संस्कृति और उसकी विवेचना

May 1986

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संस्कृति शब्द का उपयोग आज विभिन्न अर्थों में होता है। नाच, गाना, प्रहसन, अभिनय आदि का बोध साँस्कृतिक कार्यक्रमों से होता है। इस प्रकार का कोई विज्ञापन प्रकाशित हो तो यही समझा जाता है कि इस आयोजन में इसी प्रकार की गतिविधियाँ अपनाई जायेंगी और दर्शकों का मनोरंजन ही किया जायेगा। यह मनोरंजन कार्य प्रकार उसको अर्थ एवं स्वरूप में विज्ञापित करने वाला रहा होता तो अधिक अच्छा होता।

दूसरे संस्कृति का अर्थ खान-पान, रहन-सहन वस्त्र परिधान एवं प्रथा परम्पराओं के रूप में होता है। ऐसी संस्कृति प्रायः परम्पराजन्य होती है उसके साथ क्षेत्रीय सुविधाओं का भी समावेश होता है। भारत जैसे उष्ण प्रदेश में बार-बार का स्नान, नदी, सरोवरों का अवगाहन संस्कृति है, पर जहाँ पानी का घोर अभाव है, वहाँ हाथ धोने के लिए भी पानी नहीं फैलाया जाता वरन् हाथ पर उलटा बहा लिया जाता है ताकि वह भाग भी स्नानसिक्त मान लिया जाय। हिमानी क्षेत्रों में शीत ऋतु में कोई विरले ही कभी-कभी शरीर को धोते पोतते हैं। यह वहाँ की संस्कृति है जो उष्णता और जल की बहुलता वाले क्षेत्रों से पृथक है।

शिष्टाचारों के निर्धारण पुरातन काल से चले आते हैं उनमें सुविधा असुविधा की बात आरम्भ काल में सोची गई होगी, पर अब तो वह प्रचलन मात्र है। पाश्चात्य देशों में पर नारी और पर पुरुष का नृत्य स्टेजों पर होता है और फुर्तीले नर्तकों के कौशल पर तालियाँ बजती हैं। पर जिन देशों में कड़े पर्दे का रिवाज है। उन समुदायों में ऐसा करना अश्लीलता समझा और अक्षम्य माना जाता है।

ऐसी दशा में संस्कृति का क्या अर्थ माना जाय? अरब लोग जिस प्रकार की पोशाक पहनते हैं, अफ्रीकी वैसी नहीं पहनते। इसी प्रकार भाषाओं में भी अन्तर है और पितरों तथा देवी-देवताओं की मान्यता के सम्बन्ध में भी। इन सब प्रसंगों को प्रचलन या अभिरुचि, परम्परा भले ही कहा जाय पर उस उद्देश्य की पूर्ति नहीं होती, जिसको लेकर उस गौरवास्पद शब्द का सृजन हुआ है। संस्कृति का अर्थ है- सुसंस्कारिता। सुसंस्कारिता से तात्पर्य है मानवी गरिमा के अनुरूप, चिन्तन, चरित्र एवं व्यवहार। इस संदर्भ में बहुत अधिक मतभेद की गुँजा नहीं है। देश, क्षेत्र जाति, वर्ण, सम्प्रदाय के कारण शालीनता का स्तर नहीं गिरता। संयम, सज्जनता, उदारता, नम्रता जैसे शब्दों में उसका विवेचन किया जा सकता है। दूसरों से हम अपने लिए जैसे व्यवहार की आशा करते हैं वैसा ही यदि दूसरे के साथ करने लगें तो समझना चाहिए कि संस्कृति का पूर्वार्ध हुआ। उत्तरार्ध में उदारता, सेवा-साधना, पुण्य-परमार्थ जैसे विषय आते हैं। उनका तात्पर्य मिल बाँटकर खाने और हँसती-हँसाती जिन्दगी जीने से है। इसे “वसुधैव कुटुम्बकम्” सूत्र के अंतर्गत समेटा जा सकता है। कोई व्यक्ति दूसरों को सुखी समुन्नत बनाने की सचमुच ही इच्छा करें तो उसका एक ही आधार हो सकता है कि अपने आपको संयमी, मितव्ययी, अपरिग्रही और महत्वाकाँक्षाओं से रहित बनाये। स्पष्ट है कि आदर्शवादी महत्वाकाँक्षाएँ पूरी करने के लिए अपनी सुविधा एवं विलासताओं, तृष्णाओं में कमी करनी पड़ती है और औसत भारतीय स्तर का जीवनयापन करते हुए निर्वाह करना पड़ता है। यही वह बचत है जिसे परमार्थ कार्यों में नियोजित किया जा सकता है।

साधु और ब्राह्मणों की उच्चस्तरीय संस्कृति रही है। उनके व्यक्तिगत जीवन एवं जन साधारण के भावनात्मक नव निर्माणों में संलग्न रहने को ही देव-संस्कृति कहते हैं। भारतीय संस्कृति देव-संस्कृति है। उसके हर पक्ष और प्रतिपादन में उत्कृष्ट चिन्तन, आदर्श कर्तृत्व एवं शालीन व्यवहार के लिए निर्देश है। इस विधा को व्यावहारिक रूप देने हेतु, सादा जीवन उच्च विचार का व्यवहार करना पड़ता है। यह ऋषियों, ब्राह्मणों और संत सज्जनों की परिपाटी रही है। इसी को गान्धी, विनोबा जैसे महामानव अपनाते और सर्व साधारण को अपने प्रवचनों से ही नहीं, जीवनयापन के विधि-विधानों से परिचय देते रहते रहे हैं।

भारतीय संस्कृति का एक नाम यज्ञ संस्कृति भी है। यज्ञ का अर्थ है- त्याग, बलिदान, सेवा, पवित्रता। उन गुणों का कथा प्रवचनों में बखान करने से काम नहीं चलता, वरन् निज की जीवनचर्या को खुली पुस्तक की तरह रख कर सर्वसाधारण को यह बताना पड़ता है कि राजमार्ग क्या है? जिस पर चलते हुए लक्ष्य तक पहुँचा जा सके।

अग्निहोत्र की क्रिया में अपने उपयोग के पदार्थ वायु-भूत बनाकर जन साधारण के लिए वितरित किये जाते हैं। प्रत्यक्षतः इस प्रकार के रासायनिक यजन का प्रभाव सीमित क्षेत्र में हो सकता है। किन्तु इस क्रिया-कृत्य के पीछे जो भावनाएँ जुड़ी हुई हैं, वे सर्व साधारण के मर्मस्थल तक पहुँचती हैं और उसे उसी प्रकार विकसित करती हैं, जिस प्रकार बन्द कलियाँ सूर्य का प्रकाश उदय होते ही खिलना आरम्भ कर देती है।

मनुष्य मात्र शरीर नहीं है, जिसकी गतिविधियाँ, आकाँक्षाएँ किस दिशा में चल रही हैं, मात्र इसी आधार पर किसी का व्यक्तित्व परखा जा सकता है। गुण, कर्म, स्वभाव से ही यह जाना जा सकता है कि आन्तरिक व्यक्तित्व किस प्रकार का है। उसमें उत्कृष्टता या निकृष्टता के कितने अंश हैं। बाहर से साज-सज्जा या खर्चों में ठाट-बाट बनाकर कोई व्यक्ति महान नहीं बन सकता। यह बहरूपिया स्तर की विडम्बना है। मुखौटा चेहरे पर बाँध कर कोई व्यक्ति वह नहीं हो सकता जैसा कि अपने को प्रदर्शित करता है। नाटकों में लोग भगवान या महापुरुषों के वेश विन्यास बनाते हैं। पर दर्शक उससे चमत्कृत होते हुए भी यह नहीं मानते कि यह व्यक्ति वैसा ही है जैसा कि आवरण ओढ़कर अपने को प्रदर्शित कर रहा है। संस्कृति शब्द का सरल और सार संक्षेप समझना हो तो उसे “सादा जीवन उच्च विचार” के थोड़े से शब्दों में प्रकट अभिव्यक्त किया जा सकता है।


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