिकर को मँहकाते और पवन को शीतल सुगन्धित करते रहते हैं। बादल आसमान पर मंडराते देखकर असंख्यों के दिल उमंगते हैं। मोर नाचते, पपीहा कूकते, दादुर टर्राते और बालक उछलते हैं। वे किसी को कोई राशि देते या प्रत्यक्ष सहयोग देते हों ऐसी बात भी नहीं है, तो भी उनका अस्तित्व स्वभावतः ऐसा माहौल बनाता है जिसमें आनन्द एवं उल्लास की लहर दौड़ जाती है।

ऐसा ही एक सद्गुण कई मनुष्यों में भी पाया जाता है, वे सदैव हंसते और हंसाते रहते हैं। पुष्प उद्यान का यही क्रम है कि जब खिलने का मौसम आता है, तब एक के बाद दूसरा खिलता जाता है सारा उद्यान खिल-खिलाकर हंस पड़ता है।

प्रसन्न रहना, सुन्दर होने की तरह एक दैवी अनुदान है जिसे पाकर मनुष्य अनायास ही सफल, समर्थ, स्वस्थ एवं आकर्षक दीख पड़ता है। यह विभूति उसी तक सीमित नहीं रहती, वरन् जो पास से गुजरता है, देखता है, उसके संपर्क में भी आता है। उसी प्रकार प्रसन्नता वितरित करना भी ऐसा अनुदान है, जिसकी छाया जिस पर भी पड़ती है, झलक जिसको भी मिलती है वह अपनी व्यथा निराशा खोकर प्रमुदित होता है। सुर्य की धूप में गर्मी और चन्द्रमा की चाँदनी में शीतलता बिना माँगे ही मिलती है। उसी प्रकार प्रसन्न चित्त की समीपता निकटवर्ती का मन हलका करती है। इस अनुदान के लिए हर लाभान्वित होने वाला प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से लाभान्वित होता है। इसे बिना धन दान किये दानशील होने के समान समझा जा सकता है।

यों बहुत से स्वभाव मनुष्य के व्यक्तित्व में आरम्भ से ही समा जाते हैं। पर पीछे भी प्रयत्न करने पर कोई सद्गुण या दुर्गुण ऐसा नहीं है, जो प्रयत्नपूर्वक दबाया या उभारा न जा सके। मनुष्य का दूसरों पर बस भले ही न चले, पर अपने ऊपर तो इतना अधिकार होता ही है कि अपने स्वभाव को बना या बिगाड़ सके। जिन्हें इस रहस्य का पता चल जाता है कि सुन्दर होने की तरह ही हंसमुख होना भी एक असाधारण आकर्षण है। वे उसे बढ़ाने का प्रयत्न करते और सफल भी रहते हैं।

सौंदर्य प्रसाधनों का, महंगे वस्त्र आभूषणों का लोग इसलिए उपयोग करते हैं कि वे आकर्षक दीख पड़ें। उनकी विशेषता देखकर प्रसन्न भी हों और आकर्षित भी। यह प्रयोजन अपने स्वभाव को मुसकान भरा बनाकर भी पूरा किया जा सकता है। इसके लिए किन्हीं इच्छित परिस्थितियों की आवश्यकता नहीं है। यह कार्य हर स्थिति में किया जा सकता है। सफलताओं में भी और असफलता में भी और विपन्नता में भी। मात्र मन को एक ढर्रे पर चलाने भर की बात है। चेहरे को एक खास प्रकार की आदत डालने भर की बात है।

दर्पण के सम्मुख बैठकर कोई भी मनुष्य अपनी उदास और नीरस मुखमुद्रा के साथ दूसरी बार हंसती मुस्कराती स्थिति की तुलना कर सकता है। दोनों के स्तर में जमीन आसमान जैसा अन्तर प्रतीत होगा। मुसकान भरी मुख मुद्रा दर्शकों को ऐसी प्रतीत होती है, मानो उनके साथ आत्मीयता प्रकट की जा रही है ओर आतिथ्य की, स्वागत सत्कार की समुचित व्यवस्था की गई है। इसके प्रतिकूल संकटग्रस्तों या सब कुछ गंवा बैठने वालों की तरह उदासी में डूबे रहने पर जहाँ अपना मन भारी होता है, वहाँ संपर्क में आने वाले भी अपनी उपेक्षा समझते हैं और उपेक्षा की प्रतिक्रिया उपेक्षा के रूप में ही वापस लेकर लौटते हैं। यह अपने मित्र प्रशंसकों की संख्या घटाती है। अपने को एकाकी बनाती है। इस स्थिति में कोई-कोई अहंकारी तक समझ बैठते हैं। यह अपने व्यक्तित्व का मूल्य गिराना है और भविष्य में स्नेह सद्भाव बने रहने का द्वार बन्द करता है।

नेतृत्व विश्लेषणकर्ताओं ने अपने अनुभव प्रकाशित करते हुए कहा है कि प्रसन्न मुद्रा में रहना अपने आधे शारीरिक एवं मानसिक भार संकटों को घटा लेना है। प्रसन्नता उस औषधि के समान है, जो थकान ओर उद्वेग को घटाती है और छोटी-मोटी कठिनाइयों का निराकरण ऐसे ही चुटकी बजाते हल कर देती है। इतना ही नहीं, गम्भीर समझी जाने वाली समस्याओं को हलकी दृष्टि से देखती है और उसे निरस्त करने या बच निकलने का कोई सीधा रास्ता बता देती है।

मन को शरीर रूपी रथ का सारथी माना गया है। यदि सारथी ठीक है तो इन्द्रियों के घोड़े भी सही चाल से चलेंगे और रथ की शोभा तथा चाल भी देखते ही बनेगी। जिस प्रकार पेड़-पौधे, खाद, पानी और उपयुक्त भूमि वातावरण में जल्दी उगते बढ़ते हैं। उसी प्रकार मनुष्य का स्वास्थ्य भी प्रसन्नता के वातावरण में स्थिर रहता एवं विकसित होता है। अपने ऊपर तथा दूसरों पर झल्लाते रहने वाले व्यक्ति अन्यान्यों का कितना अहित कर पाते हैं, यह तो नहीं कहा जा सकता, पर अपने आप को उस खीज झल्लाहट से हानि निश्चित रूप से होती है।

मनोविज्ञान वेत्ता जेम्स चार्ल्स, जार्ज पेनोर, जेम्स एलन, स्टीव, रोकमॉन, अब्राहम मेस्लो आदि ने अपने प्रयोगों का उल्लेख और विवेचन करते हुए एक ही निष्कर्ष निकाला है कि मनुष्य के स्वास्थ्य का क्षीण होना एवं रोगों का शिकार होना बहुत कुछ उसकी खीज या चिन्ताग्रस्तता के कारण होता है। यदि इन कांटों को मन से निकाल दिया जाय तो निरन्तर कसकती रहने वाली व्यथा से छुटकारा बिना औषधि उपचार के भी हो जाता है। इसके विपरीत जो अपने भविष्य को अन्धकार से घिरा हुआ देखते हैं, आशंकाओं और अशुभ सम्भावनाओं को पाले रहते हैं, वे कोई बड़ा कारण न होने पर भी रोगियों की तरह व्यथित बने रहते हैं।

शारीरिक और मानसिक रोगों की चिकित्सा में रोगी के मन में आशा उत्साह का संचार करना एक बहुत बड़ा काम है। इसे चिकित्सक अपने ढंग से और मित्र सहयोगी अपने ढंग से कर सकते हैं। चिकित्सा शास्त्र के विशालकाय कलेवर का सार संक्षेप इतना ही है कि रोगी को आशान्वित रखा जाये। साथ ही बीमारी को हल्का मानने और उसके जल्दी अच्छा होने का विश्वास बनाये रखने की मनःस्थिति बनाये रखी जाये। अच्छा चिकित्सक और परिचर्या में संलग्न नर्सें यही करती हैं। जो रोग को बढ़ा-चढ़ा एवं भयंकर बताकर उसे परेशान करके अधिक पैसा झटकने का प्रयत्न करते हैं, वे सच्चे अर्थों में चिकित्सक नहीं कहे जा सकते। ऐसे जल्लाद उत्पन्न रोग को और भी अधिक बढ़ा देते हैं।

जीवन के सर्वतोमुखी विकास में व्यक्तिगत क्षमताऐं मित्रों की सहायताऐं तथा परिस्थितियों की अनुकूलता प्रधान कारण मानी जाती हैं। पर सच तो यह है कि मानसिक सन्तुलन और उत्साह सबसे अधिक कारगर होता है। यह विशेषताएं यह प्रकट करती हैं कि व्यक्ति आत्मविश्वासी और चिन्तन का सही तरीका समझने का अभ्यासी है। परिस्थितियों की प्रतिकूलता को अनुकूलता में बदलने के लिए जितनी बड़ी भूमिका उत्साही मन की होती है, उतनी और किसी की नहीं।


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