जन्म भूमि में रहें या अन्यत्र जा बसें

May 1986

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

वातावरण का अपना प्रभाव होता है और वह चुपके-चुपके मनुष्य की कोशिकाओं को इस प्रकार अपने अनुरूप ढालता है कि उसे पता भी नहीं चल पाता और व्यक्तित्व में भारी परिवर्तन हो जाता है।

यूनान के दक्षिण में एक सैन्तोरीनी नामक टापू है। उसमें आदिवासी तो रहते हैं पर अन्य वातावरण में अभ्यस्त लोग एक दो दिन से अधिक वहाँ नहीं ठहर पाते। उन्हें वहाँ बहुत बेचैनी मालूम होती है और लगता है कि जमीन के नीचे से शहद की मक्खियों जैसी भन-भनाहट होती रहती है। सहारा रेगिस्तान के कई क्षेत्रों में बालू से संगीत निकलता है और रोने हंसने की आवाजें आती रहती हैं। इसका तात्पर्य है कि उस क्षेत्र में जमीन के भीतर की कई परतें असामान्य स्थिति में हैं और उस क्षेत्र में ऐसे कम्पन उद्भूत हो रहे हैं जो किसी अतिशय प्रभाव से प्रभावित हैं और वे मनुष्य की अभ्यस्त प्रकृति के नहीं हैं।

रूसी विज्ञानी लेखेत्वस्की ने वायु मण्डल के साथ घुली हुई विभिन्न प्रकार की विद्युत तरंगों का विश्लेषण किया है और कहा कि जो व्यक्ति जिस क्षेत्र में रहने के अभ्यस्त हैं उनके लिए वहीं का वातावरण अनुकूल पड़ता है। अन्य स्थानों की तरंगें अच्छी होने पर भी ऐसा अनावश्यक दबाव डालती हैं जो उनके लिए हानिकारक ही सिद्ध होता है।

आहार के सम्बन्ध में भी यहीं बात है। जिन क्षेत्रों में ज्वार, बाजरा, मक्का जैसी फसलें बहुलता से उत्पन्न होती हैं, उनके लिए वे ही अन्न शरीर के अनुकूल और उपयोगी सिद्ध होते हैं जबकि गेहूं, चावल खाये जाने वाले क्षेत्रों में उनकी उपयोगिता वैसी नहीं रह जाती। समुद्र तट पर खारी भूमि में जल जीव ही आहार बन जाते हैं। ध्रुव प्रदेश के निवासी एस्किमो मछली के सहारे ही अपनी जीवनचर्या चलाते हैं।

जलवायु बदलने के लिए सुदूर क्षेत्रों में जाने की योजना मनोरंजन की दृष्टि से उपयोगी हो सकती है। किन्तु अभ्यस्त वातावरण में अधिक अन्तर पड़ जाने के कारण अन्ततः उनका प्रभाव बेतुका ही होता है। अच्छा यही है अपने ही क्षेत्र में खुली वायु, हरियाली और वनस्पतियों के बीच रहने का क्रम बनाया जाय और रहन-सहन के नियमों में अधिक प्राकृतिकता का समावेश करके अपने लिए उपयुक्त व्यवस्था बना ली जाय। मातृभूमि का महत्व देश भक्ति की दृष्टि से तो श्रद्धास्पद है ही। साथ ही उसमें यह भी विशेषता है कि स्थानीय भूमि के अनुरूप शरीर को विभिन्न प्रकार के पोषण मिलने से वह उसी वातावरण का अभ्यस्त बन जाता है।

मानसिक स्थिति के सम्बन्ध में भी वातावरण का प्रभाव पड़ता है। किसी क्षेत्र के निवासी क्रूर, किसी के मूर्ख, किसी के धूर्त और किसी के सौम्य होते हैं। शारीरिक दृष्टि से तो जो जहाँ का है उसे वहाँ का आहार-विहार अनुकूल पड़ता है पर मानसिक विषय में यह बात नहीं है। जहाँ का मानसिक धरातल सज्जनोचित न हो, वहाँ से अन्यत्र उपयोगी स्थान में जा बसना ही उत्तम है। या फिर प्रयत्नपूर्वक सामूहिक आन्दोलन के रूप में क्षेत्रीय परम्पराओं में हेर-फेर करना चाहिए। बलूचिस्तान जैसे क्षेत्रों में जरा-जरा सी बात पर उत्तेजित होकर खून खराबी कर बैठने का प्रचलन है। अफ्रीका के ऐसे भी क्षेत्र हैं जिनमें पशु पक्षी नहीं नहीं नर-भक्षी लोग भी रहते हैं। उस क्षेत्र में रहते-रहते एक परम्परा बन जाती और वह पीढ़ी दर पीढ़ी चलती है। ऐसी स्थिति को सुधार सकना सम्भव न हो तो स्वयं वहाँ से उठकर किसी अन्य सभ्य प्रदेश में जा बसना अथवा उस क्षेत्र के सज्जनों के साथ अपना एक पृथक समुदाय बना लेना उपयुक्त है।

मातृभूमि में निवास शारीरिक दृष्टि से उपयोगी होता है। किन्तु मानसिक दृष्टि से प्रबुद्ध क्षेत्र में जा बसना ही ठीक है।


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:


Page Titles