एक धनी व्यक्ति ने सुन रखा था कि भागवत पुराण सुनने से मुक्ति हो जाती है। राजा परीक्षित की इसी से मुक्ति हुई थी। उसने एक पंडित जी को भगवान की कथा सुनाने को कहा। पूरी कथा हो गई पर उस व्यक्ति के मुक्ति के कोई लक्षण नजर न आये। उसने पंडित जी से इसका कारण पूछा पण्डित जी ने लालच वश उत्तर दिया। यह कलियुग है। इसमें चौथाई पुण्य होता है। चार बार कथा सुनो तो एक कथा की बराबर पुण्य होगा। धनी से तीन कथा की दक्षिणा पेशगी दे दी और कथाएँ आरम्भ करने को कहा। वे तीनों भी पूरी हो गईं पर मुक्ति का कोई लक्षण तो भी प्रतीत न हुआ इस पर कथा कहने और सुनने वाले में कहा-सुनी होने लगी।
विवाद एक उच्चकोटि के महात्मा के पास पहुँचा। उसने दोनों को समझाया कि केवल बाह्य क्रिया से नहीं आन्तरिक स्थिति के आधार पर पुण्य-फल मिलता है। राजा परीक्षित मृत्यु को निश्चित जान संसार के वैराग्य लेकर आत्म कल्याण में मन लगाकर कथा सुन रहा था। बीतराग शुकदेव जी भी पूर्ण निलोभ होकर परमार्थ की दृष्टि से कथा सुना रहे थे। दोनों की अन्तःस्थिति ऊंची थी, इसलिए उन्हें वैसा ही फल मिला। तुम दोनों लोभ, मोह में डूबे हो। जैसे कथा कहने वाले वैसे सुनने वाले, इसलिए तुम लोगों को पुण्य तो मिलेगा पर वह थोड़ा ही होगा। परीक्षित जैसी स्थिति न होने के कारण वैसे फल की भी तुम्हें आशा नहीं करनी चाहिए।
आत्म कल्याण के लिए बाह्य कर्मकाण्ड से ही काम नहीं चलता। उसके लिए उच्च भावनाएं होना भी आवश्यक है।