क्या महाविनाश की पुनरावृत्ति होगी?

May 1986

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

अमेरिका की नौ सैनिक वैधशाला के अनुसंधान में अपनी चिरकालीन शोध के आधार पर सिद्ध किया है कि अब से लाखों वर्ष पूर्व सौरमण्डल का एक और सदस्य था-- ‘फैथान’। वह बाद में लुप्त हो गया। पृथ्वी की तुलना में वह प्रायः 90 गुना बड़ा था और पृथ्वीवासियों को दिन में भी दीखना था। रात्रि में तो उसकी चमक चन्द्रमा से कहीं अधिक थी। पर अब उसके ध्वंसावशेष जहाँ-तहाँ बिखरे ही दीख पड़ते हैं। उसका मूल स्वरूप समाप्त हो गया।

कहा गया है कि उस पर रहने वालों ने आज की पृथ्वी की तुलना में ज्ञान विज्ञान के क्षेत्र में कहीं अधिक प्रगति कर ली थी। सम्भवतः परमाणु आयुध स्तर के अस्त्र भी उनके पास थे। आपा-धापी और अहंमन्यता के आवेश में वे परस्पर भिड़ गये और अणु अस्त्रों का ऐसा प्रयोग हुआ जिससे उसका प्राणी सम्पदा एवं पदार्थ वैभव ही नष्ट नहीं हुआ, वरन् उस समूचे ग्रह के ही परखचे उड़ गये। टुकड़ों की समूचे सौरमण्डल पर वर्षा हुई और जिसे जहाँ जगह मिली वहाँ उसने अपने लिए स्थान बना लिया। यह टुकड़े ही बड़े ग्रहों के उपग्रह बन गये। चंद्रमा की तरह पराक्रम करने लगे। शनि के इर्द-गिर्द घूमने वाला धूलिवलय उसके बारीक कणों में गठित हुआ है।

मंगल ग्रह पर इससे पूर्व जलाशय थे। बड़ी-बड़ी नदियों और सरोवरों पर उस विघटित ग्रह का चूरा उससे टकराया तो बढ़ी हुई गर्मी ने उसे भाप बनाकर अन्तरिक्ष में उड़ा दिया। शनि और बृहस्पति भी तब समृद्ध थे, उनमें भी जल का अस्तित्व था। जो सर्दी में जमता और गर्मी में पिघलता, बरसता रहता था, पर टकराव की ऊर्जा ने समूचे सौरमण्डल को प्रभावित किया फलतः पानी का अस्तित्व इन दिनों पृथ्वी के अतिरिक्त प्लेटो नेपच्यून में भी बर्फ की तरफ जमा हुआ पाया जाता है। चन्द्रमा पर बड़े-बड़े खाई खड्ड उसी आघात से उत्पन्न हुए। नेपच्यून जैसे ग्रहों में जहाँ-जहाँ कूबड़ उठे हुये दिखाई पड़ते हैं।

मंगल और बृहस्पति के बीच में प्रायः 50 हजार पथरीले टुकड़ों की एक शृंखला अभी भी अपनी एक निर्धारित कक्षा बनाकर उसमें भ्रमण करती रहती है। उसके गुरुत्वाकर्षण की न्यूनता से इधर-उधर छितरा जाते हैं और समीपवर्ती ग्रहों से टकराकर उल्कापात के दृश्य उपस्थित करते रहते हैं। जब वे पृथ्वी के वायु मण्डल में प्रवेश करते हैं तो घर्षण से पिघलकर जलती हुई रेखा के रूप में दिखाई देते हैं। उसी को तारा टूटना कहते हैं।

विशाल अन्तरिक्ष में और विशेषतया सौर मण्डल की परिधि में अनेक पुच्छल तारे भ्रमण करते रहे हैं। वे धूलि, बर्फ, पत्थर खनिज आदि के समुच्चय हैं। हलके होने के कारण उनकी कक्षाएं भी बहुत बड़ी बन जाती हैं। इसलिए उनका परिभ्रमण मुद्दतों में एक चक्कर काट पाता है। प्रस्तुत हैली पुच्छल तारा जो पिछले दिनों दिखाई दिया 78 वर्षों में एक यात्रा पूरी कर पाता है।

कोलम्बिया विश्वविद्यालय के खगोल शास्त्री ओवेन डेन ने अन्तरिक्ष के पुच्छल तारों का विशेष रूप से अध्ययन किया है। उनकी संरचना का भी विश्लेषण किया है। उनका कथन है कि यह उसी ग्रह के विस्फोट से उत्पन्न हुई धूलि है जो हलकी होने के कारण द्रुतगति से उड़ती चली गई। भ्रमण तो करने लगी, कक्षा भी बनाली किन्तु साधना अपनाने और पिण्ड रूप में ढाल सकने में समर्थ ही हुई।

वैज्ञानिक वोर्डे का कथन है कि उसके कई बड़े टुकड़े सूर्य की निजी कक्षा में जा पहुँचे और उसके गुरुत्वाकर्षण में जकड़कर समीपवर्ती क्षेत्र में भी परिभ्रमण करने लगे। उन्हीं का व्यतिक्रम चुम्बकीय तूफानों के रूप में जब तब अपने अवशिष्ट सता का परिचय देता है। उससे पृथ्वी की सुव्यवस्था में असाधारण उथल-पुथल पैदा हो जाती है। यह चुम्बकीय तूफान उन टुकड़ों से उत्पन्न ऊर्जा के कारण अन्य ग्रहों में भी चुम्बकीय तूफानों या दूसरे प्रकार के तूफान के रूप में देखे जाते हैं।

शोधकर्ता फ्लेडर्च ने उस टूटे तारे की धूलि वर्षा का सम्बन्ध धरती पर पाये जाने वाले रेगिस्तानों में जोड़ा है और उनमें उर्वरता का न होना तथा रेत कणों की विरलता को एक प्रकार से विजातीय पदार्थ माना है और कहा कि इनका सुधरना सम्भव तो है पर है अत्यन्त कष्टसाध्य और व्यय साध्य। इस रेगिस्तानी पट्टियों को यथावत रहने दिया गया तो वे सिकुड़ने के स्थान पर फैलती ही रहेंगी और समीपवर्ती क्षेत्रों की उर्वरता को निगलेगी।

इन अन्वेषणों और परिकल्पनाओं का अभी अन्त नहीं हुआ है। यह खोज-बीन जारी ही है कि उसे विस्फोट से पूर्व सौर मण्डल क्षेत्र में कितनी विशेषताएँ थीं, जो उस उपद्रव के कारण तिरोहित हो गईं और अभी भी धूमकेतुओं पुच्छलतारों के रूप में जो धूलि उड़ती रहती है वह अपने बचकानेपन का प्रभाव कहाँ किस प्रकार, कितना भयंकर उत्पन्न कर सकती है, इसका ठीक से अनुमान नहीं लगाया जा सकता। लाखों वर्ष बीत जाने पर भी उसकी प्रतिक्रिया अभी भी चल रही है। उसने अभी भी स्थिरता अपनाने जैसी स्थिति अभी भी प्राप्त नहीं की है। रुष्ट, असन्तुष्ट प्रेत की तरह वह अभी भी उपद्रवों से बाज नहीं आई है।

पुरातन इस घटनाक्रम का कथन, प्रतिपादन इसलिए आवश्यक हो गया कि वैसी ही पुनरावृत्ति की संभावना अब नये सिरे से बन रही है। जिस प्रकार के तृतीय विश्व की भूमिका इन दिनों बन रही है। उसके साथ वे पुरातन संभावनाएं पूरी तरह जुड़ी हुई हैं, जिनका स्मरण मात्र भूतकालीन दुर्गति का स्मरण करने मात्र से रोमाँच खड़ा कर देती है।

इस स्तर का जितना अजस्र भण्डार विश्व के मूर्धन्य राजनेताओं ने जमा कर रखा है उसका उद्देश्य इतने महंगे खिलौने खेलना मन बहलाना नहीं हो सका। वे सदा इस प्रकार शान्त निष्क्रिय बने रहेंगे यह आशा भी नहीं की जा सकती। बनाने और इकट्ठा करने में तो बुद्धिमता और साधन सामग्री की भी आवश्यकता पड़ी है। पर इस बारूद के ढेर में एक तीली जलाकर फेंक देने का कार्य तो कोई मूर्ख असमर्थ भी कर सकता है। यह कल्पना नहीं संभावना है जिसका परिणाम उससे भयंकर न होगा जैसा कि लाखों वर्ष पूर्व आपाधापी भी अहन्ता के कुचक्र में घटित हो चुका है।

अणु आयुधों से पृथ्वी पर लड़ा जाने वाला युद्ध ही इस भूमण्डल को उड़ा देने बिखेरने के लिए पर्याप्त है। अब “स्टार वार” अन्तरिक्ष युद्ध का जो नया कदम बढ़ाया जा रहा है। वह पृथ्वी के लिए ही नहीं सौर मण्डल के अन्यान्य सदस्यों की स्थिति को भी वर्तमान जैसी नहीं बनी रहने दे सकता।

बुद्धिमानों की मूर्खता और दुर्बुद्धि से भगवान ही बचाये। उन कदमों को पीछे लौटायें जो सर्वनाश की दिशा में गतिशील हो रहे हैं।


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:


Page Titles






Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118