अपनों से अपनी बात- - सभी प्रज्ञा परिजन इस अभिनव प्रशिक्षण को प्राप्त करें

May 1986

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बाँध में दरार पड़ जाती है और संग्रहित पानी जब तेजी से खेत खलिहानों में बिखरने लगता है तब उसकी रोकथाम के कड़े प्रयत्न करने पड़ते हैं। रोकने के लिए डाली गई मिट्टी बात की बात में बह जाती है तब उस कटाव को सीमेन्ट के बोरों और बड़े पत्थरों से भरना पड़ता है। उस प्रयास में सैकड़ों मजूरों के श्रम और नागरिकों के सहयोग की जरूरत पड़ती है। इसके बिना काबू पाना कठिन पड़ता है। यदि स्थिति वही बनी रहे तो दूर-दूर का इलाका डूबता और बाढ़ में फंसता चला जायगा। उपेक्षा बरतने पर जो असीम हानि होती है उसकी क्षतिपूर्ति कठिन पड़ती है। इसलिए उस आकस्मिक विपत्ति का सामना दृढ़तापूर्वक किया जाता है।

इन दिनों सुख-शान्ति के- प्रगति और संस्कृति के- बाँध में जगह-जगह मोटी दरारें पड़ गई हैं। सभ्यता और प्रगति के निमित्त खोदी गई गह्वर इन दिनों मर्यादा से बाहर होकर व्यापक विनाश का कारण बन रही है। सम्पदा की अभिवृद्धि के निमित्त बढ़ा हुआ औद्योगीकरण जन-साधारण के लिए बेकारी और गरीबी का कारण बनता चला जा रहा है। प्रदूषण, विकिरण, जनसंख्या विस्फोट, प्रकृति प्रकोप, विश्वयुद्ध के बजते हुए नगाड़े जन-जन को आशंकित और आतंकित किये हुए हैं। विज्ञान और बुद्धिवाद की बढ़ोतरी ने जहाँ सुविधा साधनों का अभिवर्धन किया है वहीं मानवी गरिमा को तोड़ने उखाड़ने के लिए उत्पात भी कम नहीं मचाया है। मर्यादाओं और वर्जनाओं का उल्लंघन इस प्रकार हो रहा है मानों उनकी कभी कोई सत्ता, आवश्यकता या परम्परा ही नहीं रही थी।

इन विषम और विकट परिस्थितियों पर काबू पाने के लिए ऐसे समर्थ व्यक्तित्वों की आवश्यकता है जो अपने जैसे अनेक प्रतिभावान उत्पन्न, तलाश एवं प्रशिक्षित कर सकें और उन्हें अवाँछनीयता से जूझने में लगा सके। साथ ही जो कार्य सृजन प्रयोजन के लिए नये सिरे से किये जाने हैं उनमें भी योगदान दे सकें। चल रहे ध्वंस को निरस्त करना ही नहीं। आज ही की आवश्यकता यह है कि नई दुनिया का नया नक्शा बनाया जाय। समय के उलटी दिशा में बहते हुए प्रवाह को उलटकर सीधा किया जाय।

समय की समस्याओं से जूझना मनस्वी लोगों के लिए चुनौती भरा दुस्साहस है। इसमें पग बढ़ाने और हाथ डालने के लिए मनोबल के धनी, आदर्शवादी और साहसिक प्रतिभा के धनी हों। युग की इस परिवर्तन भरी बेला में नेतृत्व उन्हीं को करना है। बड़े परिवर्तन में जन सहयोग, जन समर्थन की आवश्यकता पड़ती है। पर उसका नेतृत्व तो कुछेक को ही करना पड़ता है। हनुमान का नेतृत्व पाकर ही रीछ-वानरों का साहस उमड़ा था। प्रचण्ड सामर्थ्य और सूझ-बूझ वाले सेनापतियों के नेतृत्व में सेना कट-कट कर लड़ती है। नैपोलियन का सेनापतित्व इसका जीता जागता उदाहरण है।

युग परिवर्तन की तैयारी के निमित्त जो सर्वोपरि महत्व की साधन सामग्री जुटानी है वह ऐसी ही प्रतिभाओं की आवश्यकता पड़ेगी जिन्हें समस्याओं को सुलझाना आता है। जो बिगड़ी को बना सकें और ऊसर में उद्यान उगाने का कौशल प्रदर्शित कर सकें। यह कार्य अनायास ही बन पड़ने वाला नहीं है इसके लिए वैसी शिक्षा व्यवस्था चाहिए जैसी कि सैन्य संचालकों को उपलब्ध कराई जाती है।

प्रश्न केवल सामूहिक समस्याओं का ही नहीं- वैयक्तिक उलझनों का भी है। उन्हें सुलझाने पर ही कोई व्यक्ति बड़े कदम उठा सकता है और व्यापक संकट निरस्त करने में समर्थ हो सकता है। निजी जीवन में शारीरिक अस्वस्थता, मानसिक उत्तेजना, आर्थिक विपन्नता, पारिवारिक अस्तव्यस्तता जैसा व्यवधान निरन्तर खड़े रहते हैं। संपर्क क्षेत्र में मित्र कम और शत्रु अधिक होते हैं। विद्वेषी सिर पर चढ़े रहते हैं और सज्जनता, सहकारिता का सहयोग ढूंढ़े नहीं मिलता। यह छोटा क्षेत्र यों है तो निजी जीवन का, पर उनको भी सुव्यवस्थित बनाने का कला-कौशल प्रदर्शित कर सकने वाले ही ऐसा कुछ कर पाते हैं जिससे समाज का बड़ा क्षेत्र प्रभावित हो। पाठशाला में आरम्भ वर्णमाला और गिनती गिनने से होता है। अन्य जटिल विषयों को पढ़ने का प्रसंग तो इसके बाद ही आता है।

जहाज चलाने और नावें खेने वाले भी सर्वप्रथम छोटे छोटे तालाबों में तैरना सीखते हैं। अभ्यास बढ़ने पर वे बड़े काम संभालते हैं। प्रशिक्षण आरम्भ में छोटा ही क्यों न हो पर वह चाहिए तो अवश्य ही। आज के वैयक्तिक एवं सामूहिक जीवन में इतनी विपन्नतायें भर गई हैं कि उनके कारण और निवारण का स्वरूप तो समझना ही होगा। इसके अतिरिक्त सामूहिक समस्याओं के समाधान में भी हस्तक्षेप करना होगा। अच्छे व्यक्तियों के बिना अच्छे समाज की रचना नहीं हो सकती। इसी प्रकार अच्छा समाज बनाने के लिए अच्छे व्यक्तियों का समुदाय बनाना और मजबूत करना आवश्यक है।

युग पुरुष- महामानव उत्पन्न करने की शिक्षा प्राचीन ऋषि कुलों में दी जाती थी। वे ही नर रत्नों के उत्पादन की खदान जैसी भूमिका निभाते थे, पर अब तो वैसी व्यवस्था रही नहीं। सामान्य ज्ञान और अर्थ उपार्जन जैसे छोटे प्रयोजन ही उनके आधार पर किसी प्रकार पूरे हो पाते हैं।

आज की विपन्नता और कल की आवश्यकता को ध्यान में रखते हुए यह अनिवार्य लगा कि युग पुरुष उत्पन्न कर सकने वाले स्तर की शिक्षा का तत्काल प्रबन्ध किया जाय ताकि विडम्बनाओं से जूझा और उज्ज्वल भविष्य की सम्भावनाओं का आधार खड़ा किया जा सके।

ईश्वर की महती कृपा ही है कि इस प्रकार की शिक्षा व्यवस्था का प्रबन्ध बन पड़ा। शान्ति कुँज में अब तक ऋषि परम्पराओं को पुनर्जीवित करने वाली बहुमुखी प्रवृत्तियाँ चलती रही हैं और अपना प्रभाव भी प्रदर्शित करती रही हैं। किन्तु अब वहाँ इस केन्द्र पर प्रवृत्तियों को एकाग्र किया गया है कि व्यक्तित्व उभारने प्रतिभा निखारने और आदर्शवादी साहसी उत्पन्न करने की व्यवस्था विशेष रूप से की जाय। इस प्रक्रिया को ‘प्रज्ञा प्रशिक्षण’ नाम दिया गया है। उस नये रूप का आरम्भ भी इसी एक मई से चला पड़ा है। यों युग शिल्पी सत्र एक-एक महीने की अवधि के विगत कई वर्षों से चल रहे थे और उसके माध्यम से प्रज्ञा परिवार की गतिविधियों को अग्रगामी बनाने की शिक्षा दी जा रही थी। उसे प्राप्त करने के उपरान्त सहस्रों ने अपने-अपने क्षेत्रों में जन-जागृति का शंख बजाया और युग चेतना का आलोक फैलाया है। मिशन की प्रगतिशीलता का अभिवर्धन करने की दृष्टि से वह आरम्भिक प्रयास भी कम महत्वपूर्ण नहीं था, पर अब इस वर्ष से उसे अधिक समर्थ व्यापक एवं सुसम्पन्न बनाया गया है। उसकी शैली नालन्दा विश्वविद्यालय, तक्षशिला, विश्वविद्यालय के अनुरूप बनाई गई है। उनमें पाठ्यपुस्तकें तो कम थीं, पर व्यावहारिक शिक्षा का इतना अधिक समावेश था कि प्रत्येक शिक्षार्थी चिन्तन, चरित्र और व्यवहार को उच्च स्तरीय बनाने की व्यावहारिक शिक्षा प्राप्त करते थे। उसे हृदयंगम करते और जीवनचर्या में गहराई तक सुसम्बद्ध करने की स्थिति तक पहुँचते थे, वैसा ही प्रबन्ध शान्ति कुँज में नये सिरे से किया गया है।

इमारतों को जोड़-तोड़ कर उन्हें छात्रावास और शिक्षालय के रूप में परिणत किया गया है। पाँच सौ शिक्षार्थियों की जगह तो आसानी से निकल आई है। प्रयत्न आगे भी जारी है और यह प्रयत्न किया जा रहा है कि एक हजार शिक्षार्थियों तक के आवास और प्रशिक्षण की व्यवस्था इसी क्षेत्र में हो सके। इसके लिए उपयुक्त अध्यापक प्रशिक्षित करने के अतिरिक्त एक दौर शिक्षार्थियों को प्रज्ञा सम्पन्न बनाने के साथ-साथ ही चल रहा है। विषयों का- पाठ्यक्रम का निर्धारण इस प्रकार किया गया है कि व्यक्ति अपने निज की तथा समाज की प्रस्तुत समस्याओं का निराकरण करने में सफल भूमिका निभा सके।

पुरातन शिक्षा शैली में गुरुकुल मात्र चित्र-विचित्र प्रकार की जानकारियाँ भर लादने की दुकानें नहीं थीं। वरन् उनमें शिक्षा संचालकों को व्यावहारिक रूप से अभिभावक की भूमिका निभानी होती थी। प्रशिक्षण निवास देखभाल ही नहीं भोजन व्यवस्था भी गुरुकुल ही जुटाते थे। वही प्रबन्ध शान्ति कुँज की अभिनव विधिव्यवस्था में भी समाविष्ट किया गया है। पाँच सौ शिक्षार्थी और दो सौ अतिथि इस प्रकार आश्रम में न्यूनतम 700 से लेकर एक हजार तक का भोजनालय गतिशील रहता है। इसका आर्थिक भार ही इतना बड़ा है कि उसका हिसाब लगाते और बजट बनाने में ही बुद्धि आश्चर्यचकित रह जाती है। फिर भी विश्वास किया गया है कि जिस प्रकार मिशन का एक भी संकल्प अब तक अधूरा नहीं रहा, उसी प्रकार भविष्य में भी महाकाल अपनी आवश्यकता पूर्ति के साधन जुटा लेगा और प्रशिक्षण के निर्धारित स्वरूप में कहीं कोई बाँधा न पड़ने पायेगी।

पाठ्यक्रम मात्र एक महीने का रखा गया है, जो निरन्तर चलता रहेगा। यों समय की आवश्यकता और प्रज्ञा परिजनों में से उत्सुक भावनाशीलों की संख्या को देखते हुए प्रशिक्षण छोटा पड़ता है। जब डॉक्टर, वकील, इंजीनियर, कला आदि विषयों की प्रवीणता प्राप्त करने के लिए लम्बे समय का प्रशिक्षण प्राप्त करना पड़ता है। तो कोई कारण नहीं कि युग चेतना को उभारने और विपन्नताओं से जूझने वाली शिक्षा का समय इतना थोड़ा रहे। उसे लम्बी अवधि का बनाये जाने और भर्ती बड़ी संख्या में होने की आवश्यकता सहज ही प्रतीत होती है, पर साधनों के सीमित होने की कठिनाई तथा समय की आवश्यकता को पूरा कर सकने वाले व्यक्तित्व अधिक संख्या में विनिर्मित करने और उसमें देर न लगने देने की बात को भी कम वजनदार नहीं माना जा सकता। स्थिति और आवश्यकता का संतुलन बिठाते हुए ही योजना बनानी पड़ती है। इसमें विषय का महत्व कम करना नहीं वरन् अनेकों विवशतायें हैं जिससे शिक्षण का समय सीमित ही रखना पड़ा है।

इस प्रसंग में एक कठिनाई और है कि उपयुक्त मनोभूमि के शिक्षार्थी तलाश करना सामान्य काम नहीं है। समय की विचित्रता कुछ ऐसी है, जिसमें मनुष्य पेट और प्रजनन से- लोभ, मोह और अहंकार के कुचक्र में इतना व्यस्त है कि मानवी गरिमा के अनुरूप किसी कदर आदर्शवादिता की दिशा में कदम बढ़ाने के लिए इच्छुक नहीं। वासना, तृष्णा और अहन्ता की पूर्ति में ही उसकी आकाँक्षा, विचारणा और कार्यशीलता खप जाती है। यही कारण है कि जब कभी आदर्शवादी प्रयोजनों का प्रसंग आता है, तब वह वासना, तृष्णा, अहन्ता की पूर्ति को प्रमुखता देता है और उच्च प्रयोजनों को अपनाने में अपनी व्यस्तता, असमर्थता, कृपणता आदि कठिनाईयाँ व्यक्ति करता है। ऐसी दशा में उपयुक्त स्तर के छात्र मिल भी सकेंगे या नहीं? इस प्रकार का असमंजस उठता है, किन्तु साथ ही विश्वास भी बँधता है कि नियन्ता को अपनी अनुपम कलाकृति इस विश्व वसुधा की गरिमा सत्ता बनाये रखनी है तो वह प्राणवान-जीवन्तों में ऐसी प्रेरणा भरेगा भी कि वे आगे बढ़े और युग नेतृत्व कर सकने की क्षमता सम्पादित करने का अवसर चूकें नहीं। ऐसी दशा में उपयुक्त स्तर के छात्रों का मिलते रहना कुछ बहुत कठिन नहीं होना चाहिए।

समस्याएँ और आवश्यकताएँ अगणित हैं, उनसे प्रभावित और प्रताड़ित भी कोटि-कोटि लोग हैं। उन्हें सही स्थिति तक पहुँचाने के लिए ऐसे नेतृत्व की आवश्यकता पड़ेगी, जो विभिन्न क्षेत्रों में अपना सृजनात्मक कौशल दिखा सकें। वैज्ञानिक, बौद्धिक, आर्थिक, चारित्रिक ऐसे हैं, जिनमें वर्तमान स्थिति को असाधारण रूप से उलटना और सही दिशा में अग्रसर करना है। यह कौन करे? इसके लिए ऐसे कर्मवीर चाहिए, जो विनाश को निरस्त करने के लिए दधीचि जैसा त्याग और भागीरथ जैसा तप कर सके। जिनमें पूर्व संचित संस्कारों का बीजाँकुर होगा, उन्हीं को खाद-पानी देकर सींचा और सुविकसित किया जा सकेगा।

विश्वामित्र ने दशरथ पुत्रों को उनके आश्रम में पढ़ने भेजने के लिए असाधारण दबाव डाला था। मोहवश राजा इसके लिए तैयार न थे, तो भी उन्होंने मोह-बन्धन को छुड़ाने के लिए प्रबल प्रयास किया फलतः राम-लक्ष्मण शिक्षा के साथ-साथ असाधारण शक्ति भी साथ लेकर आये। धनुष भंग, सीता-स्वयंवर, लंका-दमन, धर्म-संस्थापन जैसे अनेकों अद्भुत कार्य उनको कर दिखाये। यह सब उच्चस्तरीय प्रशिक्षण का ही प्रतिफल था, जिसमें मात्र जानकारियाँ ही नहीं, शक्तियाँ और विभूतियाँ भी भरी पड़ी थीं। शान्ति कुँज के प्रज्ञा प्रशिक्षण को इसी स्तर का समझा जा सकता है।

यों प्रत्यक्षतः उसमें भाषण कला, सम्भाषण कौशल, सुगम संगीत, जड़ी-बूटी उपचार, पौरोहित्य जैसे प्रसंग ही प्रत्यक्ष दृष्टिगोचर होंगे, पर उसके साथ ही उन विषयों का भी समावेश रहेगा, जिससे व्यक्तित्व निखरता और दृष्टिकोण सुधरता है। साथ में ऐसी भावनाओं का भी समावेश रखा गया है, जो अन्तराल की विभूतियों को उभारती और दुष्प्रवृत्तियों को जड़मूल से उखाड़ती है।

प्रज्ञा परिवार के, विशेषतया मिशन की पत्रिकाओं के सदस्यों से आग्रह-अनुरोध किया गया है कि वे अपना आवेदन पत्र भेजकर किसी निश्चित महीने के लिए प्रस्तुत सत्र में सम्मिलित होने की अनुमति प्राप्त कर लें। बिना अनुमति आना वर्जित है। कारण कि इनमें प्रखरता सम्पन्न व्यक्ति ही सम्मिलित हो सकेंगे। बूढ़े, बीमार, अपंग, असमर्थ, उद्दण्ड, अशिक्षित, मिशन से अनजान, अनगढ़ बच्चे लोगों को मनमर्जी से चल पड़ने और दूसरे सुयोग्य व्यक्तियों का स्थान घेरने से उनका, दूसरों का, तथा समाज का अनहित ही हो सकता है। व्यक्तिगत परामर्श के लिए, पर्यटन के लिए एक-दो दिन का आना ही पर्याप्त है। उन्हें एक महीना पड़े रहने की आवश्यकता नहीं है।

प्रवेश का आवेदन-पत्र हाथ से लिखकर भेजा जा सकता है। उसमें (1) नाम, पूरा पता (2) आयु (3) शिक्षा (4) जन्म-तिथि (5) व्यवसाय (6) मिशन की पत्रिकाओं से संपर्क अवधि (7) मिशन के लिए कोई कार्य किये हों, तो उनका उल्लेख (8) अनुशासन पालन का आश्वासन लिख भेजना पर्याप्त है। साथ ही यह भी लिखना चाहिए कि किस महीने में आना है, और यदि वह सत्र भर चुका हो, तो अन्य किस महीने में स्थान मिले, यह भी लिख भेजना चाहिए।

अपने क्षेत्र के उदीयमान प्रतिभाओं को ढूँढ़ने, उन्हें अवगत एवं उत्साहित करने, प्रवेश लेने के लिए भी उत्साहित करने में सभी प्रज्ञा परिजनों को शक्ति भर प्रयत्न करना चाहिए।

जिनने कभी पिछले दिनों युग शिल्पी सत्र की शिक्षा प्राप्त कर ली हो, उन्हें इन अभिनव सत्रों में नये सिरे से सम्मिलित होने की आवश्यकता है, क्योंकि उनमें अनेक ऐसे विषयों का समावेश किया गया है, जो पहले नहीं थे।


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