व्यावहारिक क्रिया योग

May 1986

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योग दर्शन का एक मूत्र है- “तपः स्वाध्याय, ईश्वर प्रणधाननि क्रियायोगः। अर्थात् क्रियायोग के तीन पक्ष हैं। (1) तप (2) स्वाध्याय (3) ईश्वर प्रणधान योग। साधना का यह क्रिया पक्ष है। अनेक प्रसंगों, विवादों संदर्भों में उलझने और अनेकानेक क्रिया-काण्डों में से किसे चुनना- यह कार्य बड़ा कठिन है। क्योंकि शास्त्रकार अपने-अपने प्रतिपादनों पर इतना जोर देते हैं कि विश्वासी के लिए वह सर्वोत्तम प्रतीत होता है। फिर जिज्ञासु के लिए अन्य ग्रन्थों को पढ़ने की भी मनाही नहीं है। उनका अवलोकन करने पर दूसरे पक्ष सामने आते हैं। इन पर अविश्वास कैसे किया जाय? वे ग्रन्थ और उनके लेखों को अप्रामाणिक कैसे कहा जाय? फिर भी ऐसी कोई व्यवस्था नहीं है कि मनीषी या जिज्ञासु मिल कर कोई सर्वोपयोगी विधान निकाल लें और उसे विधान को सर्वमान्य करने का प्रयत्न करें। ऐसा सम्भव न होने पर जिज्ञासु के सामने यह कठिनाई आती है कि प्रतिपादनों, निर्धारणों की अनेकों दिशाएँ-धाराएँ होने के कारण यह कैसे सम्भव हो कि उनमें से किसी को सन्देह रहित होकर अपनाया जाय और जब तक समग्र विश्वास का समीकरण न हो तब तक उस कृत्य में सफलता कैसे मिले?

अध्यात्म मान्यताओं और साधना की विशिष्टता श्रद्धा विश्वास के आधार पर ही फलित होती है। इस धारणा में जब शास्त्रकार और गुरुजन ही परस्पर सहमत न हो पाये और जिज्ञासु के सम्मुख अनेक सिद्धान्तों का अनेक विधानों की हाट खोल कर रखें तब यह बड़ी कठिनाई होती है कि इनमें से किनका चयन किया जाय। निश्चय ही दिग्भ्रांत स्थिति में पड़ा हो तो किसी मार्ग को अपनाना कैसे बन पड़े। सन्देह सदा यही बना रहेगा कि जो किया जा रहा है वह भटकाव तो नहीं है। इसकी तुलना में यदि अन्य मार्ग अपनाया गया होता तो क्या बुरा होता?

इन कठिनाइयों में से निकालने वाले और साथ ही सरल, शक्य व्यावहारिक मार्ग ढूँढ़ने वाले के लिए योग दर्शन का उपरोक्त सूत्र बहुत ही उपयुक्त बैठता है जिसमें ‘क्रियायोग’ की व्याख्या करते हुए केवल तीन साधन बताये हैं। उन निर्देशनों का नाम क्रियायोग इसलिए दिया गया है कि वे व्यावहारिक जीवन में उतारने योग्य हैं उनमें ऐसे दुस्साहस नहीं करने पड़ते जैसे कि हठयोग आदि का अभ्यास में भूल-चूक रहने पर साधक को लाभ के स्थान पर घाटा देते और नये संकट में फँसाते हैं।

क्रियायोग के तीनों पक्ष ऐसे हैं जिनमें उतनी कठिनाई या उलझन नहीं है जिससे ऊँच नीच सोचनी पड़े और संकल्प विकल्पों के फेर में पड़ा रहना पड़े?

इन तीन में प्रथम है- ‘तप’। तप का अर्थ है तपाना। उस तरह जिस तरह कि धातुओं को शुद्ध करने के लिए उन्हें कसौटी पर कसा या आग में तपाया जाता है। इसके लिए कष्ट साध्य क्रियाएँ करने की आवश्यकता नहीं है। वरन् अपने असंयमी कुसंस्कारों में जूझना भर है। सर्वसाधारण के लिए ‘तप’ का अर्थ संयम होना चाहिए। वही सुलभ भी है। संयमशील व्यक्ति मन की दुर्वासनाओं से लड़ता है, पर हाथों हाथ उसका सत्परिणाम भी उपलब्ध करता है।

इन्द्रिय संयम- समय संयम- अर्थ संयम और विचार संयम का पालन करने में अपनी ही अस्त-व्यवस्थाओं से निपटना और उन्हें सुव्यवस्था के अनुशासन में बरतना पड़ता है। पुरानी आदतों को छोड़ने में कुछ समय तो अनख लगता है, पर सुव्यवस्था को व्यवहार में उतारते ही यह प्रतीत होने लगता है कि बर्बादी से बचकर सर्वतोमुखी प्रगति का मार्ग मिल गया।

नेकी, भलाई, पुण्य, परमार्थ, संयम, सदाचार के मार्ग पर चलने उद्धत बहुमत का उपहास विरोध भी सहना पड़ता है, किन्तु थोड़े ही दिन में जब उन्हें अपनी आदर्शवादिता परिपक्व दीखने लगती है तो सभी का मस्तक झुकता है और जन सम्मान एवं जन समर्थन मिलने में कमी नहीं पड़ती। परखा यही जाता है कि आदर्शवाद की बकवास, विज्ञापनबाजी की जा रही है या वस्तुतः उसे सच्चे मन से अपनाया गया है। यह प्रामाणिकता सिद्धान्तों के लिए कष्ट सहने के उपरान्त ही हस्तगत होती है।

दूसरा पक्ष है- स्वाध्याय। स्वाध्याय का तात्पर्य ऐसे युग मनीषियों के विचार प्रतिपादन पढ़ना है जो सामयिक समस्याओं का व्यवहारिक समाधान सुझाते हैं और चिन्तन, चरित्र, व्यवहार का स्तर ऊँचा उठाते हैं। ऐसी पुस्तकें युग मनीषियों द्वारा लिखी हुई हो सकती हैं। उसके लिए उन पुराने इतिहास पुराणों या निर्धारणों को पढ़ते रहने से उल्टा भ्रम जंजाल गले बंधता है, जो अब असामयिक हो गये। समय के साथ बहुत कुछ बदलता है, इसमें समाधानकारक विचारधारा भी सम्मिलित है।

जो पढ़ा या सुना है। उस पर निज का विचार मन्थन आवश्यक है। उसी के आधार पर यह समझा जा सकता है कि क्या ग्राह्य है क्या अग्राह्य। युग मनीषियों में भी मतभेद पाये जा सकते हैं। उनमें से जो सत्य विवेक और व्यवहार की दृष्टि से उपयुक्त जंचता हो। ऐसा साहित्य ही तलाशना और पड़ना चाहिए। इस संदर्भ में प्रज्ञा साहित्य से किसी भी विचारशील को अपेक्षाकृत अधिक औचित्य हस्तगत हो सकता है।

तीसरा मार्ग है- ईश्वर प्रणधान। ईश्वर क्या है? इसके सम्बन्ध में उसका विराट् ब्रह्मरूप सर्वोत्तम है। यह परमात्मा विश्व मानव या समष्टि ब्रह्म है। तुलसीदास जी ने इसी को ‘सियाराम मय सब जग जानी” कह कर प्रणाम किया और अपनाया था। कल्पित देवी देवताओं की अपेक्षा विश्वमानव को- आदर्शों के समुच्चय को आराध्य मानना प्रत्येक दृष्टि से उपयुक्त बैठता है। इसी के प्रति साधक का प्राणिधान- अर्थात् ईश्वर समर्पण करना चाहिए। समर्पण का तात्पर्य सेवारत होना है। विश्व सेवा का अर्थ है- आदर्शों का समर्थन और संवर्धन। इसका व्यावहारिक स्वरूप उत्कृष्ट चिन्तन, आदर्श चरित्र और शालीन व्यवहार से बन पड़ता है। आत्मपरिष्कार और लोक-मंगल ईश्वर भक्ति की दिशा में उठाये हुए सही कदम हैं।

तप, स्वाध्याय और ईश्वर प्रणधान ही क्रियायोग है। यह अपेक्षातया अधिक सही है और सरल भी।


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