अनुसरण महामानवों का करें

May 1986

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अनुकरण सहज है। वह बहुमत के पीछे चलने से सम्पन्न हो जाता है। अनुसरण कठिन है क्योंकि उसके लिए श्रेष्ठ और सत्पात्रों को ढूँढ़ना पड़ता है जो अल्पमत में तो सदा ही रहते हैं। कभी-कभी तो वे इतने कम हो जाते हैं जिन्हें अभाववत् समझा जा सके।

सरलता सब को प्रिय है। कम परिश्रम में भरपूर सुविधा की प्राप्ति यही प्राणी की इच्छा रहती है। इसकी पूर्ति हो भी जाती है। किन्तु होता तभी है जब उचित अनुचित का विचार न किया जाय। जिस राह पर अधिकाँश चलते हैं उसी पर चला जाय।

श्रेष्ठता और वरिष्ठता के लिए दूरवर्ती विवेकशीलता अपनानी पड़ती है। साथियों का सहयोग तकने से विमुख होना पड़ता है और वरिष्ठता की दिशा में एकाकी चल पड़ना पड़ता है।

उपलब्धियाँ समुचित श्रम के बदले मिलती हैं। किन्तु जिन्हें सुविधाओं की अत्यधिक ललक है। वे नीति अनीति के झंझट में नहीं पड़ते वरन् यह देखते हैं कि किस प्रकार सरलतापूर्वक अभीष्ट सुख साधन उपलब्ध हों। किन्तु प्रकृति के नियम कुछ और ही हैं।

बगुले कीड़े खाते हैं वे उन्हें किसी भी नमी की जगह में सरलतापूर्वक मिल जाते हैं। पर जिन्हें मोतियों की तलाश है उन्हें हंसों की रीति-नीति अपनानी और मानसरोवर तक दौड़ लगानी पड़ती है। हंसों के झुण्ड नहीं होते वे कदाचित् ही कहीं दीख पड़ते हैं। बगुलों के झुण्ड तालाबों और खेतों पर छाये रहते हैं। संख्या उन्हीं की अधिक है। बहुमत में वे ही हैं। उन्हीं की गतिविधियाँ सरलतापूर्वक देखी जाती हैं। पर हंस कहाँ रहते हैं, किस तेजी से उड़ते हैं, मानसरोवर में डुबकी लगाकर कितनी कठिनाई से मोती ढूँढ़ने और उन्हें चुगने का आनन्द लेते हैं, यह किन्हीं जानकारों से पूछकर या पुस्तकें पढ़कर ही जाना जा सकता है। बगुलों की तरह उनकी गतिविधियाँ सर्वत्र देखने को नहीं मिलतीं। इसलिए अनुकरण को सरल और अनुसरण को कठिन बताया गया है।

बहुमत प्रकृति प्रेरणा पर चलता है। भूख उनसे शारीरिक श्रम कराती है और यौवन की तरंगें मस्तिष्क की कामुकता की पूर्ति का ताना-बाना बुनने में लगती है। इसके उपरान्त जो क्षमता बचती है उसे कुदकने, फुदकने या आराम करने में लगाने की प्राणि प्रवृत्ति देखी जाती है। इसी धुरी पर सब का जीवन चक्र घूमा रहता है और समय आने पर उनका अन्त भी हो जाता है। यही सामान्य क्रम है। बहुतों का साथ सबको सुहाता है। चींटी दीमक तक की गतिविधियाँ अपनी जैसी गतिविधियों के लिए साक्षी ढूँढ़ लेती हैं। टिड्डी जब निकलती है तो खेतों और पेड़ों को पूरी तरह आच्छादित कर लेती है। किन्तु भ्रमर, और कोकिलों का गुँजन सुनने के लिए पुष्पोद्यान की तलाश करते हुए वहाँ तक पहुँचना पड़ता है। जबकि मक्खी मच्छरों के झुण्ड किसी भी गन्दी नाली के इर्द-गिर्द झुण्ड के झुण्ड भिनभिनाते हुए देखे जाते हैं।

लोग क्या करते हैं, क्या सोचते हैं? क्या चाहते हैं? इसका अन्वेषण किया जाय तो प्रतीत होगा कि इन्द्रिय तृप्ति और मनोवाँछाओं की पूर्ति ही उन्हें अभीष्ट है। मनोवाँछाओं में वह वैभव चाहिए जो वासना और तृष्णा की पूर्ति करता है। अपना आतंक दूसरों पर जमाता है। श्रेष्ठता अपनाकर दूसरों की श्रद्धा और सद्भावना जीत सकना तो किसी किसी से ही वन पड़ता है। अधिकाँश अपनी आक्रामकता, दुष्टता के बलबूते आतंक उत्पन्न करते और डराकर अपना वर्चस्व जमाने का प्रयत्न करते हैं। यही है सामान्य लोगों की गतिविधियाँ जिन्हें लोभ, मोह और अहंकार से वर्गीकृत किया जा सकता है। इसके बाद भी कुछ क्षमता भी बच रहती है तो उसे आलस्य प्रमाद और दुर्व्यसनों में व्यतीत करते हैं। न्यूनाधिक मात्रा में यही है बहुजन जीवन की रूपरेखा।

जिन्हें दूरदर्शी प्रज्ञा प्राप्त नहीं है। वे भीड़ के साथ चलते हैं। अन्धानुकरण करते हैं। फलतः दुर्बुद्धि अपनाते कुकर्म करते और कृमि कीटक स्तर का जीवनयापन करते दुनिया में मत्स्य न्याय ही चलता है। बड़ी मछली छोटी को खाती है और फिर बचती बड़ी भी नहीं। मछुओं के जाल और डोंगे उन्हें भी बटोरते और फाड़-चीरकर खा जाते हैं। मत्स्य न्याय की तरह जंगल का कानून भी है। हिंस्र जन्तु भोली प्रकृति वालों पर आक्रमण करते और अपना दर्प दिखाते, आतंक जमाते दृष्टिगोचर होते हैं।

जिन्हें नर-पशु की तरह जीना है। उनके लिए यह बहुमत का अनुसरण ही पर्याप्त है। पेट और प्रजनन ही उनका प्रिय विषय और लक्ष्य है। परिणाम सोचने की उन्हें फुरसत नहीं। नियति के चक्र में बचकर मानवी गरिमा के सम्बन्ध में सोचने और अपनाने के लिए उनका मानस ही नहीं उमंगता। निकृष्ट योनियों के संचित कुसंस्कार ही उन पर हावी रहते हैं। वे ही उनकी इच्छा आकाँक्षा का निर्माण, निर्धारण करते हैं। वही उनका गतिचक्र है। मनुष्य शरीर मिल जाने पर भी सामान्य होने पर नर पशु की तरह और असामान्य होने पर नर पिशाच की तरह जीते हैं। ध्वंस और पतन ही उनकी दिशाधारा होती है। उसी में बहते हुए अपना दुर्भाग्यपूर्ण अन्त करते हैं।

मनुष्यों में जो विशिष्ट और वरिष्ठ है। उन्हें जनसाधारण का अनुकरण करने की ललक को जीतना पड़ता है और वह मार्ग अपनाते हैं जो महामानवों ने अपनाया। किन्तु कठिनाई यह है कि अपने चारों ओर हेय जीवन ही बिखरा दीखता है। सरल यही पड़ता है कि इसी हेय वर्ग की गतिविधियों का अनुकरण किया जाय। उन्हीं के संकेतों और परामर्शों का अनुगमन किया जाय। मनुष्य एक दूसरे को इसी प्रकार पतन की दिशा में खींचता और धकेलता है। शुभ चिन्तन, हितैषी, कुटुम्बी, मित्र कहलाने वाले भी यही करते हैं जो उनने समझा, अपनाया और किया है उसके अतिरिक्त अन्य प्रकार की शिक्षा वे दें तो दें भी कैसे? जिनने आदर्शों की मात्र चर्चा सुनी है। उस मार्ग पर प्रत्यक्षतः एक कदम भी नहीं उठाया, उनसे यह आशा करना कि वे सच्चे मन से किसी को श्रेष्ठता के उस मार्ग पर चलने का प्रयत्न करेंगे या सफल होंगे, आशा नहीं ही की जा सकती। वे स्वयं जिस प्रकार घिनौनेपन को अन्तरंग और बहिरंग में धारण किये रहे हैं। उनसे भिन्न प्रकार के परामर्श या सहयोग की आशा करना भी व्यर्थ है।

अनुसरण के लिए उच्चस्तरीय व्यक्तित्वों की तलाश करनी पड़ती है। पर वे मिलते नहीं। ऐसी दशा में विश्व इतिहास के पुष्पोद्यान में खिले हुए परिजात पुष्पों को ही ढूँढ़ना पड़ता है। चिन्तन की उत्कृष्टता, चरित्र की आदर्शवादिता और व्यवहार की शालीनता जिनने व्यवहार में अपनाई हो उन्हें खोजने के लिए हमें इतिहास के पृष्ठ पढ़ने और महामानवों के जीवन क्रम ढूँढ़ने पड़ेंगे। आज की स्थिति में भी वे कहीं-कहीं हो सकते हैं पर उन्हें इतनी सूक्ष्म बुद्धि और गहन तत्परता से ढूँढ़ना होगा जैसे पर्वत शिखरों पर उगे हुए ब्रह्म कमलों को असाधारण प्रयत्नपूर्वक ढूँढ़ना पड़ता है। अनुसरण ऐसों का ही किया जाता है। उन्हें खोज निकालना भी किसी शोध प्रबन्ध के लेखन में अनुसन्धान भरी सफलता प्राप्त करने के ही समतुल्य है।

चमकने वाले लोग आकर्षित तो विशेष रूप से करते हैं, पर उनके पीछे विषाक्तता के खतरे भी इतने छिपे पाये जाते हैं कि उनकी ओर खिंच जाना और भी अधिक अनर्थ का कारण बनता है।

मुर्दे की चिता से ऊँची लपटें उठती दीखती हैं। सर्प का काय कलेवर कैसा सुहावना लगता है। छुरे की धार कैसी चमचमाती है। इनके समीप जाने और संपर्क साधने को मन सहज ही करता है। पर इन तथाकथित बड़े आदमियों की स्थिति और भी बुरी होती है। उनका वैभव आकर्षण ऐसा लगता है मानों यह पारस जैसे हो और उनके संपर्क में आने से हमें भी ऊँचा उठने का रास्ता मिलेगा किन्तु दुर्भाग्य यह है कि पानी में भँवरों और हवा में देखे जाने वाले चक्रवातों की तरह इनमें छद्म और प्रवंच सिखाने की ही क्षमता होती है क्योंकि वे स्वयं इसी आधार पर अवलम्बन करके बड़े बने होते हैं। पतन उनमें पाया जाता है जो हेय हैं, दीन दयनीय हैं। पर साथ ही बड़े भी ऐसे ही दिखाई पड़ते हैं जिनने आडम्बर बनाकर अनेकों का शोषण किया है। तथाकथित बड़े आदमी भी प्रकारान्तर से हमें जो सिखाते हैं वह क्षुद्र जनों की नीचता से कम भयंकर नहीं होता।

ऐसी दशा में प्रश्न यही रह जाता है कि ‘अनुसरण’ किसका करें, इसके लिए हमें खरा सोना परखने के लिए दहकती आग और सही कसौटी को आगे करना और उत्कृष्टता का पता लगाना पड़ेगा। यह जीवित मनुष्यों में भी कभी-कभी मिल जाती है। पर उनमें खतरा ही रहता है किन्तु चमकने वाला काँच वही चमक आने पर मात्र काँच पर नकली हीरा ही साबित न हो। मृत्यु ही जीवन के अध्याय की पूर्णता है। उसी के आधार पर यह जाना जाता है कि निजी जीवन की आदर्शवादिता और लोक व्यवहार में परमार्थ परायणता कितनी खरी और कितनी सही साबित हुई। इससे पूर्व यह आशंका ही रहती है कि कहीं जोरों से दहाड़ने वाले ढोल के भीतर खोखली चालें ही न भरी हों। यह आशंका इन दिनों और भी अधिक बढ़ गई है। लोगों ने विडम्बनाओं के अन्यान्य धन्धे जानकारी में आते जाने के कारण यह नई शैली अपनाई है कि अपने को भगवत् भक्त, या परमार्थ परायण लोकसेवी सिद्ध करें और इस आड़ में भावुक लोगों को चंगुल में फँसाकर अपना उल्लू सीधा करें। यह एक विचित्र समस्या है कि परमार्थ प्रदर्शन की आड़ में भी अब छल छद्म ने अपना विस्तार और जंजाल काफी मजबूत कर लिया है।

ऐसी दिशा में बिना जोखिम का क्षेत्र एक ही हो सकता है कि जिनने आदि से लेकर अन्त तक का अपना स्वरूप स्पष्ट कर दिया। हर कसौटी पर खरे सिद्ध होते रहे। उन दिवंगत महामानवों को अपना आदर्श माना जाय। उन पर श्रद्धा केन्द्रित की जाय और यथासम्भव उन्हीं के परखे हुए मार्ग का अनुसरण किया जाय। व्यक्तिगत जीवन की आदर्शवादिता क्रिया-कलापों से बढ़चढ़कर आदर्शवादिता, और समय के अनुरूप क्रिया की गतिशीलता यह तीनों ही तथ्य जिनके जीवन में कितनी सीमा तक चरितार्थ हुए, उन्हें उसी अनुपात से श्रद्धा भाजन माना जाय और अन्तःकरण में श्रेष्ठता का अवलंबन करने का उत्साह उठे तो उन्हीं लोगों की दिशाधारा का अवलम्बन किया जाय। भले ही वे शरीर धारण किये हुए हों या उसका परित्याग कर चुके हों।

महामानवों का अनुसरण ही हमारे लिए श्रेयस्कर है। उन्हीं की तरह अपनी जीवनचर्या का स्वरूप निर्धारित करें और उस लक्ष्य तक पहुँचें, जहाँ तक वे पहुँच चुके। इसी में अपनी विवेकशीलता और जीवनचर्या की सार्थकता है। न हमें उदर परायणों, दीन-हीनों की तरह जीना चाहिए और न उन पाखण्डियों की तरह जो अपनी कथनी और करनी में जमीन आसमान जैसा अन्तर बनाये रह रहे हैं।


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