संगीत की भावधारा से युग चेतना जुड़ें

May 1986

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संगीत किसी जमाने में मात्र मनोरंजन का विषय था। उससे शरीर में उमंगें उठती थीं और मन में तरंगें। थका-उदास व्यक्ति भी अपने में नवीन स्फूर्ति अनुभव करता था और टूटी हिम्मत भी पराक्रम दिखाने के लिए मचल उठती थी। उदासी की वह रामबाण दवा समझी जाती थी। प्रसन्नता द्विगुणित होकर आनन्द भरे वातावरण को और भी अधिक उत्तेजित कर देती थी। पुरातन मान्यताएं इतने तक ही सीमित थीं। इसीलिए गायकों-वादकों की सर्वत्र माँग रहती थी। उनका समुचित सम्मान भी होता था और निर्वाह से अधिक ही पुरस्कार मिलता था।

पुरातन मान्यताओं के अनुसार स्वर्गलोक में अप्सराएं प्रसन्नता का वातावरण बनाये रखकर अपनी महती भूमिका से उसका प्रभाव अनेकों गुना बढ़ा देती थीं। वहाँ की अन्य सुविधाओं की तुलना में अप्सराओं की उपस्थिति के कारण विनिर्मित संगीतमय वातावरण ही था जिसका काम जादू जैसा प्रभाव बनाकर उस स्थिति का निर्माण करना था, जिसे नादब्रह्म या शब्दब्रह्म का सान्निध्य कहा जा सकता है।

पृथ्वी के सतयुगी वातावरण में यक्ष, गंधर्व, किन्नर वही माहौल बनाते थे, जो स्वर्ग में देवियाँ-देवताओं की पत्नियाँ या कुमारिकाएं बनाती थीं।

पृथ्वी पर जिन देवताओं का बहुत परिचय है, उनमें शंकर को डमरू, सरस्वती को वीणा, कुण्डलिनी को नृसिहा कृष्ण को मुरली निनादित करते हुए दिखाया गया है। भक्त राज हनुमान करताल बजाते थे। यह सब अपनी क्षमता को सूक्ष्म जगत में उपयोगी परिस्थितियाँ उत्पन्न करने के लिए होता था। लोग ब्रह्म-चेतना द्वारा प्रस्फुटित नादयोग का श्रवण करते थे और ब्रह्मलीन रहने की स्थिति में पहुँचे जाते थे।

विषाक्तता का सम्मिश्रण मध्यकाल में हुआ, जब उससे साथ दिव्य चेतना के स्थान पर कामुकता भड़काने वाले हेय प्रयोग आरम्भ हुए। सामंतवादी युग में शोषण उत्पीड़न के षड्यन्त्र ही चलते रहते थे। उसकी करुणा भरी चीत्कारों से पत्थर भी हिल उठते थे। उन दिनों आत्म प्रताड़ना एवं लोक भर्त्सना से नरमेघों के कर्त्ता भी हिल उठते थे, आत्मा बेचैन हो उठती थी। उस प्रहार की तिलमिलाहट को हल्का करने के लिए सुरा-सुन्दरी का आश्रय लिया जाने लगा। नृशंस नीरसता की कटुता को हल्का करने के लिए संगीत में कामुकता का समावेश किया गया। अमृत को विष बनाने की यह प्रक्रिया कलाकारों से तो बन नहीं पड़ी, मात्र वेश्याओं ने लोभ-लालच के लिए उन नृशंसों का मन बहलाना शुरू किया। इसके लिए अश्लील गायन-वादन के साथ-साथ अपना शरीर भी बेचना आरम्भ कर दिया। सामन्तों के सहकारी दरबारी भी अपनी प्रचण्डता दिखाने के लिए यही सब करने लगे। अनुकरण से ही तो उनका बड़प्पन सिद्ध होता था, अस्तु उनके भी विजयोत्सव रचने लगे। लूटमार से मिला वैभव कहाँ खर्च हो, इसके लिए सुरा-सुन्दरी के साथ-साथ कामुक संगीत की भी तीसरी विद्या जुड़ गई। यह संगीत के दुर्दिनों का दर्द भरा इतिहास है। अस मादकता में शोषितों ने कुछ राह पायी और शोषकों की उद्दण्डता द्विगुणित हो उठी।

सूर्य, चन्द्र पर ग्रहण लगते तो हैं, पर वे अधिक समय टिकते नहीं। अंधड़ उगते हैं, चक्रवात उठते, पर वे कुछ ही समय अपनी विभीषिका दिखा पाते हैं, टिकाऊपन उनमें कहाँ होता है। साधारण मौसम ही सुहाता है और उसी में देर तक टिके रहने का प्रभाव होता है। दुर्दिन आते तो हैं, पर भूत की तरह उनकी आयु थोड़ी ही होती है।

मध्यकालीन अन्धकार युग के विनाश को सम्भालने सुधारने के लिए सन्तों का उदय हुआ। जनता के गिरे हुए मनोबल और छाये हुए अज्ञान को देखते हुए उन्हें लोकशिक्षण के लिए एकमात्र संगीत माध्यम ही उपयुक्त जंचा, फलतः अधिकाँश ने उसे अपनाया और कीर्तन का अवलम्बन अपनाया। नारद परम्परा को- चैतन्य महाप्रभु ने नवजीवन प्रदान किया। इसके अतिरिक्त उस सन्तकाल में प्रायः सभी ने यही एक राह अपनायी। सन्तों की मण्डलियाँ वस्तुतः कीर्तन मण्डलियाँ थीं। जिस प्रकार तीर्थयात्राएं धर्म प्रचार की पद यात्राएं होती थीं, उसी पुरातन व्यवस्था को इन सन्त मण्डलियों ने अपनाया और समय की विद्रूपता से अपना बचाव करते हुए भक्ति प्रचार को आगे रखते हुए समय के अनुरूप ढलने, बदलने के लिए जन-साधारण को प्रबुद्ध किया। भक्ति को उनने शक्ति का माध्यम बनाया। संगीत से भावनाओं को उभारते हुए उसे उस दिशा में बहाया, जिससे विदेशियों, विधर्मियों, बेदर्दियों के विरुद्ध तन कर खड़े होने और चींटियों के मिल कर आक्रमण करने पर हाथी को गिरा देने की बात कही।

देश के सुदिन लौटाने में इस संगीत आन्दोलन ने वह भूमिका निबाही जो प्रतिकार के लिए सन्निद्ध हुई सेना कर सकती थी। मनुष्य बुद्धि-प्रधान दीखता तो है, पर वस्तुतः उसकी मूल सत्ता है- भाव-प्रधान। भावनाओं से उद्वेलित व्यक्ति साधनों के अभाव में भी शिवाजी प्रताप, छत्रसाल, वन्दा बैरागी जैसी आदर्शवादिताएं अपना सकता है। बुद्धि तो नफा-नुकसान का लेखा जोखा ही लेती रहती है। अनाचारों से जूझने और अनुकरणीय आदर्श उपस्थिति करने में भावनाएं ही उच्चस्तरीय भूमिकाएं निभाती हैं। बुद्धि तो केवल योजनाएं बनाती रहती है, लाभ पक्ष को प्रमुखता देती रहती है। पर आदर्शों को अपनाने में जो कष्ट सहन करने पड़ते हैं, उनके लिए आवश्यक प्रेरणा एवं क्षमता भाव क्षेत्र से ही उपलब्ध होता है। भावनाओं को मर्मस्थल तक पहुँचाने के लिए संगीत से बढ़कर और कोई माध्यम नहीं है। सृजनात्मक हो या संघर्षात्मक, गुरुद्वारों को विशेष रूप से यह विद्या अपनानी पड़ी, क्यों कि सन्त-सिपाही खड़े करने थे। देवालयों में अर्चना का यह एक महत्वपूर्ण माध्यम बन गया। कहीं-कहीं तो अखण्ड कीर्तनों का भी आयोजन होने लगा। उन्हें नारद की वीणा का वह चमत्कार ध्यान में छाया रहा, जिससे उत्पन्न प्रवाह शक्ति ने वाल्मीकि जैसों को उलटा था और ध्रुव, प्रहलाद ही नहीं, पार्वती, सुकन्या, सावित्री तक को दिशा दी थी। उसे अपनाना सामान्य आधार पर सम्भव नहीं था। जहाँ व्यक्ति का व्यक्तित्व अपनी ऊर्जा से जन-साधारण को उभारता है, वहां उसमें संगीत सोने में सुगन्ध का काम करता है। भावनाएं उभरने पर ही व्यक्ति जोखिम भरे काम कर सकता है और उच्च आदर्शवादी प्रयोजनों में जुट सकता है। चन्द्रवरदायी ने पृथ्वीराज को और शिवावावनी ने शिवाजी को मृत्यु तक से जूझने का साहस दिया था।

संगीत की महत्ता इसलिए घटी, उसकी अवमानना इसलिए हुई कि उसे घटिया लोगों द्वारा घटिया प्रयोजनों के लिए प्रयुक्त किया जाने लगा। फिल्मी गानों से नाक भौं इसीलिए सिकोड़ी जाती है कि उनके प्रभाव से अपरिपक्व बुद्धि को कुमार्ग पर चल पड़ने का खतरा उठाते हुए देखा गया है। दूध में मक्खी पड़ जाने से वह रस से विष हो जाता है। कामुकता और शृंगारिकता की उत्तेजना भर देने पर उसकी गरिमा भी नष्ट होती है और उपयोगिता भी। सामंतीयुग के उपरान्त शृंगारिकता ने फिल्मों के कोंतर में छिपकर अपना व्यवसाय जारी रखा। यही कारण है कि ऐसे माहौल में समझदार लोग अपने लड़के-लड़कियों को जाने से रोकते हैं। यदि उस प्रवाह में उत्कृष्टता और आदर्शवादिता को प्रश्रय मिला होता तो संगीत ने आज की विकृतियों के निवारण और सत्प्रवृत्तियों के सम्वर्धन में महती भूमिका निभाई होती। जिनने इस तथ्य को समझा और अपनाया है, उनने आज की परिस्थितियों में भी संगीत की गरिमा को स्थिर रखा है।

युद्धों में कभी तीर कमान का प्रचलन था। बाद में तलवारें काम आने लगी। पीछे बन्दूकें चलीं और अब बमों का जमाना है। समय और परिस्थिति के अनुसार प्रचार माध्यम भी बदलते हैं। युग सन्धि की इस प्रभात बेला में हमें संसार के तीन चौथाई अशिक्षितों को अभीष्ट जानकारियाँ और प्रेरणाएं देने के लिए युग संगीत को ही अपनाना पड़ेगा। अभी भी लोकगीत अपने-अपने क्षेत्रों में स्थानीय संस्कृति को बचाये हुए हैं। मानव-संस्कृति को बचाने के लिए हमें इस दिशा में अधिक व्यापक रूप से अधिक योजनाबद्ध ढंग से आगे बढ़ना होगा। वही किया भी जा रहा है।

शान्ति-कुंज के युग शिल्पी सत्रों में प्रायः आधा श्रम संगीत प्रशिक्षण के लिए कराया जाता है। उसी के साथ बीच-बीच में टिप्पणियाँ लगा देने से एक नया स्वरूप निखरता है, जिसे भजनोपदेशक स्तर कहा जा सकता है। सर्वसाधारण को युग चेतना हृदयंगम कराने के लिए यह सर्व सुलभ और व्यापक क्षेत्र में अपना आलोक वितरण करने वाला माध्यम है।

सभी समर्थ शाखाओं में प्रज्ञा प्रशिक्षण के पाठ्यक्रम चालू होने जा रहे हैं। उसमें भी प्रायः आधार संगीत ही है। नये संगीत भी गायकों को मिलते रहें, इसकी विशेष व्यवस्था की जा रही है। अपनी-अपनी क्षेत्रीय भाषाओं में प्रज्ञा गीतों के अनुवाद होते चलें, इसका क्रम भी चलेगा। भारत की 16 मान्यता प्राप्त भाषाएं हैं। उन सभी में, यहाँ तक कि विभिन्न क्षेत्रों के विभिन्न आदिवासियों में बोली जाने वाली बोलियों में भी इनके अनुवाद होंगे। संगीतों के ऑडियो टेप तथा वीडियो पर दिखाये जाने वाले अभिनय समेत संगीत बनाने की भी व्यवस्था साथ ही की जा रही है।

साहित्य माध्यम से युग चेतना का प्रचार-संचार पहले से ही किया जा रहा है। अब संगीत माध्यम को भी उसके साथ जोड़कर शिक्षितों की तरह अशिक्षितों के लिए भी नया मार्ग खोला जा रहा है। इस प्रकार को हीरक जयन्ती का नया उपहार, नया प्रयोग समझा जा सकता है।


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