इक्कीसवीं सदी- नारी शताब्दी

May 1986

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मनुष्य समाज के दो विभाग हैं एक नर दूसरी नारी। आधी मनुष्य जाति नर के रूप में है आधी नारी के रूप में। दोनों के सहयोग से ही वे सब क्रिया-कलाप चलते हैं मनुष्य के उत्तरदायित्वों की परिधि में आते हैं। दोनों के बीच असहयोग या व्यवधान खड़ा हो जाय तो समझना चाहिए कि प्रगति तो दूर निर्वाह का साधारण क्रम भी ठीक तरह न चल सकेगा।

वंश परम्परा चलने और पीढ़ी दर पीढ़ी मनुष्य का अस्तित्व बनाये रखने में नारी का 99 प्रतिशत योगदान है। नर तो विलास का बुखार उतारने और गृहस्थ की अर्थ व्यवस्था सम्भालने भर का एक सीमित दायित्व सँभालता है। नारी ही परिवार का सृजन, विकास एवं नियन्त्रण करती है। नर तो इस क्षेत्र का प्रहरी भर कहा जा सकता है। वह बिना नारी का समुचित सहयोग पाये न तो परिवार का सृजन कर सकता है और न निजी जीवन को सुव्यवस्थित रख सकता है।

इक्कीसवीं सदी को महिला शताब्दी का नाम दिया गया है। कारण कि प्रकृति उनके पक्ष में, विशेषताओं की दृष्टि से वह पुरुष की तुलना में कहीं अधिक श्रेष्ठ है। साथ ही समय की माँग ध्वंस से मुड़कर सृजन की दिशा पकड़ रही है। उसमें भी नारी ही फिट बैठती है।

प्रकृति नर को निरीह मानती है। उनके अधिक संख्या में तथा जल्दी मरने के तथ्य को समझती है। इसलिए भ्रूण रूप में लड़के ही अधिक आते हैं पर वे ऐसे छुईमुई होते हैं कि गर्भपातों के पर्यवेक्षण में लड़के ही अधिक संख्या में होते हैं। लड़कियाँ कम। शिशु रोगों में लड़के ही अधिक ग्रस्त होते हैं और जल्दी मरते हैं। औसतन प्रकृति 140 लड़के और 100 लड़कियां विनिर्मित करती है। पर बारह वर्ष की आयु तक पहुँचते पहुँचते दोनों बराबर हो जाते हैं।

दीर्घजीवन की दृष्टि से नारी का जीवन पुरुष की तुलना में 4 वर्ष अधिक होता है। बीमारों की गणना में पुरुषों की तुलना में स्त्री बीमारों की संख्या आधी होती है। पगलाने और सनकीपन में भी पुरुष ही आगे रहते हैं। स्त्री की सन्तोषी प्रवृत्ति, सहज मुस्कान और रोकर मन की व्यथा हलकी कर लेती हैं जबकि पुरुष अहंकार में इठा फिरता है। उच्छृंखलता अधिक बरतता है। महत्वाकांक्षाएं भी लदी फिरती हैं। शत्रुता, प्रतिशोध और अनाचार में अड़ी रहने के कारण उनकी जीवनी शक्ति अधिक तेजी से क्षय होती है और मस्तिष्कीय असन्तुलन का आये दिन शिकार बनता रहता है। यही सब कारण हैं जो उसकी मानसिक और शारीरिक स्थिति को गड़बड़ा देते हैं। उपार्जन की तुलना में जिसका खर्च ज्यादा होगा वह देवालिया बनेगा ही। वासनाओं में वही अधिक रस लेता है और अपने आप को गलाता घुलाता जाता है।

नारी यद्यपि प्रजनन की व्यथा सहती और मासिक धर्म में भी बहुत कुछ गँवाती है। फिर भी कामुक उत्तेजनाओं के क्षेत्र में संयत होने के कारण उसका जीवन सत्व सुरक्षित रहता है। हाड़-माँस और कद की दृष्टि से वह भले ही हलकी पड़ती हो, लड़ने-झगड़ने से भी वह कतराती है। इस पर भी उसकी कल्पना और मेधा कहीं अधिक विकसित रहती है। यही कारण है कि वे स्कूलों परीक्षाओं में लड़कों की तुलना में अच्छे नम्बरों से उत्तीर्ण होती हैं। अनुत्तीर्ण होने में लड़कों का ही अनुपात अधिक पाया गया है।

सृजन प्रक्रिया के शोधकर्ताओं ने पाया है कि भाषा ज्ञान, कृषि, पशुपालन जैसे आर्कों का आरम्भ पुरुष नहीं कर सका, उसने नारी के प्रयासों में सहायता भर दी। वस्त्र निर्माण का कौशल उसी का है। अन्यथा आदिम काल में पुरुष पशुओं का चमड़ा ही कमर में बाँधे फिरता था। शिकार भर मार लाता था, पर उसे पकाने के लिए जिस अग्नि की आवश्यकता पड़ती है, उसे घर्षण क्रिया द्वारा उत्पन्न करने में नारी ही सफलता का श्रेय प्राप्त कर सकी।

प्रकृति अनुशासन को पग-पग पर तोड़ने, आपस में लड़ने-झगड़ने और आखेट में आहत होने का दण्ड दुष्परिणाम भी उसी को अधिक भुगतना पड़ा। नारी इस प्रकार के जंजाल से बची रही। इसलिए शारीरिक रोग और अकाल मृत्यु ने उसे उतना नहीं सताया जितना पुरुषों को। यह ऐतिहासिक अन्वेषण है। नृतत्व विशेषज्ञों ने अपनी शोधों में ऐसे ही निष्कर्ष निकाले हैं जिनसे सिद्ध होता है कि औचित्य को अपनाने की प्रवृत्ति ने नारी को घाटे में नहीं रहने दिया।

विदित इतिहास में जितने भी छोटे बड़े युद्ध हुये हैं, उनमें पुरुषों को ही अधिक मरना और घायल होना पड़ा है। महिलाओं को अनिश्चित एवं विपत्तिग्रस्त भले ही रहना पड़ा हो पर उन्हें मोर्चे की लड़ाई में न तो जूझना पड़ा और न रक्तचाप की नृशंसता में उतना कोई विशेष भाग रहा।

इतने पर भी नारी अपनी स्वाभाविक वरिष्ठता की अधिकारिणी नहीं बन सकी। इसका एकमात्र कारण पुरुषों द्वारा उसे अनेक प्रकार प्रतिबन्धित करना एवं सताया दबाया जाना ही है। उसे ऐसी परिस्थितियों में रहना पड़ा जिसमें वे न अपनी प्रतिभा का विकास कर सकती थीं और न कौशल का प्रदर्शन। उसे कभी सती होने के लिए विवश किया गया तो कभी दहेज कम लाने के कारण मौत के घाट उतार दिया गया। बहुपत्नी प्रथा में भी यौवन ढलते ही उसे निचोड़े हुए नीबू के छिलके की तरह अपनी मौत मरने के लिए छोड़ दिया गया। चोर जैसी चौकीदारी उस पर की गई। खरीदी हुई दासी या पैर की जूती की तरह किसी प्रकार वह अपना अस्तित्व बनाये या बचाये रहने में समर्थ हुईं। पिंजड़े जैसे घर और उस पर पर्दे का प्रतिबन्ध इस स्थिति में डाले रहा कि वे अपने अस्तित्व तथा अधिकारों तक के सम्बन्ध में कुछ समझ न सकी। पालतू पशुओं की तरह मालिक के बताये हुए कामों में जुटे रहकर अपना निर्वाह भर करती रहीं। ऐसी बंदी जैसी परिस्थितियों में कोई भी व्यक्ति हार या टूट सकता है। खीज ओर घुटन के शिकंजे में कसे जाते रहने पर वह जर्जर एवं अक्षम बन सकता है।

समय अब तेजी से बदल रहा है। विषमता एवं विपन्नता के विरुद्ध आवाज उठाने की हिम्मत सब और उभर रही है। मात्र अधिकार जताना ही कर्तव्य पालन करना भी मानवी चेतना को झकझोर रहा है। परिस्थितियों ने समाज को विवश कर दिया है कि वह नारी के प्रति अपना दृष्टिकोण बदले और मनुष्य वर्ग का ही उपयोगी अंग माने। फलतः उनकी शिक्षा पर ध्यान दिया जा रहा है साथ ही स्वावलम्बी और सुसंस्कृति, सुयोग्य, समुन्नत बनाने पर भी। जहाँ कहीं भी अवसर मिला है वे वर्षा की बूँद की तरह विकासोन्मुख हुई है और बसन्त की तरह फूलों से लदी हैं। उनकी स्वाभाविक प्रतिभा को देखकर सर्वसाधारण को आश्चर्यचकित रह जाना पड़ा है। प्रगतिशील देशों में उनने वे काम संभाले हैं। जिन्हें पुरुष की ही बपौती समझा जाता था और जिन्हें कर गुजरने की पिछले दिनों नारी परम्परा रही भी नयी।

विज्ञान, कला, साहित्य, प्रशासन, शिक्षा, चिकित्सा आदि के जो भी काम उन्हें सौंपे गये उनमें वे पुरुषों की तुलना में अधिक ही सफल सक्षम रहीं। मात्र उनकी भावुकता, स्नेह, सद्भावना की प्रकृति ही बाधक बनी। जिसका लाभ उठाकर पुरुषों ने उन्हें प्रेम के नाम पर वासना के कोल्हू में पेल देने का प्रयत्न किया। जो इस कुचक्र में फँसकर अपना भविष्य बिगाड़ बैठी उनके अगणित उदाहरण शेष नारी जाति को सावधान करने और खतरे की पूर्व सूचना देने में समर्थ हुए। फलतः आज की विकसित नारी इतनी दृढ़ता अपना चुकी है कि कोई भी चिड़ीमार मछलीमार उन्हें सहज शिकार न बना सके। ऐसी प्रबुद्ध नारी पुरुषों के लिए शिकार नहीं रही। मात्र सहयोगिनी बनने के लिए उचित परीक्षण के उपरान्त सहमत हो सकी।

नारी का शोषण उत्पीड़न, पिछड़ापन सब क्षेत्रों में से तो हटा नहीं है। पर उसे अनेक क्षेत्रों में विकसित स्थिति में देखा जा रहा है और समझा जा रहा है कि उसे दबोचकर पुरुष न पाया कम और गँवाया बहुत। अब उनींदी आँखें खुली हैं और खुमारी की अकड़ घटी है। नये परिवर्तित माहौल में नारी को शिक्षित, स्वावलम्बी और समुन्नत बनने का अवसर मिल रहा है। यह प्रवाह ऐसा है जो प्रगति की दिशा में द्रुतगति से बढ़ेगा। फलतः वह नये उत्साह और नये कौशल के साथ समय की सृजन आवश्यकता को पूरा करने में लगेगा। अपने स्नेह, सहयोग और वात्सल्य से नर में ऐसा परिवर्तन करेगी कि वह अनाचार बरतने में आज जैसा स्वेच्छाचारी न रह सके।

समय की विकृतियाँ पुरुष द्वारा बरती जाने वाली दृष्टता की देन है। उसके हाथ में धन है, साधन है, आयुध है और ऐसे धूर्त हथकण्डे जिनके सहारे वह दूसरों को फँसाने के फेर में अपनी भी दुर्गति कराने वाले दल-दल में फँस सके। इतने पर भी यह स्पष्टतया समझा जाना चाहिए कि वह माता के रूप में, बहिन के रूप में, पुत्री के रूप में, पत्नी के रूप में पुरुष को नियन्त्रण में रख सकने में समर्थ है। इतना ही नहीं वह चंडी के रूप में अपनी विकरालता भी प्रकट कर सकती है।

इक्कीसवीं सदी सृजन की शताब्दी है। विनाश का उपक्रम इस बीसवीं सदी का अन्त होते-होते दम तोड़ चुका है। पुरुष ने कठोरता बरती और नृशंसता सीखी है। उसकी उपयोगिता मात्र युद्ध अपहरण, शोषण उत्साह भर में काम आ सकती थी। सो अगले दिनों ऐसा प्रवाह बहेगा, माहौल बनेगा जिसमें इस प्रकार की उद्दंडता सहज ही निरर्थक हो जायगी। आवश्यकता सृजन की पड़ेगी। उसमें पुरुष का अद्यावधि प्रयास मात्र छद्म बनकर ही अपना चकाचौंध चमकाता रहा है। अगले दिनों यह प्रपंच न चलेंगे। तब सद्भावना और सहकारिता की ही आवश्यकता रह जायगी। यह प्रयोजन पूरा कर सकने में नारी शक्ति ही समर्थ हो सकेगी। अतएव समय की आवश्यकता उसी के द्वारा पूरी हो सकेगी।

जनसंख्या विशेषज्ञों और भावी सम्भावना के पर्यवेक्षकों का कथन है कि अगली शताब्दी में पुरुष अल्पमत में होंगे। और नारी बहुमत में। नारी को वश में रखने की कठोरता छोड़कर नर उस शक्ति के सम्मुख समर्पण करेगा। जो हर दृष्टि से उसकी तुलना में वरिष्ठ है। नेतृत्व नारी का होगा और अनुगमन नर का। यह परिवर्तन युग परिवर्तन की ठोस और चिरस्थायी भूमिका निभा सकेगा।

हमें भविष्य का ध्यान रखते हुए- समय को पहचानते हुए- नारी उत्थान के लिए अग्रसर होना चाहिए। इसी में हम सबकी भलाई है। यह सुनिश्चित है कि इक्कीसवीं शताब्दी महिलाओं की होगी। हरेक का यह दायित्व है, कि वह नारी शक्ति को आगे बढ़ाने में कोई कसर न उठा रखे।


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